इलाहाबाद हाईकोर्ट ने POCSO Act के तहत दर्ज आपराधिक मामले को रद्द करते हुए कहा है कि केवल इसलिए एक सुखी वैवाहिक जीवन जी रहे दंपति को ट्रायल का सामना करने पर मजबूर करना कि पत्नी अदालत में अपने पति के पक्ष में ‘शत्रुतापूर्ण गवाही’ दे—यह “किस्मत की विडंबना” और “उत्पीड़न का औज़ार” बन जाएगा।
न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेन्द्र ने अश्विनी आनंद की याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि जब न्याय के हित तत्काल हस्तक्षेप की मांग करते हों, तब अदालत “मूक दर्शक” या “गतिहीन पर्यवेक्षक” नहीं रह सकती।
यह आदेश 21 नवंबर को पारित किया गया।
अदालत ने कहा कि पीड़िता स्वयं FIR रद्द करने की मांग कर चुकी है, और पति के साथ शांतिपूर्वक विवाहित जीवन जी रही है, ऐसे में मुकदमा जारी रखना न्याय की भावना के विरुद्ध होगा।
अदालत ने remarked किया:
“न्यायाधीश का पवित्र दायित्व हर आँख का आँसू पोंछना है, और कानून का उद्देश्य समाज के लिए समस्याएँ पैदा करना नहीं, बल्कि समाधान ढूंढना है।”
अदालत ने स्पष्ट कहा कि इस परिस्थिति में महिला को महीनों-सालों तक अदालत के चक्कर लगाने के लिए मजबूर करना, ताकि वह अपने ही पति को बरी करवा सके, पूर्णतः अनुचित है।
“ऐसे मामलों में किसी महिला को अपने ही पति के खिलाफ लगे आरोपों को नकारने के लिए कोर्ट आते रहने पर मजबूर करना उत्पीड़न का साधन बन जाएगा,” आदेश में कहा गया।
FIR पीड़िता के पिता ने दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप था कि उसकी बेटी का अपहरण हुआ। लेकिन जाँच के दौरान युवती ने बार-बार यह कहा कि वह अपनी मर्ज़ी से घर से गई थी और बाद में याचिकाकर्ता से विवाह कर लिया।
उसने पुलिस को दिए बयान में यह भी कहा था कि उस समय आरोपी के साथ उसका कोई शारीरिक संबंध नहीं था। इसके बावजूद पुलिस ने चार्जशीट दाखिल कर दी।
हाईकोर्ट ने पाया कि ऐसे मामले में कार्यवाही जारी रखना न्यायसंगत नहीं होगा, और पूरी आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी।




