विधि के शासन और संपत्ति के अधिकारों को बरकरार रखते हुए, इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ पीठ) ने एक महत्वपूर्ण फैसले में उत्तर प्रदेश सरकार पर 20 लाख रुपये का भारी हर्जाना लगाया है। यह मामला याचिकाकर्ता की संपत्ति के अवैध ध्वस्तीकरण और बिना सुनवाई का अवसर दिए राजस्व रिकॉर्ड में मनमाने ढंग से संशोधन से जुड़ा है। कोर्ट ने राजस्व अधिकारियों की कार्रवाई को “विधि के शासन की जानबूझकर अवहेलना” करार दिया और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि हर्जाने की राशि जिम्मेदार अधिकारियों से वसूल की जाए।
न्यायमूर्ति आलोक माथुर की एकल पीठ ने सावित्री सोनकर द्वारा दायर रिट याचिका को स्वीकार करते हुए उप-जिलाधिकारी (एसडीएम), रायबरेली द्वारा पारित 10 फरवरी, 2025 के आदेश को रद्द कर दिया। विवादित आदेश में याचिकाकर्ता की भूमि को यूपी राजस्व संहिता की धारा 38(5) के तहत एकतरफा रूप से ‘गांव सभा’ की भूमि घोषित कर दिया गया था, जिसके बाद संपत्ति पर बने निर्माण को ध्वस्त कर दिया गया। कोर्ट ने राज्य को दो सप्ताह के भीतर याचिकाकर्ता को खाली जमीन का कब्जा सौंपने का निर्देश दिया और जवाबदेही तय करने के लिए अपर मुख्य सचिव स्तर के अधिकारी से जांच कराने का आदेश दिया।
विवाद की पृष्ठभूमि
यह मामला रायबरेली जिले के देवानंदपुर गांव में स्थित गाटा संख्या 431 ख की भूमि से संबंधित है। याचिकाकर्ता और उनकी बहन ने 24 फरवरी, 2021 को मूल खातेदार संतदीन के बेटे रतन लाल से एक पंजीकृत बैनामा (Sale Deed) के माध्यम से भूमि का एक हिस्सा (3036 वर्ग मीटर) खरीदा था। इसके बाद राजस्व अभिलेखों में उनका नाम दर्ज (दाखिल-खारिज) हो गया था।
याचिकाकर्ता का मालिकाना हक 18 मार्च, 1975 के एक निर्णय और डिक्री पर आधारित था, जो यूपी जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम (U.P.Z.A. & L.R. Act) की धारा 229बी के तहत पारित किया गया था, जिसमें संतदीन को स्वामी घोषित किया गया था।
हालांकि, 10 फरवरी, 2025 को एसडीएम, रायबरेली ने नायब तहसीलदार की एक रिपोर्ट के आधार पर यूपी राजस्व संहिता की धारा 38(5) के तहत स्वत: संज्ञान (suo moto) लेते हुए कार्यवाही शुरू की। रिपोर्ट में दावा किया गया था कि 1975 की प्रविष्टि फर्जी थी। एसडीएम ने याचिकाकर्ता का नाम हटाने का आदेश दिया और जमीन को जीएसटी विभाग को आवंटित गांव सभा की संपत्ति के रूप में दर्ज कर दिया। इसके बाद, 24 मार्च, 2025 को अधिकारियों ने याचिकाकर्ता के निर्माण को ध्वस्त कर दिया।
पक्षकारों की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता श्री विवेक राज सिंह ने तर्क दिया कि कार्यवाही अवैध, मनमानी और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है। उन्होंने कहा:
- रिकॉर्डेड खातेदार होने के बावजूद याचिकाकर्ता को न तो कोई नोटिस जारी किया गया और न ही धारा 38 की कार्यवाही में पक्षकार बनाया गया।
- यूपी राजस्व संहिता की धारा 38 त्रुटियों को सुधारने की अनुमति देती है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से स्वामित्व (Title) के सवालों को तय करने से रोकती है, जो इस मामले में किया गया।
- अधिकारियों ने धारा 229बी के तहत पारित 1975 की अंतिम और बाध्यकारी डिक्री की अनदेखी की।
- यह ध्वस्तीकरण सुप्रीम कोर्ट के In Re: Directions in the matter of demolition of structures (2024) के दिशानिर्देशों का उल्लंघन है, क्योंकि कोई कारण बताओ नोटिस नहीं दिया गया था।
- भले ही जमीन ‘गांव सभा’ की हो, बेदखली केवल यूपी राजस्व संहिता की धारा 67 के तहत की जा सकती थी, जिसमें नोटिस और सुनवाई अनिवार्य है।
राज्य की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री सतीश कुमार ने याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि 1975 के आदेश में खामियां थीं और इससे कोई वैध अधिकार प्राप्त नहीं होता। उन्होंने यह भी कहा कि एक अन्य प्रभावित खातेदार द्वारा दायर निगरानी याचिका (Revision) कमिश्नर द्वारा पहले ही खारिज की जा चुकी है।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
कोर्ट ने राजस्व अधिकारियों के आचरण पर कड़ी नाराजगी व्यक्त की। न्यायमूर्ति माथुर ने कहा कि तथ्य “बहुत ही खेदजनक स्थिति” (very sorry state of affairs) और “संवेदनशीलता की कमी” को दर्शाते हैं।
1. प्राकृतिक न्याय और वैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन कोर्ट ने नोट किया कि याचिकाकर्ता का नाम केवल नायब तहसीलदार की रिपोर्ट के आधार पर बिना किसी नोटिस के रिकॉर्ड से हटा दिया गया। कोर्ट ने कहा कि धारा 38(5) के तहत कार्यवाही शुरू की गई और एकतरफा सुधार किया गया, बिना याचिकाकर्ता को सुनवाई का अवसर दिए।
2. धारा 38 का दुरुपयोग कोर्ट ने जोर देकर कहा कि धारा 38 त्रुटियों को सुधारने के लिए है और इसका उपयोग स्वामित्व विवादों को निपटाने के लिए नहीं किया जा सकता, खासकर जब घोषणात्मक डिक्री मौजूद हो। कोर्ट ने कहा:
“उप-जिलाधिकारी, तहसील सदर, रायबरेली ने बिना कोई नोटिस जारी किए यूपी राजस्व संहिता की धारा 38 (5) के तहत कार्यवाही शुरू की… और केवल राजस्व रिपोर्ट के आधार पर उनका नाम हटा दिया गया।”
3. अवैध ध्वस्तीकरण सुप्रीम कोर्ट के 2024 के फैसले का हवाला देते हुए, कोर्ट ने माना कि ध्वस्तीकरण कानून का “स्पष्ट उल्लंघन” है। यहां तक कि सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण के मामले में भी, कोर्ट ने बताया कि राजस्व संहिता की धारा 67 में बेदखली के लिए एक विशिष्ट प्रक्रिया निर्धारित है, जिसकी अनदेखी की गई।
“केवल यह संज्ञान में आने पर कि किसी ग्राम सभा की भूमि पर कुछ निर्माण हुआ है या मौजूद है, किसी भी प्राधिकारी को यूपी राजस्व संहिता की धारा 67 के तहत कार्यवाही के अभाव में उक्त ढांचे को ध्वस्त करने की स्वत: शक्ति नहीं मिल जाती।”
4. मनमानापन और दुर्भावना कोर्ट ने पाया कि अधिकारी 1975 के कोर्ट आदेश से अवगत थे लेकिन जानबूझकर इसकी अनदेखी की। कोर्ट ने टिप्पणी की कि अधिकारियों का यह कृत्य दुर्भावना को दर्शाता है और जिले के सर्वोच्च राजस्व अधिकारी उन अधिकारों और कर्तव्यों से अनजान हैं जो कानून द्वारा उन्हें प्रदत्त किए गए हैं।
निर्णय
हाईकोर्ट ने निम्नलिखित निर्देशों के साथ रिट याचिका स्वीकार की:
- आदेश रद्द: एसडीएम द्वारा पारित 10 फरवरी, 2025 का आदेश रद्द कर दिया गया।
- कब्जा वापसी: प्रतिवादियों को निर्देश दिया गया कि वे दो सप्ताह के भीतर याचिकाकर्ता को खाली जमीन का कब्जा सौंपें।
- हर्जाना: राज्य सरकार पर 20 लाख रुपये का हर्जाना लगाया गया, जिसका भुगतान दो महीने के भीतर याचिकाकर्ता को किया जाना है।
- अधिकारियों से वसूली: राज्य को निर्देश दिया गया कि वह अपर मुख्य सचिव स्तर से कम के अधिकारी से जांच न कराए और जिम्मेदार अधिकारियों (जिनमें इसमें शामिल सर्वोच्च अधिकारी भी शामिल हैं) की पहचान कर उनसे हर्जाने की वसूली करे।
- प्रशिक्षण: कोर्ट ने राज्य को राजस्व अधिकारियों को संपत्ति के अधिकारों और कानूनी प्रक्रियाओं के संबंध में पर्याप्त प्रशिक्षण देने के लिए तत्काल कदम उठाने का निर्देश दिया।
मामले का विवरण:
- केस टाइटल: सावित्री सोनकर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य
- केस नंबर: रिट सी नंबर 11232 ऑफ 2025
- कोरम: न्यायमूर्ति आलोक माथुर
- याचिकाकर्ता के वकील: श्री विवेक राज सिंह (वरिष्ठ अधिवक्ता), साथ में श्री अक्षत कुमार, श्री शांतनु शर्मा, आदि।
- प्रतिवादियों के वकील: श्री सतीश कुमार (वरिष्ठ अधिवक्ता), साथ में श्री प्रेम सिंह।

