सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें हत्या की आरोपी एक महिला को जमानत दी गई थी। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि अपराध की गंभीरता और आरोपी द्वारा किए गए विशिष्ट कृत्यों (overt acts) पर चर्चा किए बिना, केवल महिला होने और हिरासत की अवधि के आधार पर जमानत देना कानूनी रूप से सही नहीं है।
जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 जैसे गंभीर मामले में आरोपों के गुण-दोष पर विचार करना आवश्यक है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला चिकमंगलूर के लक्कावल्ली पुलिस स्टेशन में दर्ज अपराध संख्या 2/2024 से संबंधित है। अपीलकर्ता रेखा के.सी. ने 3 जनवरी, 2024 को अपने पति नवीन के.जी. की मृत्यु के संबंध में एफआईआर (FIR) दर्ज कराई थी।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, जांच के दौरान आरोपी (प्रतिवादी नंबर 1, ज्योतिबाई) और एक अन्य व्यक्ति के खिलाफ आरोप पत्र (charge sheet) दाखिल किया गया। पुलिस ने आईपीसी की धारा 120बी (आपराधिक साजिश), 504 (जानबूझकर अपमान करना), और 302 (हत्या) के साथ धारा 34 के तहत मामला दर्ज किया।
आरोपी को 6 जनवरी, 2024 को गिरफ्तार किया गया था और वह न्यायिक हिरासत में थी। उसका मामला (S.C. No. 40/2024) प्रथम अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, चिकमंगलूर के समक्ष लंबित है। निचली अदालत ने 8 जुलाई, 2024 को उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी थी।
हालांकि, 23 नवंबर, 2024 को कर्नाटक हाईकोर्ट ने आपराधिक याचिका संख्या 12115/2024 में उसे जमानत दे दी। इस आदेश के खिलाफ शिकायतकर्ता रेखा के.सी. ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता (शिकायतकर्ता) का तर्क: अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट के आदेश में कारणों का अभाव है। उन्होंने कहा कि मामले के तथ्य अत्यंत स्पष्ट हैं और आरोपी पर गंभीर कृत्य करने का आरोप है, जिसके कारण मृतक की मृत्यु एक हथियार (machete) से लगी चोटों से हुई।
अपीलकर्ता ने कोर्ट के समक्ष निम्नलिखित बिंदु रखे:
- ट्रायल में तीन गवाहों ने अभियोजन के मामले का समर्थन किया है।
- आरोपी की रिहाई से गवाहों पर प्रभाव पड़ सकता है और अभियोजन पक्ष को नुकसान हो सकता है।
- धारा 302 आईपीसी के तहत गंभीर आरोपों के बावजूद, केवल 40 वर्ष की महिला होने के आधार पर जमानत नहीं दी जा सकती।
प्रतिवादी (आरोपी) का तर्क: आरोपी के वकील ने हाईकोर्ट के आदेश का समर्थन करते हुए तर्क दिया कि यह घटना “आत्मरक्षा” (self-defence) में हुई थी। यह भी कहा गया कि आरोपी एक साल और सत्रह दिनों से अधिक समय से विचाराधीन कैदी (undertrial) के रूप में जेल में है, इसलिए उसे राहत दी जानी चाहिए।
राज्य का रुख: उल्लेखनीय रूप से, राज्य के स्थायी वकील (Standing Counsel) ने निर्देशानुसार कहा कि हाईकोर्ट का आदेश उचित है और इसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
हाईकोर्ट का तर्क
सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया कि हाईकोर्ट ने जमानत देते समय निम्नलिखित कारण दिए थे:
- घर के अंदर हुई घटना का कोई चश्मदीद गवाह नहीं था।
- मृतक स्वयं आरोपी के घर गया था जब वह अकेली थी।
- आरोपी के बयान के आधार पर मृतक के खिलाफ भी मामला दर्ज किया गया था।
- आरोपी 41 वर्षीय महिला है, जिसकी एक अविवाहित बेटी है और उसका कोई पूर्व आपराधिक इतिहास नहीं है।
- मामले की जांच पूरी हो चुकी है।
हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला था कि सीआरपीसी (Cr.P.C.) की धारा 437(1) के प्रावधान को देखते हुए जमानत की प्रार्थना को स्वीकार किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के दृष्टिकोण पर असहमति जताई। पीठ ने पाया कि हाईकोर्ट ने आरोपी के खिलाफ लगाए गए विशिष्ट कृत्यों (overt acts) पर कोई चर्चा नहीं की।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा:
“प्रथम प्रतिवादी (आरोपी) के खिलाफ लगाए गए प्रत्यक्ष कृत्य (overt-act) के संबंध में कोई चर्चा नहीं की गई है। ऐसी किसी भी चर्चा के अभाव में, केवल इसलिए जमानत दे दी गई है क्योंकि वह एक महिला है, जिसकी उम्र लगभग 41 वर्ष है और वह लगभग ग्यारह महीने से हिरासत में थी, जो सही नहीं है।”
शीर्ष अदालत ने कहा कि हाईकोर्ट ने अपराध की गंभीरता को नजरअंदाज कर दिया। पीठ ने स्पष्ट किया कि आदेश में लिंग और हिरासत की अवधि के अलावा जमानत देने का कोई अन्य ठोस कारण नहीं पाया गया, जो इतने गंभीर आरोपों के मामले में अपर्याप्त है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए 23 नवंबर, 2024 के हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया।
कोर्ट ने प्रतिवादी नंबर 1 (ज्योतिबाई) को 31 दिसंबर, 2025 या उससे पहले प्रथम अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, चिकमंगलूर की अदालत में आत्मसमर्पण (surrender) करने का निर्देश दिया है।
केस डिटेल्स (Case Details):
- केस टाइटल: रेखा के.सी. बनाम ज्योतिबाई और अन्य
- केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर [] of 2025 (@ SLP (Crl.) No. 13801/2025)
- कोरम: जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन

