चेक पर हस्ताक्षर स्वीकार करते ही देनदारी की वैधानिक उपधारणा (Presumption) लागू हो जाती है: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act) की धारा 138 के तहत दोषी ठहराए गए एक आरोपी की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका (Criminal Revision Petition) को खारिज कर दिया है। हाईकोर्ट ने निचली अदालत और अपीलीय अदालत के फैसलों को सही ठहराते हुए स्पष्ट किया कि एक बार जब आरोपी चेक पर अपने हस्ताक्षर स्वीकार कर लेता है, तो एनआई एक्ट की धारा 118 और 139 के तहत वैधानिक उपधारणा (Statutory Presumption) उसके खिलाफ लागू हो जाती है।

न्यायमूर्ति राकेश कैंथला की पीठ ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि हाईकोर्ट का पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार (Revisional Jurisdiction) सीमित है और साक्ष्यों में कोई स्पष्ट गड़बड़ी न होने तक इसका उपयोग साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए नहीं किया जा सकता है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला जगदीश कुमार शर्मा (शिकायतकर्ता) द्वारा सोहन लाल (याचिकाकर्ता) के खिलाफ दायर एक शिकायत से जुड़ा है। शिकायतकर्ता का आरोप था कि आरोपी ने अपनी देनदारी चुकाने के लिए 2,50,000 रुपये का चेक जारी किया था। जब इस चेक को पंजाब नेशनल बैंक, ठियोग शाखा में प्रस्तुत किया गया, तो यह “फंड्स इनसफिशिएंट” (अपर्याप्त धनराशि) के कारण बाउंस हो गया।

इसके बाद, शिकायतकर्ता ने 21 जून 2016 को पंजीकृत डाक के माध्यम से आरोपी को कानूनी नोटिस भेजा। नोटिस प्राप्त होने के बावजूद, आरोपी ने राशि का भुगतान नहीं किया। परिणामस्वरूप, अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, ठियोग ने 17 अप्रैल 2023 को आरोपी को दोषी करार दिया और उसे एक साल के साधारण कारावास की सजा सुनाई, साथ ही 5,00,000 रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया।

आरोपी ने इस फैसले को चुनौती दी, लेकिन अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, रोहड़ू (कैंप ठियोग) ने 16 जनवरी 2025 को उसकी अपील खारिज कर दी। दोनों अदालतों के फैसलों से असंतुष्ट होकर आरोपी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

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पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता/आरोपी के वकील श्री आई.एस. चंदेल ने तर्क दिया कि निचली अदालतों ने साक्ष्यों को समझने में गलती की है। उनकी मुख्य दलीलें थीं:

  • शिकायतकर्ता 2,50,000 रुपये का ऋण साबित करने में विफल रहा।
  • आरोपी का चेक कहीं खो गया था, जिसका शिकायतकर्ता ने दुरुपयोग किया।
  • शिकायत समय से पहले दायर की गई थी, क्योंकि नोटिस तामील होने के 15 दिनों की अवधि समाप्त होने से पहले ही इसे दाखिल कर दिया गया था। इसके समर्थन में गोविंद राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य और अन्य [2025:HHC:33346] के फैसले का हवाला दिया गया।

दूसरी ओर, प्रतिवादी के वकील श्री विवेक सिंह अत्री ने निचली अदालतों के फैसलों का समर्थन किया।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

1. पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार का दायरा

कोर्ट ने सबसे पहले सीआरपीसी (Cr.P.C.) की धारा 397 के तहत अपनी शक्तियों के दायरे पर चर्चा की। सुप्रीम कोर्ट के फैसले मलकीत सिंह गिल बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2022) का हवाला देते हुए, न्यायमूर्ति कैंथला ने नोट किया कि हाईकोर्ट को अपीलीय अदालत की तरह काम नहीं करना चाहिए और वह केवल तभी हस्तक्षेप कर सकता है जब क्षेत्राधिकार या कानून की कोई स्पष्ट त्रुटि हो।

संजाबीज तारी बनाम किशोर एस. बोरकर (2025) का संदर्भ देते हुए कोर्ट ने कहा:

“परिणामस्वरूप, इस न्यायालय का विचार है कि स्पष्ट गड़बड़ी (perversity) के अभाव में, हाईकोर्ट के लिए यह उचित नहीं था कि वह पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार में ट्रायल कोर्ट और सत्र न्यायालय के समवर्ती निष्कर्षों को पलट दे।”

2. धारा 139 एनआई एक्ट के तहत उपधारणा

कोर्ट ने पाया कि आरोपी ने सीआरपीसी की धारा 313 के तहत अपने बयान में चेक पर अपने हस्ताक्षर स्वीकार किए थे। एपीएस फॉरेक्स सर्विसेज (पी) लिमिटेड बनाम शक्ति इंटरनेशनल फैशन लिंकर्स (2020) और एन. विजय कुमार बनाम विश्वनाथ राव एन. (2025) पर भरोसा जताते हुए, हाईकोर्ट ने माना कि हस्ताक्षर की स्वीकृति से यह उपधारणा बन जाती है कि चेक किसी ऋण या दायित्व को चुकाने के लिए जारी किया गया था।

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‘चेक खो जाने’ के बचाव पर कोर्ट ने टिप्पणी की:

“आरोपी ने अपनी जिरह में कहा कि उसका चेक खो गया था… हालांकि, उसका बयान बैंक को चेक खोने की सूचना देने के संबंध में मौन है। कोई भी समझदार व्यक्ति चेक खो जाने पर तुरंत बैंक को भुगतान रोकने की सूचना देगा। बैंक को मामले की रिपोर्ट करने में विफलता आरोपी के इस बयान पर भरोसा करना मुश्किल बना देती है कि उसका चेक खो गया था।”

3. नोटिस की तामील और समयपूर्व शिकायत

आरोपी ने तर्क दिया कि उसे जो नोटिस मिला था उसमें किसी और का नाम था और शिकायत समय से पहले दायर की गई थी। कोर्ट ने गलत नोटिस वाली दलील को खारिज कर दिया क्योंकि आरोपी ने इसका स्पष्टीकरण देने के लिए कोई जवाब नहीं भेजा था।

समयपूर्व शिकायत के तर्क पर, कोर्ट ने रिकॉर्ड की जांच की, जिसमें डाकघर नारकंडा की मुहर 23 जून 2016 को डिलीवरी दर्शा रही थी।

“आरोपी के पास नोटिस प्राप्त होने के बाद भुगतान करने के लिए 15 दिन का समय था। शिकायतकर्ता उसके बाद एक महीने के भीतर शिकायत दर्ज कर सकता था। मौजूदा मामले में, शिकायत 15 दिनों की समाप्ति के बाद और एक महीने की अवधि के भीतर दायर की गई थी; इसलिए, इसे समयपूर्व नहीं कहा जा सकता।”

कोर्ट ने सी.सी. अलावी हाजी बनाम पला पेली मोहम्मद हाजी (2007) का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि यदि कोई ड्रावर नोटिस न मिलने का दावा करता है, तो वह कोर्ट समन मिलने के 15 दिनों के भीतर भुगतान कर सकता है। “मौजूदा मामले में, कोई भुगतान नहीं किया गया, और यह दलील कि आरोपी को नोटिस नहीं मिला, उसकी मदद नहीं करेगी,” कोर्ट ने फैसला सुनाया।

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4. सजा और मुआवजा

कोर्ट ने एक साल की कैद की सजा को उचित माना और बीर सिंह बनाम मुकेश कुमार (2019) में उल्लिखित धारा 138 की निवारक (deterrent) प्रकृति का हवाला दिया। 5,00,000 रुपये (चेक राशि का दोगुना) के मुआवजे के संबंध में, कोर्ट ने कालमानी टेक्स बनाम पी. बालसुब्रमण्यम (2021) पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि अदालतों को चेक राशि का दोगुना तक जुर्माना लगाना चाहिए।

“इन विचारों को ध्यान में रखते हुए, 2,50,000 रुपये की चेक राशि पर 2,50,000 रुपये का मुआवजा (कुल 5 लाख) अत्यधिक नहीं है,” न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला।

निर्णय

हाईकोर्ट ने माना कि एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के सभी आवश्यक तत्व पूरे हुए हैं। कोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया और 17 अप्रैल 2023 के दोषसिद्धि के फैसले तथा 19 अप्रैल 2023 के सजा के आदेश को बरकरार रखा।

केस डीटेल्स:

  • केस टाइटल: सोहन लाल बनाम जगदीश कुमार शर्मा
  • केस नंबर: क्रिमिनल रिवीजन नंबर 188 ऑफ 2025
  • साइटेशन: 2025:HHC:44717
  • कोरम: न्यायमूर्ति राकेश कैंथला
  • याचिकाकर्ता के वकील: श्री आई.एस. चंदेल
  • प्रतिवादी के वकील: श्री विवेक सिंह अत्री

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