इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की अनुपस्थिति से बच्चों के निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 का मूल उद्देश्य ही विफल हो जाता है। कोर्ट ने निरीक्षण के दौरान स्कूल से अनुपस्थित पाए गए दो प्राथमिक शिक्षकों के निलंबन में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को तीन महीने के भीतर शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए एक प्रभावी नीति बनाने का निर्देश दिया है।
न्यायमूर्ति प्रकाश पाडिया ने इंद्रा देवी और लीना सिंह चौहान द्वारा दायर रिट याचिकाओं का निस्तारण करते हुए ये टिप्पणियां कीं। दोनों शिक्षिकाओं ने जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा जारी निलंबन आदेशों को चुनौती दी थी, जिनका आधार यह था कि निरीक्षण के समय वे विद्यालय में उपस्थित नहीं पाई गई थीं।
कोर्ट ने राहत देने से इनकार करते हुए कहा कि शिक्षक ज्ञान के “स्तंभ” होते हैं और भारतीय संस्कृति में उन्हें ‘गुरु’ के रूप में सम्मानित किया जाता है। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि प्राथमिक स्तर के बच्चों को बिना किसी बाधा के शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य सरकार का दायित्व है।
2 दिसंबर को पारित आदेश में हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की अनुपस्थिति की व्यापक समस्या पर गंभीर चिंता जताई। कोर्ट ने कहा, “यह एक सर्वविदित तथ्य है कि उत्तर प्रदेश राज्य के बड़ी संख्या में प्राथमिक संस्थानों में शिक्षक समय से विद्यालय नहीं पहुंचते।”
न्यायालय ने आगे कहा कि ऐसे मामले नियमित रूप से उसके समक्ष आ रहे हैं। आदेश में कहा गया, “प्रतिदिन इस न्यायालय के समक्ष ऐसे मामले आ रहे हैं, जिनमें शिक्षकों और प्रधानाध्यापकों पर यह आरोप लगाए जाते हैं कि वे समय पर विद्यालय नहीं आते।” कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस तरह की लापरवाही बच्चों को शिक्षा देने की राज्य की जिम्मेदारी को सीधे प्रभावित करती है।
प्रणालीगत सुधार की आवश्यकता पर जोर देते हुए हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को तीन महीने के भीतर ऐसी नीति बनाने का निर्देश दिया, जिससे विद्यालयों में शिक्षकों की नियमित उपस्थिति और जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके।
निलंबन आदेशों को बरकरार रखते हुए और नीतिगत निर्देश जारी करते हुए अदालत ने स्पष्ट संदेश दिया कि बच्चों के शिक्षा के अधिकार को प्रभावित करने वाली किसी भी तरह की ढिलाई को स्वीकार नहीं किया जाएगा।

