सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि डाक कवर पर “सूचना देने पर प्राप्त नहीं हुआ” (Intimation Not Received) की टिप्पणी को पक्षकार द्वारा नोटिस लेने से इनकार (Refusal) करना नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने कहा कि कथित इनकार के मामलों में सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश V नियम 19 का कड़ाई से पालन अनिवार्य है।
जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की पीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें पति द्वारा प्राप्त एकपक्षीय (Ex-parte) तलाक की डिक्री को बरकरार रखा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी द्वारा दायर अपील को स्वीकार करते हुए यह राहत दी है।
मामले की पृष्ठभूमि
पक्षकारों का विवाह 15 फरवरी 2002 को हुआ था और उनका एक बेटा भी है। वैवाहिक कलह के कारण, पति ने 15 जुलाई 2009 को आपसी सहमति से तलाक के लिए एक नोटिस भेजा। इसके बाद, पति ने खंडवा, मध्य प्रदेश में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत तलाक की याचिका दायर की।
ट्रायल कोर्ट ने 9 सितंबर 2009 को सामान्य प्रक्रिया और पंजीकृत डाक दोनों माध्यमों से सम्मन जारी करने का आदेश दिया। बिना तामील हुए डाक कवर वापस आने पर, ट्रायल कोर्ट ने 18 नवंबर 2009 को एकपक्षीय कार्यवाही की और 30 नवंबर 2009 को तलाक की डिक्री पारित कर दी।
अपीलकर्ता-पत्नी का कहना था कि वह इन कार्यवाहियों से पूरी तरह अनजान थी। उसने दावा किया कि जुलाई 2009 के नोटिस के बाद मुद्दे सुलझ गए थे और वे साथ रह रहे थे। उसे 30 मई 2019 को एक कानूनी नोटिस मिलने पर झटका लगा, जिसमें उसे एकपक्षीय डिक्री के बारे में बताया गया था। इसके बाद, उसने डिक्री को रद्द कराने के लिए CPC के आदेश IX नियम 13 के तहत आवेदन किया और देरी को माफ करने के लिए परिसीमा अधिनियम (Limitation Act), 1963 की धारा 5 के तहत आवेदन दिया।
ट्रायल कोर्ट ने उसके आवेदनों को स्वीकार कर लिया और एकपक्षीय डिक्री को रद्द कर दिया। हालांकि, पति ने इसके खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया और कहा कि पत्नी को नोटिस भेजा गया था जिसे उसने लेने से इनकार कर दिया था, इसलिए वह 10 साल बाद अज्ञानता का हवाला देकर कार्यवाही को फिर से नहीं खोल सकती।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस की तामील के संबंध में हाईकोर्ट के निष्कर्षों की जांच की। पीठ ने पाया कि हाईकोर्ट ने CPC के आदेश V नियम 19 के अनिवार्य प्रावधानों को नजरअंदाज करके भारी गलती की है।
नोटिस की तामील पर
कोर्ट ने वापस आए डाक कवर की जांच की, जिस पर लिखा था: “सूचना देने पर, प्राप्त नहीं हुआ हस्ताक्षर/- 26/10” (On giving information, not received Sd/- 26/10)।
इस टिप्पणी की व्याख्या करते हुए, पीठ ने कहा:
“यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि जिस सेवारत अधिकारी (Serving Officer) ने याचिकाकर्ता को पंजीकृत डाक वस्तु देने का इरादा किया था, उसने वस्तु की तामील नहीं की, बल्कि डाक नियमों के तहत पते पर एक सूचना (Intimation) छोड़ी थी, जिसमें उसे डाक वस्तु लेने के लिए कहा गया था। इसे किसी भी तरह से याचिकाकर्ता-पत्नी की ओर से इनकार (Refusal) नहीं माना जा सकता है।”
इसके अलावा, कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की प्रक्रियात्मक चूक की ओर भी इशारा किया। यद्यपि ट्रायल कोर्ट ने कोर्ट की प्रक्रिया (बेलीफ) के माध्यम से भी नोटिस का आदेश दिया था, लेकिन निचली अदालतों के आदेशों में बेलीफ की रिपोर्ट का कोई जिक्र नहीं था।
कोर्ट ने कहा:
“इसके अलावा, CPC के नियम 19 के जनादेश का उल्लंघन होने के कारण, हाईकोर्ट द्वारा पत्नी पर नोटिस की तामील को पूर्ण या पर्याप्त नहीं माना जा सकता था।”
देरी की माफी (Condonation of Delay) पर
डिक्री को रद्द करने के लिए आवेदन दाखिल करने में हुई देरी पर, कोर्ट ने कलेक्टर, भूमि अधिग्रहण, अनंतनाग और अन्य बनाम मिस कातिजी और अन्य, AIR 1987 SC 1353 के फैसले में निर्धारित सिद्धांतों को दोहराया। पीठ ने जोर दिया कि “पर्याप्त कारण” (Sufficient Cause) ही सर्वोपरि है, न कि केवल देरी की अवधि।
मिसाल का हवाला देते हुए कोर्ट ने नोट किया:
“जब ठोस न्याय और तकनीकी विचार एक-दूसरे के सामने खड़े हों, तो ठोस न्याय के कारण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए क्योंकि दूसरा पक्ष यह दावा नहीं कर सकता कि गैर-जानबूझकर की गई देरी के कारण अन्याय होने का उसे निहित अधिकार है।”
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि ट्रायल कोर्ट ने CPC के आदेश V नियम 17 और 19 के “घोर उल्लंघन” को पाने के बाद देरी को माफ करके अपने अधिकार क्षेत्र का सही प्रयोग किया था।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार कर ली और हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता-पत्नी, अपर्याप्त तामील के कारण तलाक की कार्यवाही से अनजान थी, इसलिए उसने सही तरीके से परिसीमा अधिनियम की धारा 5 का सहारा लिया था।
पीठ ने आदेश दिया:
“तदनुसार, आक्षेपित आदेश को रद्द किया जाता है और अपील की अनुमति दी जाती है। पक्षकार यदि सलाह दी जाती है तो भरण-पोषण (Maintenance) के संबंध में ट्रायल कोर्ट के समक्ष अपने अधिकारों का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं।”
केस डिटेल्स:
- केस टाइटल: ज्योत्सना कानूनगो बनाम शैलेंद्र कानूनगो
- केस नंबर: सिविल अपील संख्या 2025 (@SLP (C) No. 21693/2025)
- कोरम: जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एन.वी. अंजारिया

