इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा है कि यदि किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी के कारणों की जानकारी नहीं दी जाती, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 22(1) में अनिवार्य किया गया है, तो यह ज़मानत देने का वैध आधार होगा। अदालत ने यह फैसला उस समय सुनाया जब उसने रामपुर के मजिस्ट्रेट द्वारा 25 दिसंबर को पारित रिमांड आदेश को संविधानिक आवश्यकताओं के उल्लंघन के आधार पर रद्द कर दिया।
यह मामला मनजीत सिंह से जुड़ा था, जिन्हें 15 फरवरी 2024 को भारतीय दंड संहिता की धोखाधड़ी, धमकी और शांति भंग से संबंधित धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तारी के बाद उन्हें रिमांड मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया और एक सामान्यीकृत आदेश के तहत न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।
न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की खंडपीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के कारणों की जानकारी देना न केवल एक मौलिक अधिकार है, बल्कि यह कानूनी प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने वाला एक आवश्यक प्रक्रिया-सुरक्षा उपाय भी है।

खंडपीठ ने कहा, “गिरफ्तारी के आधारों की जानकारी प्रभावी ढंग से और उस भाषा में दी जानी चाहिए जिसे गिरफ्तार व्यक्ति समझ सके, ताकि वह इन आधारों को पूरी तरह समझ सके।”
सुनवाई के दौरान यह तथ्य सामने आया कि सिंह को गिरफ्तारी के समय कारणों की कोई जानकारी नहीं दी गई थी, न ही गिरफ्तारी ज्ञापन या रिमांड आदेश में इसे स्पष्ट किया गया था। अदालत ने पाया कि यह चूक अनुच्छेद 22(1) का उल्लंघन है और इसके कारण न्यायिक हिरासत का आदेश वैध नहीं रह जाता।
अतः अदालत ने सिंह की तत्काल रिहाई का आदेश दिया और स्पष्ट किया कि इस प्रकार की प्रक्रिया में की गई चूक स्वयं में ज़मानत का आधार बन सकती है, भले ही सामान्य परिस्थितियों में ज़मानत पर कानूनी प्रतिबंध लागू हों।