संज्ञान के स्तर पर धाराओं को जोड़ या घटा नहीं सकता मजिस्ट्रेट, यह आरोप तय करते समय ही संभव: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने छेड़छाड़ के एक मामले में समनिंग आदेश (Summoning Order) को रद्द करने की मांग वाली याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया है कि संज्ञान (Cognizance) लेते समय मजिस्ट्रेट चार्जशीट में उल्लिखित भारतीय दंड संहिता (IPC) की धाराओं में बदलाव नहीं कर सकते। कोर्ट ने कहा कि धाराओं को जोड़ने या हटाने की प्रक्रिया केवल आरोप तय (Framing of Charge) करने के चरण पर ही की जा सकती है।

कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या जांच के दौरान एकत्र की गई सामग्री के आधार पर समनिंग आदेश और आपराधिक कार्यवाही को रद्द किया जा सकता है, या ऐसे तर्कों को डिस्चार्ज (आरोप मुक्त) के चरण के लिए सुरक्षित रखा जाना चाहिए। न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार गिरी ने दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 482 के तहत दायर आवेदन को खारिज करते हुए कहा कि धाराओं को शामिल करने या बाहर करने का मजिस्ट्रेट का अधिकार आरोप तय करते समय उत्पन्न होता है, न कि संज्ञान लेते समय।

मामले की पृष्ठभूमि

आवेदक पवन कुमार सिंह और तीन अन्य ने मिर्जापुर के सिविल जज, जूनियर डिवीजन (FTC/महिला अपराध) द्वारा पारित 28 मई, 2024 के समनिंग आदेश को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

यह कार्यवाही कोतवाली चुनार, मिर्जापुर में दर्ज मुकदमा अपराध संख्या 369/2023 से संबंधित थी। विपक्षी संख्या 2 (पीड़िता) ने छेड़छाड़ और अभद्र टिप्पणी का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज कराई थी। विवेचना के बाद, पुलिस ने आवेदकों के खिलाफ आईपीसी की धारा 354A (यौन उत्पीड़न), 504 (शांति भंग करने के इरादे से अपमान), और 506 (आपराधिक धमकी) के तहत चार्जशीट दाखिल की थी।

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पक्षों की दलीलें

आवेदकों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता दिनेश सिंह और अधिवक्ता अभिषेक भूषण ने तर्क दिया कि पीड़िता ने धारा 161 Cr.P.C. (पुलिस बयान) और धारा 164 Cr.P.C. (मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान) के तहत दर्ज अपने बयानों में एफआईआर के संस्करण का समर्थन नहीं किया है।

वकील ने यह भी दलील दी कि यह मामला एक “काउंटर ब्लास्ट” (प्रतिशोध) है, क्योंकि एफआईआर दर्ज होने से पहले विभाग द्वारा पीड़िता के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की गई थी।

इसके विपरीत, राज्य की ओर से विद्वान अपर शासकीय अधिवक्ता (AGA) श्री पंकज कुमार त्रिपाठी ने आवेदन का विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि एफआईआर कोई विश्वकोश (Encyclopedia) नहीं है और पीड़िता ने बाद के चरण में तथ्यों का खुलासा किया है। उन्होंने कहा कि मजिस्ट्रेट ने चार्जशीट के आधार पर सही संज्ञान लिया है। एजीए ने यह भी कहा कि यदि कोई अपराध नहीं बनता है, तो धारा 239 Cr.P.C. (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 262 के अनुरूप) के तहत आरोप तय करने के चरण पर डिस्चार्ज (उन्मोचन) मांगने का उपाय उपलब्ध है।

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कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार गिरी ने आरोपों के परिवर्तन और ट्रायल के चरणों के संबंध में प्रक्रियात्मक कानून की जांच की। कोर्ट ने पाया कि संज्ञान आदेश को रद्द करना वास्तव में आरोपी को समय से पहले आरोप मुक्त करने जैसा है।

पीठ ने उल्लेख किया कि किसी भी धारा को जोड़ना, घटाना, बाहर करना या शामिल करना आरोप में परिवर्तन के समान है। कोर्ट ने Cr.P.C. की धारा 216, 218 और 221 (जो B.N.S.S. की धारा 239, 241 और 244 के अनुरूप हैं) का हवाला दिया, जो इस तरह के परिवर्तनों के लिए तंत्र प्रदान करती हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुजरात राज्य बनाम गिरीश राधाकृष्णन वर्दे (2014) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विशेष भरोसा जताया। शीर्ष अदालत के निर्णय को उद्धृत करते हुए, जज ने कहा:

“पुलिस रिपोर्ट पर आधारित मामले में मजिस्ट्रेट संज्ञान लेते समय धाराओं को जोड़ या घटा नहीं सकते, क्योंकि यह ट्रायल कोर्ट द्वारा केवल आरोप तय करने (Framing of Charge) के समय ही किया जा सकता है… इसका अर्थ है कि चार्जशीट दाखिल होने के बाद अभियोजन पक्ष के लिए यह खुला होगा कि वह आरोप तय करने के चरण पर उचित ट्रायल कोर्ट के समक्ष यह स्थापित करे कि दिए गए तथ्यों पर उचित धाराएं लगाई जा सकती हैं।”

कोर्ट ने जोर देकर कहा कि विवेचना अधिकारी द्वारा एकत्र की गई सामग्री तब तक सख्ती से “साक्ष्य” नहीं है जब तक कि कोर्ट द्वारा जांच या ट्रायल के दौरान इसकी अनुमति नहीं दी जाती। कोर्ट ने आगे कहा कि आरोपी के पास धारा 227, 239 और 245 Cr.P.C. के तहत डिस्चार्ज मांगने के वैधानिक उपाय उपलब्ध हैं, और आवेदक उस चरण पर अपनी आपत्तियां उठा सकते हैं।

निर्णय

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कोर्ट ने माना कि आवेदकों द्वारा उठाया गया मुद्दा गिरीश राधाकृष्णन वर्दे के फैसले से तय हो चुका है। नतीजतन, कोर्ट ने प्रार्थना खंड में मांगी गई राहत देने से इनकार कर दिया।

धारा 482 Cr.P.C. के तहत दायर आवेदन को खारिज कर दिया गया। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को “कानून के अनुसार आरोप तय करने” का निर्देश दिया है।

केस विवरण:

  • केस टाइटल: पवन कुमार सिंह और 3 अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य
  • केस नंबर: एप्लीकेशन U/S 482 नंबर 40092 ऑफ 2024
  • कोरम: न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार गिरी
  • आवेदकों के वकील: अभिषेक भूषण, दिनेश सिंह (वरिष्ठ अधिवक्ता)
  • राज्य के वकील: आनंद कुमार, पंकज कुमार, श्याम सिंह

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