पुलिस के समक्ष किया गया इक़बालिया बयान विभागीय कार्रवाई में बर्खास्तगी का एकमात्र आधार नहीं बन सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि पुलिस के समक्ष कथित रूप से किया गया इक़बालिया बयान किसी कर्मचारी को विभागीय कार्यवाही में गंभीर सजा जैसे बर्खास्तगी देने का एकमात्र आधार नहीं हो सकता।

यह फैसला न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी की एकलपीठ ने जग पाल सिंह बनाम भारत संघ व अन्य मामले में सुनाया। याचिकाकर्ता एक एसबीआई कर्मचारी थे, जिन्हें ₹55 लाख की धोखाधड़ी के आरोप में सेवा से बर्खास्त किया गया था। कोर्ट ने स्वतंत्र साक्ष्यों की पूर्ण अनुपस्थिति पाते हुए इस बर्खास्तगी आदेश को रद्द कर दिया और इसे “बिना साक्ष्य का मामला” करार दिया।

मामला संक्षेप में

याचिकाकर्ता जग पाल सिंह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की गोंडा शाखा में कैशियर थे। 20 जून 2014 को एक ग्राहक आशा पुंडीर द्वारा एफआईआर दर्ज कराई गई, जिसमें उनके खाते से ₹55 लाख की धोखाधड़ी की शिकायत की गई। जांच के दौरान याचिकाकर्ता को आरोपी बनाया गया, 26 नवंबर 2014 को गिरफ़्तार किया गया और बाद में 9 फरवरी 2015 को ज़मानत मिली। आपराधिक मुकदमा अभी लंबित है।

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इस बीच बैंक ने 28 फरवरी 2015 को विभागीय चार्जशीट जारी की जिसमें तीन मुख्य आरोप लगाए गए:

  1. बैंक की गोपनीयता का उल्लंघन
  2. षड्यंत्र में संलिप्त होकर धोखाधड़ी करना
  3. ₹55.20 लाख का वित्तीय नुकसान व बैंक की प्रतिष्ठा को अपूरणीय क्षति पहुंचाना

जांच अधिकारी ने 9 अक्टूबर 2015 को अपनी रिपोर्ट में तीनों आरोपों को “सिद्ध” बताया। रिपोर्ट मुख्यतः एक पुलिस डायरी (Dex-1/110-130) पर आधारित थी जिसमें याचिकाकर्ता द्वारा ग्राहक की जानकारी धोखेबाजों से साझा करने की बात स्वीकार करने का उल्लेख था। इसी आधार पर 10 दिसंबर 2015 को याचिकाकर्ता को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।

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पहले एक रिट याचिका में हाईकोर्ट की समन्वय पीठ ने 21 मार्च 2018 को यह आदेश रद्द कर दिया था, यह कहते हुए कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने याचिकाकर्ता की आपत्तियों पर विचार नहीं किया और कारण नहीं बताए। कोर्ट ने मामले को पुनः विचार के लिए वापस भेजा।

पुनः विचार के बाद अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने 20 जून 2018 को फिर से “बिना नोटिस के सेवा से बर्खास्तगी” का आदेश पारित किया। इसी आदेश और अपील खारिज किए जाने को वर्तमान रिट याचिका में चुनौती दी गई थी।

पक्षकारों की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्री सत्येन्द्र चंद्र त्रिपाठी ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट के पूर्व आदेश का अक्षरशः पालन नहीं किया गया। उन्होंने कहा कि संपूर्ण विभागीय कार्रवाई पुलिस के समक्ष कथित इक़बालिया बयान पर आधारित थी, जिसे एकमात्र साक्ष्य के रूप में मान्य नहीं किया जा सकता। न कोई स्वतंत्र गवाह पेश किया गया, न ही कथित इक़बालिया बयान का वीडियो कोर्ट में प्रस्तुत हुआ।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के Roop Singh Negi बनाम पंजाब नेशनल बैंक [(2009) 2 SCC 570] मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था:

“जांच अधिकारी द्वारा संकलित तथाकथित साक्ष्य को अपने आप में विभागीय कार्रवाई में साक्ष्य नहीं माना जा सकता, जब तक कि उन्हें गवाहों द्वारा सिद्ध न किया जाए।”

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बैंक की ओर से अधिवक्ता श्री पंकज श्रीवास्तव ने जवाब देते हुए कहा कि हाईकोर्ट के निर्देशों का पालन किया गया है। उन्होंने तर्क दिया कि विभागीय कार्रवाई में न्यायिक समीक्षा की सीमाएं होती हैं और वहां “संधारणीय संभावनाओं” (preponderance of probability) का मानक अपनाया जाता है, न कि आपराधिक मामलों में लागू “संदेह से परे” का। जब तक कुछ साक्ष्य मौजूद हैं, कोर्ट को उनका पुनर्मूल्यांकन नहीं करना चाहिए।

कोर्ट का विश्लेषण और फैसला

न्यायमूर्ति शमशेरी ने रिकॉर्ड का अवलोकन करने के बाद पाया कि भले ही प्रक्रिया का पालन किया गया हो, लेकिन सजा का मूल आधार दोषपूर्ण था।

कोर्ट ने पाया कि तीनों आरोपों पर निष्कर्ष पुलिस के समक्ष याचिकाकर्ता के इक़बालिया बयान पर आधारित थे। प्रथम आरोप (गोपनीयता उल्लंघन) पर कहा गया:

“यह केवल पुलिस जांच में याचिकाकर्ता के कथन पर आधारित है।”

दूसरे आरोप (धोखाधड़ी) में केवल एक गवाह (PW-1) ने यह कहा कि याचिकाकर्ता ने पुलिस के समक्ष दोष स्वीकार किया था।

कोर्ट ने स्पष्ट किया:

“पुलिस के समक्ष दिया गया बयान विभागीय कार्रवाई में सजा देने का एकमात्र आधार नहीं बन सकता। जांच में स्वतंत्र साक्ष्यों पर विचार किया जाना चाहिए, लेकिन वर्तमान मामले में ऐसा प्रतीत होता है कि केवल पुलिस जांच के बयान पर ही कार्रवाई की गई।”

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कोर्ट ने United Bank of India बनाम बिस्वनाथ भट्टाचार्य, [(2022) 13 SCC 329] का हवाला देते हुए दोहराया कि यदि सजा केवल इक़बालिया बयान पर आधारित हो तो वह हस्तक्षेप योग्य है।

न्यायालय ने कहा:

“याचिकाकर्ता द्वारा धोखाधड़ी में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होने का कोई साक्ष्य रिकॉर्ड पर नहीं है। यह पूरी तरह से ‘नो एविडेंस’ का मामला है।”

अंततः कोर्ट ने यह फैसला दिया:

“संधारणीय संभावनाओं की कसौटी पर भी यह आदेश विफल है, क्योंकि यह केवल पुलिस के समक्ष याचिकाकर्ता के कथित इक़बालिया बयान पर आधारित था, जिसके समर्थन में कोई स्वतंत्र साक्ष्य नहीं है।”

नतीजतन, कोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए 20 जून 2018 की बर्खास्तगी और अपीलीय आदेश को रद्द कर दिया। बैंक को यह स्वतंत्रता दी गई कि वह चाहे तो फिर से कार्रवाई करे या लंबित आपराधिक मुकदमे के फैसले की प्रतीक्षा करे। राहत के रूप में, कोर्ट ने “नो वर्क नो पे” सिद्धांत का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता को सेवा की निरंतरता के साथ बकाया वेतन का 1/4 हिस्सा देने का आदेश दिया।

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