इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में 1982 में फूल सिंह की हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए मुरारी को बरी कर दिया है। मुरारी को पहले बदायूं के सत्र न्यायाधीश द्वारा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया गया था। इस मामले में दायर की गई आपराधिक अपील संख्या 1093/1983 पर न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा और न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की खंडपीठ ने सुनवाई की। सत्र न्यायालय द्वारा 3 मई 1983 को दिए गए आजीवन कारावास के आदेश के खिलाफ यह अपील दायर की गई थी।
मामले के तथ्य:
6 जुलाई 1982 को, फूल सिंह को मुरारी लाल, जो शंकर का पुत्र है, ने दीमार के खेत में गोली मार दी थी। घटना शाम 4:00 बजे के आसपास हुई, जब फूल सिंह अपने गांव से वज़ीरगंज की ओर जा रहा था। मृतक के भाई, श्योधन सिंह द्वारा प्राथमिकी दर्ज की गई, जिसमें दावा किया गया कि हत्या की जानकारी राम औतार सिंह और धनपाल सिंह ने उन्हें दी थी।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, मुरारी लाल, जो सेना में सेवा कर रहा था, मृतक के प्रति पूर्व के विवादों के कारण दुश्मनी रखता था। घटना के दिन, मुरारी ने अपने लाइसेंसी बंदूक से फूल सिंह पर कई गोलियां चलाईं। पुलिस जांच के दौरान घटनास्थल से पांच खाली कारतूस बरामद हुए थे।
कानूनी मुद्दे और तर्क:
मुरारी का बचाव वरिष्ठ अधिवक्ता दया शंकर मिश्रा, कृष्ण कपूर और अभिषेक मिश्रा ने किया। उन्होंने अपील के दौरान कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए। उन्होंने तर्क दिया कि मुख्य गवाह, राम औतार सिंह (PW-2), वास्तव में अपराध स्थल पर उपस्थित नहीं थे, जो गवाही और स्थल योजना में पाई गई विसंगतियों से साबित होता है। उन्होंने यह भी कहा कि स्थल योजना में यह स्पष्ट नहीं था कि गोलियां कहाँ से चलाई गईं और कारतूस कहाँ पाए गए, जिससे साक्ष्य की प्रामाणिकता पर संदेह उत्पन्न होता है।
बचाव पक्ष ने यह भी जोर दिया कि मृतक के शरीर पर पाए गए अनजान चोट के निशान को अभियोजन पक्ष द्वारा सही तरीके से स्पष्ट नहीं किया गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, गोली का प्रवेश बिंदु दाहिनी भुजा के पीछे से था, जो इस दावे का खंडन करता है कि आरोपी और मृतक आमने-सामने थे। इसके अलावा, अधिकांश चोटों पर कालिख और टैटू के निशान नहीं पाए गए, जो अभियोजन की कहानी को और भी संदिग्ध बनाते हैं।
बचाव पक्ष ने यह भी रेखांकित किया कि जांच अधिकारियों ने उन खाली कारतूसों का मिलान करने में विफलता दिखाई जो अपराध में प्रयुक्त बंदूक से निकले थे। यह बंदूक सेना के मलकाना में रखी गई थी और इसे कभी भी फोरेंसिक जांच के लिए प्रस्तुत नहीं किया गया।
बचाव पक्ष ने पंचनामा तैयार करने में पाई गई असंगतियों को भी उजागर किया, जहाँ उप-निरीक्षक डी.सी. शर्मा की उपस्थिति झूठी दिखाई गई, जबकि उनके हस्ताक्षर केवल कुछ खाली स्थानों पर पाए गए, जो बाद में जोड़े गए प्रतीत होते हैं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ और निर्णय:
हाईकोर्ट ने सबूतों और तर्कों की बारीकी से समीक्षा करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि जांच अत्यधिक संदेहास्पद तरीके से की गई थी। न्यायालय ने देखा कि एकमात्र गवाह, राम औतार सिंह, संभवतः एक गढ़ा हुआ गवाह था, क्योंकि उनकी गवाही अन्य साक्ष्यों से मेल नहीं खाती थी और फोरेंसिक निष्कर्षों के साथ असंगत थी।
न्यायालय ने अभियोजन पक्ष की आलोचना की कि उसने महत्वपूर्ण साक्ष्य, जैसे कि बंदूक और कारतूसों की फोरेंसिक जांच प्रस्तुत करने में विफलता दिखाई। इसके अलावा, न्यायालय ने पाया कि हत्या के पीछे का कथित उद्देश्य कमजोर था और इसे साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं था।
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इन निष्कर्षों के मद्देनजर, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपील को मंजूरी देते हुए सत्र न्यायालय के निर्णय को रद्द कर दिया और मुरारी को धारा 302 आईपीसी के तहत सभी आरोपों से बरी कर दिया। न्यायालय ने आदेश दिया कि चूंकि अभियुक्त पहले से ही जमानत पर है, इसलिए उसे आत्मसमर्पण करने की आवश्यकता नहीं है और उसके जमानत बांड और जमानतदारों को मुक्त कर दिया गया।