इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि बुजुर्ग माता-पिता के साथ उपेक्षा, क्रूरता या त्याग का व्यवहार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन की गरिमा के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की खंडपीठ ने यह टिप्पणी उस समय की जब उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया कि वह एक 75 वर्षीय पिता राम दुलार गुप्ता को ₹21,17,758 का मुआवज़ा जारी करे, जिसे उनके पुत्रों ने विवादित कर रखा था।
अदालत ने याचिका का निपटारा करते हुए यह निर्देश दिया, हालांकि याचिकाकर्ता के पुत्रों ने अपने आचरण के लिए बिना शर्त माफ़ी मांगी थी। फिर भी पीठ ने यह स्पष्ट किया कि यदि भविष्य में पुत्रों ने किसी भी प्रकार की परेशानी उत्पन्न की, तो कोर्ट कठोर आदेश पारित करने से पीछे नहीं हटेगा।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला हाईकोर्ट के समक्ष एक रिट याचिका के ज़रिए पहुंचा था, जिसमें राम दुलार गुप्ता ने अपनी भूमि और संरचना के अधिग्रहण पर मिलने वाले मुआवज़े की मांग की थी। 16 जनवरी 2025 को जारी भुगतान नोटिस में मुआवज़े की राशि ₹21,17,758 निर्धारित की गई थी।

मुआवज़े की राशि अटक गई क्योंकि याचिकाकर्ता के दो पुत्र — विजय कुमार गुप्ता और संजय गुप्ता — ने एक आवेदन दाखिल कर दावा किया कि उन्होंने अधिग्रहीत भूमि पर बने ढांचे के निर्माण में योगदान दिया था और इसीलिए उन्हें भी मुआवज़े में हिस्सा मिलना चाहिए।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता, जो 75 वर्ष से अधिक आयु के अशक्त वृद्ध नागरिक हैं, स्वयं कोर्ट के समक्ष पेश हुए और अपनी पीड़ा सुनाई। उनके वकील ने कहा कि पूरा ढांचा याचिकाकर्ता ने अपनी निजी पूंजी से बनवाया था और उनके पुत्रों ने, जो अब सूरत और मुंबई में बसे हुए हैं, “एक पैसा तक नहीं दिया”।
याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि मुआवज़ा तय होने के बाद उनके पुत्रों का व्यवहार बिगड़ गया। उन्होंने कोर्ट को बताया कि “पुत्रों ने न केवल उनसे झगड़ा किया, बल्कि उन पर अत्याचार भी किए”, जिसके चलते उन्हें प्राथमिकी दर्ज करानी पड़ी। सुनवाई के दौरान उन्होंने “गहरे दुख और वेदना” के साथ बताया कि पुत्रों ने उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया, यहां तक कि उन्हें “काट भी लिया”, और कोर्ट के समक्ष अपने घाव भी दिखाए।
फिर भी, याचिकाकर्ता ने “माफ़ करने वाले पिता के हृदय” का परिचय देते हुए स्वेच्छा से मुआवज़े की कुछ राशि पुत्रों को देने की इच्छा ज़ाहिर की।
पुत्रों के वकील ने शुरुआत में मुआवज़े पर उनके अधिकार की दलील दी, लेकिन सुनवाई के दौरान कहा कि उनके मुवक्किल “अपने पिता से माफ़ी मांगने को तैयार हैं” और सौहार्दपूर्ण समझौता करना चाहते हैं। इसके बाद उन्होंने बिना शर्त माफ़ी मांगी और यह भी आश्वासन दिया कि भविष्य में ऐसा व्यवहार नहीं दोहराया जाएगा और वे पिता द्वारा दी गई किसी भी राशि को सहर्ष स्वीकार करेंगे।
राज्य सरकार की ओर से अतिरिक्त मुख्य स्थायी अधिवक्ता ने मुआवज़े की कुल राशि की पुष्टि की और कहा कि सरकार को पूरी राशि याचिकाकर्ता को देने में कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि वे अधिग्रहीत संपत्ति के “निर्विवाद मालिक” हैं।
कोर्ट की टिप्पणियाँ और विश्लेषण
कोर्ट ने इस मामले की परिस्थितियों पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा कि “मुआवज़े के वितरण में सबसे बड़ी बाधा पिता और पुत्रों के बीच कड़वा और दुर्भाग्यपूर्ण विवाद है।”
कोर्ट ने बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल को लेकर समाज और बच्चों की ज़िम्मेदारी पर ज़ोर देते हुए कहा,
“जब कोई सभ्य समाज अपने बुज़ुर्गों की मौन पीड़ा से मुंह मोड़ लेता है, तो वह सबसे बड़ी सामाजिक विफलता और नैतिक दिवालियापन का संकेत है।”
कोर्ट ने यह भी जोड़ा,
“जीवन की सर्द ऋतु में यदि किसी माता-पिता को उनके बच्चों से क्रूरता, उपेक्षा या परित्याग मिलता है, तो यह न केवल नैतिक शर्म है बल्कि कानूनी अपराध भी है।”
कोर्ट ने स्पष्ट कहा,
“बुजुर्ग माता-पिता की गरिमा, कल्याण और देखभाल करना न केवल नैतिक दायित्व है, बल्कि वैधानिक कर्तव्य भी है।”
फैसले में कहा गया,
“कोर्ट दृढ़ता से कहती है कि बुजुर्ग माता-पिता की उपेक्षा, क्रूरता या त्याग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के गरिमा के अधिकार का उल्लंघन है। एक ऐसा घर जो वृद्धजन के लिए शत्रु बन जाए, वह अब आश्रय नहीं, अन्याय का स्थल बन जाता है।”
कोर्ट ने Ashwani Kumar v. Union of India (2016) के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के तहत बुजुर्गों के अधिकारों को अनुच्छेद 21 के दायरे में माना गया था, भले ही वे संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित न हों।
अंतिम आदेश
पुत्रों द्वारा दी गई माफ़ी और याचिकाकर्ता के क्षमाशील रवैये को देखते हुए कोर्ट ने निर्देश दिया कि ₹21,17,758 की पूरी राशि राम दुलार गुप्ता को जल्द से जल्द जारी की जाए।
कोर्ट ने याचिका का निपटारा करते हुए यह स्पष्ट किया कि आदेश पुत्रों के भविष्य के आचरण पर निर्भर रहेगा। कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील को यह स्वतंत्रता दी कि
“यदि पुत्र भविष्य में किसी प्रकार की परेशानी या हस्तक्षेप करते हैं, तो कोर्ट में रिकॉल आवेदन दाखिल किया जा सकता है और कोर्ट उस स्थिति में उचित व कड़ा आदेश पारित करने से नहीं हिचकेगा।”