अखिल भारतीय संत समिति ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है, ताकि विभिन्न राज्यों में बनाए गए धर्मांतरण विरोधी कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं में हस्तक्षेप की अनुमति दी जा सके।
एडवोकेट अतुलेश कुमार के माध्यम से दायर इस आवेदन में समिति ने स्वयं को इस मामले में पक्षकार बनाने और लिखित तर्क प्रस्तुत करने की अनुमति मांगी है। याचिका में उत्तराखंड स्वतंत्रता अधिनियम, 2018, उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्मांतरण निषेध अधिनियम, 2021, हिमाचल प्रदेश स्वतंत्रता अधिनियम, 2019 और मध्य प्रदेश स्वतंत्रता अधिनियम, 2021 जैसे कानूनों का समर्थन किया गया है।
समिति ने तर्क दिया है कि संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत “धर्म का प्रचार करने” का अधिकार किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का धर्म परिवर्तन कराने का अधिकार नहीं देता। याचिका में कहा गया है कि ये कानून केवल उन धर्मांतरणों को नियंत्रित करते हैं जो बल, धोखे, प्रलोभन, अनुचित प्रभाव या झूठे विवाह के माध्यम से किए जाते हैं, और ये स्वेच्छा से किए गए धर्मांतरण पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाते।
“विवादित अधिनियम केवल प्रक्रिया संबंधी सुरक्षा उपाय हैं, जिनका उद्देश्य धर्मांतरण की स्वेच्छा की जांच करना और बल या धोखे से किए गए धर्मांतरण को रोकना है। ये किसी भी वास्तविक और स्वैच्छिक धर्मांतरण पर पूर्व-प्रतिबंध नहीं लगाते और न ही किसी व्यक्ति को अपने धर्म की जानकारी सार्वजनिक करने के लिए बाध्य करते हैं,” याचिका में कहा गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर में इन विवादास्पद कानूनों को लेकर विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित याचिकाओं को अपने पास स्थानांतरित कर लिया था। ये याचिकाएं उन प्रावधानों को चुनौती देती हैं जो अंतर-धार्मिक विवाहों के संदर्भ में धर्म परिवर्तन को नियंत्रित करते हैं और जिनमें सख्त जमानत और अधिकतम सज़ा के प्रावधान हैं।
अदालत ने पहले कहा था कि ऐसे कई मामले विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित हैं — इलाहाबाद हाईकोर्ट में पांच, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में सात, गुजरात और झारखंड हाईकोर्ट में दो-दो, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट में तीन और कर्नाटक तथा उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक-एक मामला।
इसके अलावा, गुजरात और मध्य प्रदेश सरकारों ने भी अपने-अपने हाईकोर्ट के अंतरिम आदेशों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था, जिनमें उनके धर्मांतरण विरोधी कानूनों के कुछ प्रावधानों पर रोक लगाई गई थी।
वहीं, जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने इन कानूनों के खिलाफ याचिका दायर कर कहा है कि इनका उद्देश्य अंतर-धार्मिक विवाह करने वाले जोड़ों को परेशान करना और उन्हें झूठे आपराधिक मामलों में फंसाना है। मुस्लिम संगठन ने यह भी तर्क दिया है कि इन कानूनों के प्रावधान व्यक्ति को अपने धर्म का खुलासा करने के लिए मजबूर करते हैं, जिससे उनकी गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन होता है।
सुप्रीम कोर्ट इस वर्ष के अंत तक इन सभी याचिकाओं को एक साथ सुनकर यह तय करेगा कि राज्यों के धर्मांतरण विरोधी कानून संवैधानिक रूप से वैध हैं या नहीं।

