इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने गैर-जमानती वारंट (एनबीडब्ल्यू) और दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 82 के तहत जारी उद्घोषणा आदेश को निरस्त करते हुए स्पष्ट किया कि जब पक्षकारों के बीच हुए समझौते (कम्प्रोमाइज डीड) के सत्यापन का निर्देश लंबित हो, तब ट्रायल कोर्ट जबरन कार्रवाई (coercive measures) नहीं कर सकता। न्यायमूर्ति श्री प्रकाश सिंह ने कहा कि ट्रायल कोर्ट की कार्रवाई पूर्व में दिए गए हाईकोर्ट के आदेश के विपरीत थी और मामले को अनुपालन के लिए पुनः भेज दिया।
मामला पृष्ठभूमि
यह मामला 15 अप्रैल 2003 को दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) से संबंधित है, जिसे केस क्राइम संख्या 427/2003 के रूप में कोतवाली थाना, जनपद लखीमपुर खीरी में पंजीकृत किया गया था। इसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) की धाराएं 419, 420, 467, 468, 504, 506 और 406 लगाई गई थीं। विवेचना के बाद अभियुक्त अमित अग्रवाल के विरुद्ध आरोपपत्र दाखिल हुआ।
बाद में, अभियुक्त और वादी (विपक्षी पक्ष संख्या-3) के बीच विवाद आपसी सहमति से सुलझा और एक समझौता पत्र तैयार किया गया। इस आधार पर, अभियुक्त ने वर्ष 2014 में धारा 482 Cr.P.C. के तहत हाईकोर्ट में अर्जी दायर की। 12 जनवरी 2015 को हाईकोर्ट ने अर्जी का निस्तारण करते हुए मामले को ट्रायल कोर्ट को भेजा और निर्देश दिया कि समझौते का सत्यापन किया जाए, साथ ही तब तक की कार्यवाही स्थगित रहे।

इसके बावजूद, ट्रायल कोर्ट ने समझौता सत्यापित नहीं किया। इसके विपरीत, 22 अगस्त 2024 को अभियुक्त के खिलाफ एनबीडब्ल्यू जारी कर दिया, फिर 22 अक्टूबर 2024 को एक और आदेश पारित हुआ और अंततः 6 जून 2025 को धारा 82 Cr.P.C. के तहत उद्घोषणा जारी कर दी गई। इन तीनों आदेशों को अभियुक्त ने वर्तमान अर्जी में चुनौती दी।
पक्षकारों की दलीलें
अभियुक्त के अधिवक्ता श्री शैलेन्द्र श्रीवास्तव ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने 12 जनवरी 2015 के हाईकोर्ट के निर्देश का पालन किए बिना गलत तरीके से आदेश पारित किए। उन्होंने कहा कि 4 फरवरी 2015 को समझौता पत्र दाखिल होने के बाद, जब तक इसका सत्यापन नहीं हो जाता और स्थगन आदेश समाप्त नहीं होता, तब तक ट्रायल कोर्ट को कोई कार्रवाई नहीं करनी चाहिए थी। नौ साल बाद एनबीडब्ल्यू जारी करना और लंबित सत्यापन की अनदेखी करना अवैध है।
राज्य सरकार के अपर सरकारी अधिवक्ता (एजीए) ने अर्जी का विरोध किया, लेकिन जैसा कि निर्णय में दर्ज है, वह इस तथ्य से इनकार नहीं कर सके कि 12.01.2015 के आदेश के अनुसार अभियुक्त को ट्रायल कोर्ट में समझौता पत्र दाखिल करने की छूट दी गई थी और सत्यापन का निर्देश दिया गया था।
कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने और अभिलेख देखने के बाद न्यायमूर्ति श्री प्रकाश सिंह ने अभियुक्त की दलील को सही पाया। कोर्ट ने कहा,
“निस्संदेह, समझौता पत्र ट्रायल कोर्ट के समक्ष है और इस कोर्ट का निर्देश है कि इसका सत्यापन किया जाए, जो अब तक नहीं हुआ है।”
निर्णय में दर्ज है कि ट्रायल कोर्ट ने 22 मार्च 2010 के समझौते पर विचार करने के बजाय सीधे एनबीडब्ल्यू जारी कर दिया, वह भी लंबी अवधि के बाद। यह प्रक्रिया उचित नहीं थी, खासकर जब समझौता सत्यापन का आदेश लंबित था।
अदालत ने अर्जी को स्वीकार करते हुए कहा,
“परिणामस्वरूप, 22.08.2024, 22.10.2024 और 06.06.2025 के आदेश… निरस्त किए जाते हैं।”
मामले को ट्रायल कोर्ट को यह निर्देश देते हुए वापस भेजा गया कि वह 12.01.2015 के हाईकोर्ट आदेश का अनुपालन करे। साथ ही, दोनों पक्षों को कार्यवाही में सहयोग करने का निर्देश दिया गया।