सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में एक भारतीय सेना के कैप्टन की हत्या के मामले में तीन आरोपियों को बरी किए जाने के खिलाफ दायर अपील को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने माना कि अभियोजन पक्ष की कहानी “अत्यधिक असंभव” थी और इसमें “भौतिक विसंगतियां” मौजूद थीं।
जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2012 के फैसले को बरकरार रखा, जिसमें प्रतिवादियों की सजा को रद्द कर दिया गया था। पीठ ने जोर देकर कहा कि अपीलीय अदालत को बरी करने के आदेश में तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब तक कि निचली अदालत द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण “संभव और तर्कसंगत” हो।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला शिकायतकर्ता राज पाल सिंह (अपीलकर्ता) और उनके भाई धर्म पाल (प्रतिवादी संख्या 2) के बीच पारिवारिक संपत्ति विवाद से जुड़ा है। मृतक प्रवीण कुमार, शिकायतकर्ता का बेटा था और भारतीय सेना में कैप्टन के पद पर कार्यरत था।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, 8 जून 1996 को सुबह करीब 8 बजे, जब प्रवीण कुमार एक शादी में शामिल होकर गाजियाबाद स्थित अपने गांव लौटे, तो आरोपी—धर्म पाल, उनके बेटे राजवीर और एक अन्य व्यक्ति सुधीर—ने कथित तौर पर उन्हें घर की पहली मंजिल की ओर घसीटा। अभियोजन का दावा था कि सुधीर के पास देसी कट्टा था। आरोप था कि धर्म पाल के उकसाने पर राजवीर ने धर्म पाल की लाइसेंसी बंदूक से प्रवीण को गोली मार दी, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।
ट्रायल कोर्ट ने 23 नवंबर 2007 के आदेश द्वारा तीनों प्रतिवादियों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 और धारा 34 के तहत दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई। हालांकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 10 अक्टूबर 2012 को इस फैसले को पलट दिया और सभी आरोपियों को बरी कर दिया। इस बरी किए जाने के फैसले से क्षुब्ध होकर शिकायतकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
दलीलें और साक्ष्य
अभियोजन पक्ष ने मुख्य रूप से चश्मदीद गवाहों, जिसमें शिकायतकर्ता (PW-1) और जल सिंह (PW-2) शामिल थे, की गवाही पर भरोसा किया। उन्होंने गवाही दी कि आरोपियों ने मृतक को घसीटा और सीढ़ियों पर खींचा। उन्होंने दावा किया कि धर्म पाल ने मृतक को हॉकी स्टिक से मारा और राजवीर ने गोली चलाई।
दूसरी ओर, आरोपियों ने पुरानी रंजिश के कारण झूठा फंसाए जाने की दलील दी। दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 313 के तहत अपने बयानों में, उन्होंने घटना स्थल पर अपनी उपस्थिति से इनकार किया। धर्म पाल ने कहा कि वह अपने कमरे में थे जब उन्होंने गोली की आवाज सुनी, जबकि राजवीर ने दावा किया कि वह अपने कार्यस्थल पर थे।
कोर्ट की टिप्पणियाँ और विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के तर्कों की बारीकी से समीक्षा की और पाया कि अभियोजन पक्ष की कहानी कई आधारों पर विश्वसनीयता की कमी दर्शाती है।
1. घटना की असंभावना
कोर्ट ने अभियोजन पक्ष द्वारा बताए गए घटनाक्रम की भौतिक असंभवता को नोट किया। कोर्ट ने कहा कि यह “अत्यधिक असंभव” है कि तीन लोग एक युवा सेवारत आर्मी कैप्टन को 14 कदम तक घसीटें और संकरी सीढ़ियों पर ऊपर खींचें। पीठ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि आरोपियों में से एक, धर्म पाल, “65 वर्षीय व्यक्ति थे और कैंसर के मरीज थे, जिनके लिए एक फौजी (प्रवीण) को खींचना और घसीटना संभव नहीं था।”
