छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट: वैधानिक नियमों के अभाव में एडेड स्कूलों के कर्मचारियों को पेंशन का निर्देश नहीं दिया जा सकता

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि विशिष्ट नियमों की अनुपस्थिति में कोर्ट राज्य सरकार को कानून बनाने या पेंशन लाभ देने के लिए नियम तैयार करने का निर्देश नहीं दे सकता। इस आधार पर, न्यायमूर्ति विभू दत्त गुरु की एकल पीठ ने सरकारी सहायता प्राप्त (Government-Aided) निजी स्कूलों के सेवानिवृत्त कर्मचारियों द्वारा दायर याचिकाओं के एक समूह को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्होंने सरकारी स्कूल के शिक्षकों के समान पेंशन लाभ की मांग की थी।

मामले की पृष्ठभूमि

हाईकोर्ट, अशोक कुमार हजरा व अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य व अन्य और उससे जुड़ी अन्य याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था। याचिकाकर्ता विभिन्न 100% अनुदान प्राप्त गैर-सरकारी स्कूलों से सेवानिवृत्त प्राचार्य, व्याख्याता और उच्च श्रेणी शिक्षक (UDT) थे।

याचिकाकर्ताओं का कहना था कि उनकी सेवा शर्तें मध्य प्रदेश शिक्षण संस्था (अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों के वेतनों का संदाय) अधिनियम, 1978 और अशासकीय शिक्षण संस्थाओं को अनुदान के लिए संशोधित नियम, 1979 द्वारा शासित होती हैं। उन्होंने तर्क दिया कि 1979 के नियमों के नियम 33 के तहत, सहायता प्राप्त संस्थाओं के कर्मचारी राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन पाने के हकदार हैं। इसके बावजूद, राज्य के अधिकारियों ने उन्हें पेंशन लाभ देने से इनकार कर दिया था।

याचिकाकर्ताओं की दलीलें

याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने तर्क दिया कि उन्हें पेंशन देने से इनकार करना, जबकि सरकारी स्कूलों और अन्य 100% सहायता प्राप्त निजी कॉलेजों के कर्मचारियों को यह लाभ दिया जा रहा है, संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है और यह “मनमाना और भेदभावपूर्ण” है।

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यह दलील दी गई कि जब वैधानिक योजना समानता की बात करती है, तो राज्य समान व्यवहार से पीछे नहीं हट सकता। वकीलों ने जोर देकर कहा कि दशकों तक शिक्षा के क्षेत्र में सेवा देने वाले वरिष्ठ नागरिकों को पेंशन से वंचित करना अनुच्छेद 21 के तहत उनके गरिमा के साथ जीने के अधिकार पर प्रहार है।

यह भी तर्क दिया गया कि चूंकि राज्य इन संस्थानों की पूरी वित्तीय जिम्मेदारी उठाता है, इसलिए कर्मचारियों को सरकारी कर्मचारियों के समान ही लाभ मिलने चाहिए।

राज्य सरकार का पक्ष

इसके विपरीत, राज्य के वकील ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि भले ही स्कूलों को 100% अनुदान मिलता है, लेकिन वे निजी शिक्षण संस्थान बने रहते हैं और याचिकाकर्ता सरकारी कर्मचारी नहीं हैं।

राज्य ने तर्क दिया कि अनुदान सहायता स्कूलों के “उचित प्रबंधन और सुचारू संचालन” के लिए प्रदान की जाती है और इसका मतलब यह नहीं है कि कर्मचारी स्वतः ही सरकारी पेंशन के हकदार हो जाएंगे। राज्य ने यह भी बताया कि स्कूल शिक्षा विभाग ने पहले ही 7 जनवरी 2009 और 5 फरवरी 2009 को किसी भी प्रावधान के अभाव का हवाला देते हुए ऐसी मांगों को खारिज कर दिया था।

इसके अलावा, राज्य ने तकनीकी आपत्तियां उठाते हुए कहा कि याचिकाकर्ताओं ने अपने नियोक्ताओं (निजी प्रबंधन) को आवश्यक पक्षकार नहीं बनाया है और सेवानिवृत्ति के वर्षों बाद याचिका दायर करने के कारण यह मामला देरी और लचेस (Delay and Laches) से भी बाधित है।

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कोर्ट का विश्लेषण और अवलोकन

न्यायमूर्ति विभू दत्त गुरु ने याचिकाकर्ताओं द्वारा उद्धृत वैधानिक प्रावधानों की जांच की। कोर्ट ने 1978 के अधिनियम और वर्ष 2000 में हुए इसके संशोधन के तहत “शिक्षक” और “वेतन” की परिभाषा का विश्लेषण किया।

हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा:

“उक्त प्रावधान के अवलोकन से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ‘वेतन’ का अर्थ वेतन और अन्य भत्ते हैं और इसमें पेंशन लाभ का कोई शब्द नहीं है।”

संशोधित नियमों के नियम 33 के संबंध में, कोर्ट ने नोट किया कि हालांकि यह सरकारी शैक्षणिक संस्थानों के अनुसार वेतनमान का आदेश देता है, लेकिन यह निर्दिष्ट करता है कि सेवा की शर्तें 1978 के अधिनियम द्वारा शासित होंगी, जिसमें पेंशन का प्रावधान नहीं है।

बेंच ने विक्रम भालचंद्र घोंगड़े बनाम हेडमिस्ट्रेस गर्ल्स हाई स्कूल एंड जूनियर कॉलेज (2025) के सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले से इस मामले को अलग बताया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट के उस मामले में पेंशन की पात्रता संविधान के अनुच्छेद 309 के तहत बनाए गए विशिष्ट नियमों पर आधारित थी, जबकि वर्तमान मामले में ऐसे कोई नियम मौजूद नहीं हैं।

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न्यायमूर्ति गुरु ने कहा:

“यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि उपरोक्त निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि एडेड स्कूलों के शिक्षक सेवा की कुछ शर्तों के हकदार हैं जो सरकारी शिक्षकों पर लागू होती हैं, लेकिन यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 309 के तहत लाए गए नियमों के अनुसार था। जबकि मौजूदा मामलों में ऐसे कोई नियम नहीं हैं जो संविधान के उक्त प्रावधानों में बनाए गए हों।”

सुप्रीम कोर्ट एम्प्लॉइज वेलफेयर एसोसिएशन बनाम भारत संघ (1989) के मामले में स्थापित सिद्धांत पर भरोसा करते हुए, हाईकोर्ट ने दोहराया कि न्यायपालिका विधायिका को कोई विशेष कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकती है।

निर्णय

हाईकोर्ट ने निर्धारित किया कि चूंकि अनुदान सहायता प्रबंधन और फंडिंग के लिए है, इसलिए विशिष्ट नियमों के बिना इसका अर्थ पेंशन में समानता नहीं है।

याचिकाओं को खारिज करते हुए न्यायमूर्ति विभू दत्त गुरु ने निष्कर्ष निकाला:

“मामले के संपूर्ण तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद, इस न्यायालय का यह सुविचारित मत है कि विशेष नियमों के अभाव में, राज्य को एडेड स्कूलों के सेवानिवृत्त शिक्षकों/कर्मचारियों को राज्य सरकार के शिक्षकों/कर्मचारियों के समान पेंशन लाभ देने के लिए नियम बनाने का निर्देश नहीं दिया जा सकता है।”

परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने सभी रिट याचिकाएं खारिज कर दीं।

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