लोक सेवकों को द्वेषपूर्ण अभियोजन (Malicious Prosecution) से बचाने के एक महत्वपूर्ण फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक के पूर्व मंत्री आर. अशोक के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया है। शीर्ष अदालत ने माना कि भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (ACB) द्वारा की गई जांच स्पष्ट रूप से “राजनीति से प्रेरित” थी और अनिवार्य पूर्व मंजूरी (Prior Sanction) के अभाव में कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं थी।
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि 14 मार्च 2016 के सरकारी आदेश के तहत मंजूरी केवल अभियोजन (Prosecution) के लिए ही नहीं, बल्कि जांच शुरू करने के लिए भी एक अनिवार्य शर्त है। कोर्ट ने टिप्पणी की कि अपीलकर्ता के खिलाफ कार्यवाही “दुर्भावना से ग्रस्त” थी और स्पष्ट कानूनी रोक के बावजूद चलाई गई।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 1998 और 2007 के बीच सरकारी जमीनों के अनधिकृत कब्जे को नियमित करने से जुड़े आरोपों से उत्पन्न हुआ था। उस समय आर. अशोक ‘अनधिकृत कब्जे के नियमितीकरण समिति’ के अध्यक्ष थे। 2012 में लोकायुक्त के पास दर्ज एक शिकायत में आरोप लगाया गया था कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए निर्धारित भूमि को अपीलकर्ता ने अपने परिवार के सदस्यों और अनुयायियों सहित अपात्र व्यक्तियों को आवंटित किया था।
कर्नाटक लोकायुक्त पुलिस ने इस मामले की दो बार जांच की थी:
- नवंबर 2012 में, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक, कर्नाटक लोकायुक्त ने निष्कर्ष निकाला कि आरोप निराधार और गलतफहमी पर आधारित थे।
- इसके बाद एक संशोधित जांच का आदेश दिया गया, और अगस्त 2014 में, पुलिस अधीक्षक, कर्नाटक लोकायुक्त ने एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें कहा गया कि आरोपों की पुष्टि नहीं हो सकी है और शिकायत को बंद कर दिया जाना चाहिए।
हालाँकि, नवंबर 2017 और जनवरी 2018 में, उन्हीं तथ्यों पर भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (ACB) के समक्ष नई शिकायतें दर्ज की गईं। 6 जनवरी 2018 की प्रारंभिक जांच रिपोर्ट के आधार पर, ACB ने 8 जनवरी 2018 को एक FIR (अपराध संख्या 5/2018) दर्ज की।
आर. अशोक ने राजनीतिक प्रतिशोध और प्रक्रियात्मक खामियों का हवाला देते हुए FIR को रद्द करने के लिए कर्नाटक हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। 25 सितंबर 2018 को हाईकोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी, यह मानते हुए कि देरी कार्रवाई को दूषित नहीं करती और सामग्री प्रथम दृष्टया अपराध में सहयोग को स्थापित करती है।
पक्षों की दलीलें
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष, अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी, साजन पूवैया और गौरव अग्रवाल ने तर्क दिया कि:
- शिकायतें राजनीति से प्रेरित थीं और चुनावी वर्ष में रणनीतिक रूप से प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल के सदस्यों द्वारा दर्ज कराई गई थीं।
- लोकायुक्त पहले ही दो बार मामले की जांच कर उसे बंद कर चुके थे।
- कथित घटना के लगभग 11 साल बाद FIR दर्ज करने में अस्पष्ट देरी हुई है।
- यह जांच 14 मार्च 2016 के सरकारी आदेश का उल्लंघन है, जिसके तहत किसी लोक सेवक के खिलाफ जांच से पहले भर्ती प्राधिकारी (Recruitment Authority) से मंजूरी अनिवार्य है।
