इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1984 के ट्रेन लूट कांड में दो आरोपियों को बरी किया; पुलिस की कहानी और मेडिकल सबूतों के अभाव पर उठाए सवाल

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1984 के एक ट्रेन लूट मामले में दोषी ठहराए गए दो व्यक्तियों की सजा को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के तरीके और लूटे गए सामान की बरामदगी न होने पर गंभीर संदेह व्यक्त किया है।

न्यायमूर्ति मदन पाल सिंह की पीठ ने लाखन सिंह और रमेश द्वारा दायर आपराधिक अपील को स्वीकार करते हुए विशेष न्यायाधीश (डी.ए.ए.), आगरा के 21 फरवरी 1987 के फैसले को पलट दिया। निचली अदालत ने दोनों अपीलकर्ताओं को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 392 के तहत दोषी ठहराते हुए तीन साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी।

मामले की पृष्ठभूमि

अभियोजन पक्ष के अनुसार, घटना 12 फरवरी 1984 की है। शिकायतकर्ता जितेंद्र कुमार आगरा कैंट से टूंडला जाने के लिए ट्रेन में सवार हुए थे। आरोप था कि सुबह लगभग 8:15 बजे, जब ट्रेन आगरा कैंट और राजा की मंडी रेलवे स्टेशन के बीच चल रही थी, तभी दोनों आरोपियों ने चाकू की नोक पर उनकी एचएमटी घड़ी और 125 रुपये नकद लूट लिए।

शिकायतकर्ता ने यह भी आरोप लगाया कि एक आरोपी ने उनकी नाक पर मारा, जिससे खून बहने लगा, और इसके बाद दोनों आरोपी चलती ट्रेन से कूद गए। राजा की मंडी रेलवे स्टेशन पहुंचने पर शिकायतकर्ता ने गार्ड और जीआरपी कांस्टेबलों को घटना की जानकारी दी।

पुलिस का दावा था कि वे शिकायतकर्ता के साथ उस स्थान पर गए जहां आरोपी कूदे थे। वहां ‘स्वीपर कॉलोनी’ के पास शिकायतकर्ता ने आरोपियों की पहचान की और उन्हें सुबह 9:00 बजे गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने दोनों आरोपियों के पास से एक-एक चाकू बरामद करने का दावा किया, लेकिन लूटी गई घड़ी और नकदी नहीं मिली।

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पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ताओं के वकील श्री आलोक कुमार सिंह ने अभियोजन पक्ष की कहानी में कई खामियां उजागर कीं:

  • असंभव समय-सीमा: बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि घटना सुबह 8:00 बजे हुई और गिरफ्तारी 9:00 बजे दिखाई गई। घटनास्थल और गिरफ्तारी के स्थान के बीच की दूरी 3 किलोमीटर से अधिक थी। वकील ने दलील दी कि, “पुलिस के लिए इतनी कम अवधि (एक घंटे) में पैदल चलकर आरोपियों को गिरफ्तार करना अत्यधिक असंभव और व्यावहारिक रूप से नामुमकिन है।”
  • चयनात्मक बरामदगी: बचाव पक्ष ने इस बात पर जोर दिया कि पुलिस ने चाकू तो बरामद कर लिए, लेकिन लूटी गई नकदी और घड़ी गायब थी। तर्क दिया गया कि यदि आरोपियों के पास लूट का सामान ठिकाने लगाने का समय था, तो वे चाकू भी फेंक सकते थे।
  • मेडिकल सबूतों का अभाव: नाक में चोट और खून बहने के आरोपों के बावजूद, शिकायतकर्ता का कोई मेडिकल परीक्षण नहीं कराया गया था।

वहीं, राज्य की ओर से पेश विद्वान ए.जी.ए. ने अपील का विरोध करते हुए तर्क दिया कि शिकायतकर्ता द्वारा पहचान विश्वसनीय है और आरोपियों ने ट्रेन से कूदने के बाद लूटा हुआ सामान कहीं फेंक दिया होगा।

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कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां

हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों का बारीकी से विश्लेषण किया और अभियोजन की कहानी में महत्वपूर्ण विरोधाभास पाए।

1. गिरफ्तारी का तरीका संदिग्ध कोर्ट ने पाया कि राजा की मंडी स्टेशन और गिरफ्तारी स्थल के बीच की दूरी लगभग 4-5 किलोमीटर थी। यह देखते हुए कि पुलिस और शिकायतकर्ता पैदल थे, कोर्ट ने कहा:

“यह अत्यधिक असंभव है कि पुलिस घटना के 45 मिनट के भीतर आरोपी-अपीलकर्ताओं को गिरफ्तार कर सकती थी।”

कोर्ट ने यह भी पाया कि साइट प्लान (नक्शा) में गिरफ्तारी का स्थान रेलवे लाइन के पास एक खुले स्थान पर दिखाया गया है, जबकि अभियोजन का दावा था कि आरोपी कॉलोनी की ओर भागे थे।

2. लूटे गए सामान की बरामदगी न होना कोर्ट ने निचली अदालत के उस निष्कर्ष को खारिज कर दिया कि आरोपियों ने लूट का सामान फेंक दिया था लेकिन हथियार पास रखे थे। न्यायमूर्ति सिंह ने कहा:

“यदि आरोपी-अपीलकर्ताओं के पास लूटी गई वस्तुओं को ठिकाने लगाने का पर्याप्त अवसर था, तो उनके पास उन चाकुओं को भी ठिकाने लगाने का समान अवसर होता जो कथित रूप से उनके कब्जे से बरामद किए गए थे। इसलिए, लूटी गई वस्तुओं की बरामदगी के बिना केवल चाकुओं की बरामदगी, कोर्ट के मन में गंभीर संदेह पैदा करती है।”

3. चोट की पुष्टि नहीं मारपीट के आरोपों पर कोर्ट ने मेडिकल रिपोर्ट की अनुपस्थिति को रेखांकित किया:

“हालाँकि, शिकायतकर्ता का कोई मेडिकल परीक्षण नहीं किया गया था, और कोई मेडिकल रिपोर्ट रिकॉर्ड पर उपलब्ध नहीं है।”

कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि पुलिस के प्रभाव में आकर शिकायतकर्ता द्वारा पहचान किए जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

निर्णय

हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष अपना मामला उचित संदेह से परे (beyond reasonable doubt) साबित करने में विफल रहा है। कोर्ट ने कहा:

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“केवल डकैती का सबूत होना यह मानने के लिए पर्याप्त नहीं है कि जिन आरोपियों पर मुकदमा चलाया गया, वे ही अपराध करने वाले थे।”

परिणामस्वरूप, कोर्ट ने 21 फरवरी 1987 के फैसले और आदेश को रद्द कर दिया। अपीलकर्ता लाखन सिंह और रमेश को धारा 392 आईपीसी के आरोपों से बरी करते हुए ‘संदेह का लाभ’ (benefit of doubt) दिया गया। उनके जमानती बांड रद्द कर दिए गए और sureties (जमानतदारों) को बरी कर दिया गया।

केस डिटेल्स:

  • केस का शीर्षक: लाखन सिंह और अन्य बनाम राज्य
  • केस नंबर: क्रिमिनल अपील संख्या 652 वर्ष 1987
  • कोरम: न्यायमूर्ति मदन पाल सिंह
  • अपीलकर्ताओं के वकील: बृज गोपाल, देवाशीष त्रिपाठी, के.एस. चाहर, वी.एस. चौधरी, आलोक कुमार सिंह
  • प्रतिवादी (राज्य) के वकील: ए.जी.ए.
  • साइटेशन: 2025:AHC:226716

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