2. हथियारों की अस्पष्टता
कोर्ट ने पाया कि हथियारों का कब्जा ठोस रूप से स्थापित नहीं किया गया था। सुधीर के पास पिस्तौल और धर्म पाल द्वारा हॉकी स्टिक का उपयोग करने के आरोप पर कोर्ट ने कहा:
“साक्ष्यों से यह बात अनुमानित रूप से भी सामने नहीं आई कि जब आरोपी प्रवीण को सीढ़ियों की ओर घसीट रहे थे, तब उनके हाथों में कोई हथियार, पिस्तौल या बंदूक थी।”
फैसले में यह भी नोट किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में धर्म पाल के पास हॉकी स्टिक होने का कोई जिक्र नहीं था, और साक्ष्य में यह सुझाव नहीं दिया गया कि हथियार “कैसे और कहां से” लाए गए।
3. विरोधाभासी रिपोर्टें
कोर्ट ने ग्राम चौकीदार द्वारा दर्ज कराई गई प्रारंभिक रिपोर्ट और अपीलकर्ता द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत के बीच महत्वपूर्ण विसंगतियों को इंगित किया। चौकीदार की रिपोर्ट में 7 जून 1996 को टकराव का सुझाव दिया गया था, जहां कथित तौर पर धर्म पाल ने आत्मरक्षा में गोली चलाई थी। इसके विपरीत, 12 जून 1996 को दी गई अपीलकर्ता की शिकायत में 8 जून 1996 की एक अलग घटना का वर्णन किया गया और गोली चलाने का आरोप राजवीर पर लगाया गया।
4. बैलिस्टिक साक्ष्य का अभाव
पीठ ने जांच में एक गंभीर चूक पाई। हालांकि धर्म पाल का लाइसेंसी हथियार बरामद किया गया था, लेकिन कोर्ट ने नोट किया:
“यह स्थापित करने के लिए कि घातक चोटें पहुंचाने वाली गोलियां या छर्रे उसी हथियार से चलाए गए थे, उसे विशेषज्ञ बैलिस्टिक जांच के लिए भेजने का कोई प्रयास नहीं किया गया।”
बरी करने पर कानूनी सिद्धांत
अपने कानूनी विश्लेषण में, सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोषता की धारणा (presumption of innocence) के सिद्धांतों को दोहराया। शिवाजी साहेबराव बोबडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1973) के मिसाल का हवाला देते हुए, कोर्ट ने टिप्पणी की कि “साबित हो सकता है” (may be proved) और “साबित होना चाहिए” (must be proved) के बीच का अंतर केवल व्याकरणिक नहीं, बल्कि कानूनी है।
पीठ ने चंद्रप्पा और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (2007) का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि यदि ट्रायल कोर्ट का दृष्टिकोण “संभव और तर्कसंगत” है तो अपीलीय अदालत को बरी करने के आदेश में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कोर्ट ने कहा:
“एक बार जब अदालत आरोपी को बरी कर देती है, तो निर्दोषता की धारणा और मजबूत हो जाती है… बरी करने के फैसले को केवल इसलिए नहीं पलटा जाना चाहिए क्योंकि अपीलीय अदालत को दूसरा दृष्टिकोण संभव लगता है।”
कोर्ट ने जोर दिया कि बरी करने के फैसले को पलटने के लिए “ठोस और बाध्यकारी कारण” (substantial and compelling reasons) मौजूद होने चाहिए।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि हाईकोर्ट ने साक्ष्यों का सही मूल्यांकन किया और प्रतिवादियों को बरी करने में एक तर्कसंगत निष्कर्ष पर पहुंचा। पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट का दृष्टिकोण “किसी भी तरह से अनुचित” नहीं प्रतीत होता।
नतीजतन, कोर्ट ने अपील खारिज कर दी और राजवीर, धर्म पाल और सुधीर को बरी करने के फैसले को बरकरार रखा।
मामले का विवरण:
- वाद शीर्षक: राज पाल सिंह बनाम राजवीर एवं अन्य
- केस संख्या: क्रिमिनल अपील संख्या 809 ऑफ 2014
- साइटेशन: 2025 INSC 1442
- कोरम: जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस एन.वी. अंजारिया

