इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ पीठ) ने उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 के तहत दर्ज एक एफआईआर को रद्द कर दिया है। न्यायालय ने पाया कि एफआईआर में लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया झूठे थे। न्यायमूर्ति अब्दुल मोईन और न्यायमूर्ति बबीता रानी की खंडपीठ ने राज्य के अधिकारियों को सख्त चेतावनी जारी करते हुए कहा कि चूंकि यह एक विशेष अधिनियम है और इसके प्रावधान बेहद कड़े हैं, इसलिए अधिकारियों को भविष्य में ‘मिमोग्राफिक शैली’ (यानी मशीनी तरीके से या बिना विवेक का इस्तेमाल किए) में एफआईआर दर्ज करने से बचना चाहिए।
याचिका में प्रतापगढ़ जिले में एक सब-इंस्पेक्टर द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर को चुनौती दी गई थी, जिसमें याचिकाकर्ता साबिर अली पर अवैध धर्मांतरण का आरोप लगाया गया था। हाईकोर्ट ने गौर किया कि कथित पीड़ितों ने स्वयं हलफनामा दायर कर किसी भी तरह के धर्मांतरण या जबरदस्ती से इनकार किया था। न्यायालय के कड़े रुख और प्रमुख सचिव (गृह) को तलब करने के आदेश के बाद, राज्य सरकार ने माना कि एफआईआर रद्द की जा सकती है। इसके परिणामस्वरूप, कोर्ट ने एफआईआर रद्द कर दी और भविष्य के लिए अधिकारियों को सतर्क रहने की नसीहत दी।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 26 अप्रैल, 2025 को प्रतापगढ़ जिले के जेठवारा पुलिस थाने में दर्ज मुकदमा अपराध संख्या 0081/2025 से संबंधित है। एफआईआर में उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 की धारा 5(1), 8(2) और 8(6) के तहत आरोप लगाए गए थे।
मामले में शिकायतकर्ता श्री हेमंत यादव थे, जो एक सब-इंस्पेक्टर (प्रतिवादी संख्या 4) हैं। एफआईआर में आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्ता साबिर अली ने निजी प्रतिवादियों का दूसरे धर्म में धर्मांतरण कराकर अधिनियम का उल्लंघन किया है। याचिकाकर्ता ने इन आरोपों को निराधार बताते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता का पक्ष: याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए अधिवक्ता श्री अभिषेक सिंह और श्री अखंड कुमार पांडेय ने तर्क दिया कि सब-इंस्पेक्टर द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर “पूरी तरह से झूठी” (Patently False) है। उन्होंने कहा कि धार्मिक धर्मांतरण की कोई घटना हुई ही नहीं है और याचिकाकर्ता को गलत तरीके से फंसाया गया है।
निजी प्रतिवादियों (कथित पीड़ितों) का पक्ष: कथित पीड़ितों (प्रतिवादी संख्या 5 से 8) की ओर से अधिवक्ता श्री अनुज कुमार गुप्ता और श्री आलोक पांडेय ने पक्ष रखा। उनकी ओर से एक संक्षिप्त जवाबी हलफनामा दायर किया गया, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि एफआईआर के आरोप “पूरी तरह से झूठे, मनगढ़ंत, निराधार और बिना किसी तथ्य के” हैं।
हलफनामे में स्पष्ट किया गया:
“याचिकाकर्ता या किसी अन्य कथित पीड़ित के साथ धार्मिक धर्मांतरण, प्रलोभन, लालच, दबाव या जबरदस्ती की कोई घटना कभी नहीं हुई।”
यह भी कहा गया कि वे सभी अपनी मर्जी से, स्वतंत्र रूप से और बिना किसी दबाव के अपने धर्म, सामाजिक रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन कर रहे हैं। उन्होंने कभी कोई अन्य धर्म नहीं अपनाया है।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्देश
कोर्ट ने अपने 20 नवंबर, 2025 के विस्तृत आदेश का उल्लेख किया, जिसमें एफआईआर दर्ज करने पर कड़ी नाराजगी जताई गई थी।
उस आदेश में, खंडपीठ ने कहा था कि कथित पीड़ितों के बयानों को देखते हुए राज्य के एक अधिकारी द्वारा दर्ज की गई एफआईआर प्रथम दृष्टया झूठी प्रतीत होती है। कोर्ट ने चिंता जताई कि ऐसे मामलों में पीड़ित व्यक्तियों को अपनी शिकायतों के निवारण के लिए हाईकोर्ट आने पर मजबूर होना पड़ता है, जिससे उनका पैसा और समय बर्बाद होता है, साथ ही कोर्ट का कीमती न्यायिक समय भी नष्ट होता है, जबकि राज्य सरकार ऐसे मामलों को शुरुआत में ही रोक सकती थी।
इस मामले की गंभीरता को देखते हुए, कोर्ट ने पहले प्रमुख सचिव (गृह), लखनऊ को व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया था। उनसे पूछा गया था कि जब आरोप प्रथम दृष्टया झूठे हैं, तो राज्य के अधिकारी ने एफआईआर क्यों दर्ज की और अधिकारियों पर ‘अनुकरणीय लागत’ (Exemplary Cost) क्यों न लगाई जाए।
2 दिसंबर, 2025 को हुई सुनवाई के दौरान, सरकारी अधिवक्ता डॉ. वी.के. सिंह ने कोर्ट को बताया कि एफआईआर को रद्द किया जा सकता है, जिसके बाद प्रमुख सचिव के हलफनामे पर विचार करने की आवश्यकता नहीं रह गई।
याचिका स्वीकार करते हुए कोर्ट ने धर्मांतरण कानून के प्रयोग पर एक महत्वपूर्ण निर्देश जारी किया:
“हालांकि, इस न्यायालय के 20.11.2025 के विस्तृत आदेश को ध्यान में रखते हुए, राज्य के अधिकारियों को एक चेतावनी (Note of Caution) जारी की जाती है कि विशेष अधिनियम और इसके कड़े प्रावधानों को देखते हुए, अधिकारियों को भविष्य में अधिनियम, 2021 के प्रावधानों के तहत ‘मिमोग्राफिक शैली’ (Mimeographic style) में एफआईआर दर्ज करते समय अधिक सतर्क रहना चाहिए।”
निर्णय
बार में बनी सहमति और सरकारी अधिवक्ता के बयान को देखते हुए, हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार कर ली।
न्यायालय ने आदेश दिया:
“दिनांक 26.04.2025 की विवादित एफआईआर… को रद्द किया जाता है।”
कोर्ट ने पहले ही यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि निजी प्रतिवादियों को अधिकारियों द्वारा किसी भी तरह से परेशान न किया जाए।
केस विवरण
- केस टाइटल: साबिर अली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा प्रमुख सचिव गृह, लखनऊ व अन्य
- केस नंबर: क्रिमिनल मिस रिट पिटीशन नंबर 11000 ऑफ 2025
- कोरम: न्यायमूर्ति अब्दुल मोईन और न्यायमूर्ति बबीता रानी
- याचिकाकर्ता के अधिवक्ता: श्री अभिषेक सिंह, श्री अखंड कुमार पांडेय
- प्रतिवादियों के अधिवक्ता: डॉ. वी.के. सिंह (सरकारी अधिवक्ता), श्री अनुराग वर्मा (एजीए), श्री अनुज कुमार गुप्ता, श्री आलोक पांडेय
- साइटेशन: 2025:AHC-LKO:79698-DB

