सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा पाए एक आरोपी को बरी करते हुए स्पष्ट किया है कि केवल ‘लास्ट सीन टुगेदर’ (मृतक के साथ अंतिम बार देखा जाना) के सिद्धांत के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि अन्य साक्ष्य अपराध की कड़ी को पूरा न करते हों।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि यद्यपि ‘लास्ट सीन’ का सिद्धांत संदेह पैदा करता है, लेकिन अन्य पुष्टिकारक सबूतों (corroborative evidence) के अभाव में यह दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं है। संदेह का लाभ देते हुए कोर्ट ने अपीलकर्ता मनोज उर्फ मुन्ना को रिहा करने का आदेश दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह अपील छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के 11 मई, 2011 के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 (हत्या) और धारा 201 (साक्ष्य मिटाना) के तहत दोषी ठहराया गया था।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, 7 जून 2004 को अपीलकर्ता ने पांच अन्य सह-आरोपियों के साथ मिलकर डकैती की और युवराज सिंह पाटले की हत्या कर दी। आरोप था कि घटना से एक दिन पहले, 6 जून 2004 को अपीलकर्ता मृतक को अपनी मोटरसाइकिल पर साल्हेवारा से ले गया था, जिसके बाद मृतक का शव बरामद हुआ।
पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉ. आशीष शर्मा (PW-13) ने पुष्टि की थी कि मृत्यु हत्यात्मक थी और शरीर पर जलने व चोट के निशान थे। ट्रायल कोर्ट ने पांच सह-आरोपियों को बरी कर दिया था, लेकिन गवाहों बेदराम (PW-18) और चमरू सिंह (PW-20) की गवाही के आधार पर मनोज को दोषी ठहराया था।
दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से पेश न्याय मित्र (Amicus Curiae) ने तर्क दिया कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है और सबूतों की कड़ी अधूरी है। उन्होंने कहा कि अभियोजन पक्ष अपराध का मकसद (motive) साबित करने में विफल रहा है और ‘लास्ट सीन’ के साक्ष्य भी विश्वसनीय नहीं हैं। यह भी तर्क दिया गया कि समान सबूतों के बावजूद अन्य आरोपियों को बरी कर दिया गया, जबकि अपीलकर्ता के साथ भेदभाव हुआ।
दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ राज्य के वकील ने तर्क दिया कि ‘लास्ट सीन टुगेदर’ का साक्ष्य पूरी तरह से साबित हो चुका है और अन्य परिस्थितियों के साथ मिलकर यह अपीलकर्ता को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त है।
कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि यह मामला पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्यों, विशेष रूप से मकसद और ‘लास्ट सीन टुगेदर’ के सिद्धांत पर टिका था।
मकसद (Motive) के मुद्दे पर: कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष कथित मकसद को साबित करने में विफल रहा। अभियोजन का कहना था कि अपीलकर्ता ने अपनी जीप छुड़ाने के लिए पैसे का इंतजाम करने के उद्देश्य से ट्रैक्टर लूटने के लिए ड्राइवर की हत्या की। हालांकि, कोर्ट ने टिप्पणी की, “इस बात का कोई सबूत नहीं है कि अपीलकर्ता ने ट्रैक्टर बेचने का प्रयास किया, इसलिए पैसे का इंतजाम करने का सिद्धांत स्थापित नहीं होता।”
‘लास्ट सीन टुगेदर’ पर: पीठ ने स्वीकार किया कि गवाहों के बयानों से यह स्थापित होता है कि मृतक को अंतिम बार अपीलकर्ता के साथ देखा गया था। हालांकि, कोर्ट ने रामब्रक्ष बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2016) के फैसले का हवाला देते हुए कहा:
“दोषसिद्धि दर्ज करने के लिए, केवल ‘लास्ट सीन टुगेदर’ पर्याप्त नहीं होगा और अभियोजन पक्ष को आरोपी का अपराध साबित करने के लिए परिस्थितियों की कड़ी को पूरा करना होगा।”
कोर्ट ने कन्हैया लाल बनाम राजस्थान राज्य (2014) का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि केवल साथ देखे जाने का साक्ष्य ‘कमजोर साक्ष्य’ है और इसके लिए पुष्टि की आवश्यकता होती है।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 पर: हाईकोर्ट ने इस बात पर जोर दिया था कि अपीलकर्ता यह बताने में विफल रहा कि वह मृतक से कब अलग हुआ, जो कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत उसके विशेष ज्ञान में था। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह प्रावधान अभियोजन पक्ष को अपराध साबित करने की उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करता।
सावित्री सामंतराय बनाम ओडिशा राज्य (2023) का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि धारा 106 तभी लागू होती है जब अभियोजन पक्ष ने घटनाओं की एक श्रृंखला स्थापित कर दी हो। कोर्ट ने कहा:
“यदि आरोपी अपने विशेष ज्ञान के भीतर के तथ्यों के बारे में कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण देने में विफल रहता है, तो यह विफलता उसके खिलाफ स्थापित परिस्थितिजन्य साक्ष्य की कड़ी में एक अतिरिक्त कड़ी बनती है, लेकिन यह अभियोजन को संदेह से परे अपराध साबित करने से मुक्त नहीं करती।”
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि ‘लास्ट सीन टुगेदर’ के साक्ष्य के अलावा अपीलकर्ता के खिलाफ कोई अन्य पुष्टिकारक साक्ष्य नहीं है।
पीठ ने कहा, “वर्तमान मामले में ‘लास्ट सीन टुगेदर’ के साक्ष्य के अलावा, अपीलकर्ता के खिलाफ कोई अन्य पुष्टिकारक साक्ष्य नहीं है। इसलिए, केवल अंतिम बार साथ देखे जाने के आधार पर दोषसिद्धि को बरकरार नहीं रखा जा सकता।”
नतीजतन, सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के फैसलों को रद्द कर दिया और अपीलकर्ता को बरी कर दिया।
केस विवरण:
केस टाइटल: मनोज उर्फ मुन्ना बनाम छत्तीसगढ़ राज्य
केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर 1129/2013
साइटेशन: 2025 INSC 1466
कोरम: जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा

