विभाजन से पहले के पटना हाईकोर्ट के फैसले झारखंड राज्य पर भी बाध्यकारी; देरी का हवाला देकर वेतन समानता से नहीं किया जा सकता इनकार: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 की धारा 34(4) के तहत, झारखंड राज्य के गठन से पहले पटना हाईकोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय उत्तराधिकारी राज्य (झारखंड) पर भी बाध्यकारी हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि राज्य अपनी अक्षमता का हवाला देकर कर्मचारियों को उनके legitimate अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता और न ही वित्तीय प्रभावों का तर्क देकर मनमाने भेदभाव को उचित ठहराया जा सकता है।

न्यायमूर्ति जे.के. माहेश्वरी और न्यायमूर्ति विजय बिश्नोई की पीठ ने झारखंड हाईकोर्ट की खंडपीठ (Division Bench) के आदेश को रद्द कर दिया और एकल न्यायाधीश (Single Judge) के फैसले को बहाल किया। कोर्ट ने झारखंड राज्य को निर्देश दिया है कि वह अपीलकर्ता, संजय कुमार उपाध्याय के वेतन मान को समान रूप से स्थित अन्य कर्मचारियों की तरह संशोधित करे।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद 1981 में बिहार राज्य द्वारा शुरू की गई एक भर्ती प्रक्रिया से जुड़ा है। बिहार राज्य अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड ने स्नातक स्तर के गैर-राजपत्रित श्रेणी-III के 16 प्रकार के पदों, जिसमें इंडस्ट्रीज एक्सटेंशन ऑफिसर (IEO) भी शामिल था, के लिए एक संयुक्त प्रतियोगी परीक्षा आयोजित की थी। अपीलकर्ता का चयन हुआ और उन्हें 27 मई 1992 को 1400-2600 रुपये के वेतनमान में नियुक्त किया गया।

शुरुआत में सभी 16 पदों का वेतनमान समान था। हालांकि, चौथे वेतन संशोधन के बाद विसंगति उत्पन्न हुई; 16 में से 10 पदों को उच्च संशोधित वेतनमान दिया गया, जबकि अपीलकर्ता के पद सहित 6 पदों को कम वेतनमान में रखा गया। यह असमानता 5वें वेतन आयोग के बाद भी जारी रही।

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1993 में, पटना हाईकोर्ट ने नागेंद्र सहनी बनाम बिहार राज्य के मामले में माना कि एक ही परीक्षा के माध्यम से भरे गए पदों के लिए अलग-अलग वेतनमान तय करने का कोई उचित आधार नहीं है। हाईकोर्ट ने निर्देश दिया था कि सभी 16 पदों के लिए 1600-2780 रुपये का उच्च वेतनमान दिया जाए।

बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 के बाद अपीलकर्ता की सेवाएं झारखंड राज्य को आवंटित कर दी गईं। उन्होंने उच्च वेतनमान के लिए अभ्यावेदन (representation) दिया, जिसे 13 सितंबर 2004 को खारिज कर दिया गया। इसके बाद अपीलकर्ता ने झारखंड हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

एकल न्यायाधीश ने नागेंद्र सहनी के फैसले पर भरोसा करते हुए 14 दिसंबर 2011 को याचिका स्वीकार कर ली। लेकिन, 30 मार्च 2022 को हाईकोर्ट की खंडपीठ ने इस आदेश को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि लाभ का दावा करने में 20 साल की देरी हुई है और पटना हाईकोर्ट का फैसला केवल “प्रेरक मूल्य” (persuasive value) रखता है।

पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ता के वकील श्री एस.एस. पांडे ने तर्क दिया कि यह मामला पूरी तरह से पटना हाईकोर्ट के नागेंद्र सहनी और अलख कुमार सिन्हा के फैसलों के अंतर्गत आता है। उन्होंने कहा कि अपीलकर्ता समान स्थिति में हैं और वेतन समानता के हकदार हैं। फिटमेंट अपीलीय समिति ने भी समान वेतनमान की सिफारिश की थी। वकील ने जोर देकर कहा कि वेतन समानता का अधिकार एक सतत प्रक्रिया है, इसलिए इसमें देरी का तर्क लागू नहीं होता।

झारखंड राज्य की ओर से वकील श्री कुमार अनुराग सिंह ने खंडपीठ के फैसले का समर्थन किया। उन्होंने दलील दी कि अपीलकर्ता ने अपनी नियुक्ति के दो दशक बाद कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और इतने विलंबित दावों को अनुमति देने से राज्य पर भारी वित्तीय बोझ पड़ेगा। उन्होंने यह भी कहा कि नागेंद्र सहनी का फैसला बिहार के संदर्भ में था और इसे नीतिगत विचारों की जांच किए बिना झारखंड पर स्वचालित रूप से लागू नहीं किया जा सकता।

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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य रूप से दो मुद्दों पर विचार किया: क्या विभाजन से पहले के पटना हाईकोर्ट के फैसले झारखंड राज्य पर बाध्यकारी हैं और क्या देरी के आधार पर याचिका खारिज की जा सकती है।

1. पटना हाईकोर्ट के फैसलों की बाध्यता कोर्ट ने बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 की धारा 34(4) का हवाला देते हुए कहा कि “नियत दिन” (appointed day) से पहले पटना हाईकोर्ट द्वारा दिए गए आदेश का प्रभाव न केवल पटना हाईकोर्ट के आदेश के रूप में होगा, बल्कि इसे “झारखंड हाईकोर्ट द्वारा दिए गए आदेश” के रूप में भी माना जाएगा।

पीठ ने स्पष्ट किया:

नागेंद्र सहनी (उपरोक्त) का फैसला, हालांकि राज्य पुनर्गठन से पहले 22.09.1993 को पटना हाईकोर्ट द्वारा दिया गया था, लेकिन धारा 34(4) के आधार पर इसे झारखंड हाईकोर्ट के बाध्यकारी नजीर (Binding Precedent) के रूप में माना जाना चाहिए।”

कोर्ट ने खंडपीठ की आलोचना की कि उसने इस वैधानिक प्रावधान की अनदेखी की। कोर्ट ने कहा:

“एक बार जब यह स्थापित हो जाता है कि तथ्यात्मक मैट्रिक्स समान है और इसमें शामिल कानूनी मुद्दा भी वही है, तो न्यायिक अनुशासन का सिद्धांत मांग करता है कि समान रूप से स्थित व्यक्तियों को समान राहत दी जाए।”

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2. देरी और विलंभ (Delay and Laches) देरी के मुद्दे पर, कोर्ट ने एम.आर. गुप्ता बनाम भारत संघ के सिद्धांत को दोहराया कि सही वेतन निर्धारण का दावा “निरंतर गलत” (continuing wrong) पर आधारित होता है। जब तक विसंगति बनी रहती है, हर महीने कम वेतन मिलने पर वाद का नया कारण (cause of action) उत्पन्न होता है।

कोर्ट ने राज्य की दलीलों को खारिज करते हुए सख्त टिप्पणी की:

“वित्तीय निहितार्थ और प्रशासनिक सुविधा मनमाने भेदभाव के खिलाफ संवैधानिक गारंटी को दरकिनार नहीं कर सकते। राज्य, एक आदर्श नियोक्ता (Model Employer) होने के नाते, अपने कर्मचारियों को उनके वैध अधिकारों से वंचित करने के लिए अपनी अक्षमता या लापरवाही का बचाव नहीं ले सकता।”

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए 30 मार्च 2022 के खंडपीठ के फैसले को रद्द कर दिया और 14 दिसंबर 2011 के एकल न्यायाधीश के फैसले को बहाल कर दिया। कोर्ट ने माना कि अपीलकर्ता अपनी नियुक्ति की तारीख से वेतन विसंगतियों को दूर करवाने का हकदार है।

प्रतिवादी (राज्य) को निर्देश दिया गया है कि वह तीन महीने के भीतर एकल न्यायाधीश के निर्देशों का पालन करे। साथ ही, अपीलकर्ता को मुकदमे का खर्च (cost of litigation) भी दिया जाएगा।

मामले का विवरण:

  • मामले का नाम: संजय कुमार उपाध्याय बनाम झारखंड राज्य और अन्य
  • केस संख्या: सिविल अपील संख्या 14046/2024
  • कोरम: न्यायमूर्ति जे.के. माहेश्वरी और न्यायमूर्ति विजय बिश्नोई

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