इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 के तहत अधिसूचना के बाद कथित रूप से भूमि खरीदने वाले अनधिकृत व्यक्तियों से मुआवज़ा वसूलने की मांग करने वाली एक जनहित याचिका (पीआईएल) को खारिज कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश अरुण भंसाली और न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि जब कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त प्रक्रियाओं के तहत पहले ही भुगतान किया जा चुका है, तो न्यायालय मुआवज़े के नए भुगतान का निर्देश नहीं दे सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता खेम चंद और अन्य द्वारा जनहित याचिका (मामला संख्या WPIL 2365/2024) दायर की गई थी, जिसका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता अनिल कुमार दुबे और प्रभा शंकर पांडे ने किया था। याचिका में आरोप लगाया गया था कि सरकार द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण अधिनियम, 1956 की धारा 3-ए के तहत अधिसूचना जारी करने के बाद अनधिकृत व्यक्तियों ने भूमि का अधिग्रहण किया। कानूनी प्रतिबंधों के बावजूद, इन व्यक्तियों को कथित तौर पर मध्यस्थता कार्यवाही के बाद बढ़ी हुई राशि सहित मुआवज़ा मिला।
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याचिका में न्यायालय से यह निर्देश मांगा गया था कि अनधिकृत प्राप्तकर्ताओं से यह धनराशि वसूल की जाए तथा उन्हें मूल किसानों को वापस किया जाए।
कानूनी मुद्दे तथा न्यायालय की टिप्पणियाँ
इस मामले में निम्नलिखित मुख्य कानूनी मुद्दे उठाए गए:
1. राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम के तहत सरकारी अधिसूचना के बाद भूमि लेनदेन की वैधता।
2. उन मामलों में मुआवज़े का अधिकार जहाँ भूमि स्वामियों ने अधिसूचना के बाद अपनी भूमि हस्तांतरित की है।
3. क्या न्यायालय मुआवज़े के पुनर्भुगतान का आदेश दे सकता है जबकि 2017 में ही प्राथमिकी दर्ज की जा चुकी है।
रिकॉर्ड की जाँच करने पर, हाईकोर्ट ने पाया कि 2017 में शिकायतें की गई थीं, जिसके कारण प्राथमिकी दर्ज की गई, लेकिन याचिकाकर्ता इसके परिणाम के बारे में कोई जानकारी प्रस्तुत करने में विफल रहे। याचिकाकर्ताओं ने देरी का औचित्य बताए बिना, लगभग सात साल बाद, मार्च 2024 में ही एक अभ्यावेदन दायर किया।
न्यायालय का निर्णय
याचिका को खारिज करते हुए, न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि खातेदार (भूमिधारक) के रूप में दर्ज व्यक्तियों को मुआवज़ा पहले ही दिया जा चुका है, भले ही वे कानूनी रूप से हस्तांतरित व्यक्ति हों या नहीं। विकास प्राधिकरण ने पुरस्कारों और मध्यस्थ निर्णयों के आधार पर काम किया था, और उन किसानों को दूसरा मुआवजा भुगतान करने का कोई औचित्य नहीं था, जिन्होंने पहले ही अपनी जमीन हस्तांतरित कर दी थी।
अदालत की मुख्य टिप्पणी:
“जब कार्यवाही हो चुकी है और एफआईआर दर्ज हो चुकी है, तो सात साल बाद इस याचिका को दायर करना, योग्यता का अभाव है। भुगतान पहले ही उचित प्रक्रिया के तहत किया जा चुका है, और नए मुआवजे का निर्देश देना कानूनी रूप से अस्वीकार्य होगा।”
अदालत ने अचानक जनहित याचिका दायर करने के बारे में भी संदेह व्यक्त किया और टिप्पणी की कि यह स्पष्ट नहीं है कि “याचिकाकर्ताओं ने किसके निर्देश पर याचिका दायर की है।” नए साक्ष्य की अनुपस्थिति और याचिका में देरी को देखते हुए, अदालत ने मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।
याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता अनिल कुमार दुबे और प्रभा शंकर पांडे ने किया, जबकि उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता सीमा अग्रवाल (स्थायी वकील) और प्रांजल मेहरोत्रा ने किया।