हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम सवाल का जवाब दिया कि किसी आपराधिक मामले में आरोपी को कब उन्मोचित (Discharge) किया जा सकता है।
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ बंबई उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को चुनौती देने वाली अपील पर विचार कर रही थी, जिसके द्वारा न्यायालय ने नीचे की अदालत द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया था, जिसके द्वारा प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा दायर आवेदन और 2 छुट्टी के लिए खारिज कर दिया गया था।
इस मामले में विवाद विर्दी बंगला, थोम्बरेवाड़ी, लोनावाला निवासी मनमोहन सिंह सुखदेव सिंह विर्दी की हत्या के आरोप में दर्ज एक प्राथमिकी से उत्पन्न हुआ है। उनका शव उनके बेडरूम में खून से लथपथ पड़ा मिला था।
अपीलकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि उच्च न्यायालय द्वारा पारित आक्षेपित आदेश का एक मात्र अवलोकन दर्शाता है कि जांच के दौरान पुलिस द्वारा दर्ज किए गए कुछ बयानों का हवाला देकर एक मिनी-ट्रायल किया गया है, जो आरोप का हिस्सा बन रहे थे। चादर। यह निर्वहन के लिए एक आवेदन पर विचार के समय न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर था।
पीठ ने कहा कि आरोपों पर सुनवाई के चरण में अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए सभी सबूतों पर विश्वास किया जाना चाहिए। अगर कोई अपराध नहीं बनता है तो ही आरोपी को छोड़ा जा सकता है। उत्पादित सामग्री की सत्यता, पर्याप्तता और स्वीकार्यता परीक्षण के चरण में ही की जा सकती है। आरोप के स्तर पर, न्यायालय को संतुष्ट होना होगा कि आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है। उस स्तर पर न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता तभी होती है जब यह मानने के लिए मजबूत कारण हों कि यदि मुकदमे को आगे बढ़ने की अनुमति दी जाती है, तो यह न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय ने आक्षेपित आदेश में पूरे साक्ष्य को अभियुक्तों और अन्य सहयोगियों के मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन, पॉलीग्राफ परीक्षण और ब्रेन इलेक्ट्रिकल ऑसिलेशन सिग्नेचर प्रोफाइलिंग (बीईओएस) परीक्षणों सहित मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन का उल्लेख किए बिना दो पैरा में अभिव्यक्त किया था। प्रतिवादी संख्या 1 और प्रतिवादी संख्या 1 और 2 को मुक्त करने का आदेश दिया।
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पीठ ने कहा कि हालांकि मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन परीक्षण रिपोर्ट केवल आरोपी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती है, लेकिन निश्चित रूप से यह एक महत्वपूर्ण सबूत है। इस सामग्री के रिकॉर्ड में होने के बावजूद, उच्च न्यायालय यह राय नहीं दे सकता था कि आरोप तय करने के लिए भी मामला नहीं बनता था, जिसके लिए केवल प्रथम दृष्टया मामला देखा जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय ने चार्जशीट के साथ जांच एजेंसी द्वारा एकत्र किए गए सबूतों का पूरी तरह से हवाला भी नहीं दिया है। बल्कि जांच के दौरान दर्ज किए गए कुछ व्यक्तियों के बयानों का एक चुनिंदा संदर्भ है। यह दर्शाता है कि दिमाग का पूरी तरह से उपयोग नहीं किया गया था। उच्च न्यायालय ने एक जघन्य अपराध की सुनवाई को रोकने के लिए अपने अधिकार क्षेत्र का इस तरह से प्रयोग किया था जो उसके पास निहित नहीं है।
उपरोक्त के मद्देनजर, खंडपीठ ने अपील की अनुमति दी।
केस का शीर्षक: कैप्टन मंजीत सिंह विर्दी (सेवानिवृत्त) बनाम हुसैन मोहम्मद शताफ व अन्य।
बेंच: जस्टिस अभय एस ओका और राजेश बिंदल
केस नंबर : क्रिमिनल अपील नंबर 1399 ऑफ 2023