वहीं, कर्नाटक राज्य की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता पी.बी. सुरेश और हरिन पी. रावल ने दलील दी कि:
- समय बीतने से अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही बाधित नहीं होती (nullum tempus aut locus occurit regi)।
- लोकायुक्त द्वारा पहले की गई क्लोजर रिपोर्ट ACB को प्रारंभिक जांच में संज्ञेय अपराध का पता चलने पर FIR दर्ज करने से नहीं रोकती।
- हाईकोर्ट ने सही कहा था कि मंजूरी की आवश्यकता अभियोजन के चरण में होती है, जांच के चरण में नहीं।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
जांच के लिए मंजूरी की अनिवार्यता
सुप्रीम कोर्ट ने 14 मार्च 2016 के सरकारी आदेश की बारीकी से जांच की, जिसमें कहा गया है कि “भर्ती प्राधिकारी से पूर्व अनुमोदन के बिना किसी लोक सेवक द्वारा अपने आधिकारिक कार्यों के निर्वहन में की गई किसी भी कार्रवाई या सिफारिश के संबंध में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा कोई जांच नहीं की जाएगी।”
कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस दृष्टिकोण को खारिज कर दिया कि मंजूरी केवल अभियोजन स्तर पर प्रासंगिक थी। न्यायमूर्ति करोल ने फैसले में लिखा:
“जाहिर तौर पर, इस अधिसूचना को लाकर, राज्य ने मंजूरी की आवश्यकता के अन्य वैधानिक उदाहरणों से अलग रुख अपनाया है, जहां मंजूरी की आवश्यकता संज्ञान (Cognizance) से पहले होती है, लेकिन यहाँ जांच शुरू होने से पहले ही मंजूरी लेना अनिवार्य है।”
कोर्ट ने कहा कि रिकॉर्ड इस बात पर “पूरी तरह से मौन” है कि कोई मंजूरी ली गई थी या नहीं, इसलिए प्रारंभिक रिपोर्ट और उसके बाद की FIR “एक स्पष्ट कानूनी रोक के बावजूद” अस्तित्व में आई।
राजनीतिक द्वेष और देरी
कोर्ट ने माला फाइड्स (दुर्भावना) के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की। शिकायतों की समयरेखा पर गौर करते हुए कोर्ट ने पाया कि पहली शिकायत संबंधित अवधि के पांच साल बाद दर्ज की गई और बंद कर दी गई; दूसरी तीन साल की चुप्पी के बाद दर्ज की गई; और तीसरी, जिसके कारण FIR हुई, वह घटना के लगभग 11 साल बाद दर्ज की गई।
पीठ ने कहा कि तीनों शिकायतकर्ता एक प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल के सदस्य थे, जो अपीलकर्ता की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने के लिए एक “सुनियोजित प्रयास” को दर्शाता है।
“हालाँकि, उपरोक्त के मद्देनजर, अपीलकर्ता के खिलाफ कार्रवाई प्रथम दृष्टया (ex facie) राजनीति से प्रेरित और द्वेषपूर्ण प्रतीत होती है। यदि देरी को अलग भी रखा जाए, तो भी कानून की नजर में अपीलकर्ता का अभियोजन आगे नहीं बढ़ सकता।”
निष्कर्ष
हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल मामले में प्रतिपादित सिद्धांतों पर भरोसा करते हुए, कोर्ट ने तीन आधारों पर FIR को रद्द कर दिया:
- अनिवार्य मंजूरी का अभाव।
- दुर्भावना (Malice) की उपस्थिति।
- संबंधित भूमि आवंटन को प्रशासनिक और न्यायिक मान्यता/अनुमोदन प्राप्त होना।
कोर्ट ने आवंटन के लाभार्थी सी. संदीप साहू की जुड़ी हुई अपील को भी स्वीकार कर लिया, यह देखते हुए कि 2017 में सहायक आयुक्त द्वारा उनके पक्ष में आवंटन को बरकरार रखा गया था।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलों को स्वीकार करते हुए 25 सितंबर 2018 के हाईकोर्ट के फैसले और ACB द्वारा दर्ज अपराध संख्या 5/2018 की FIR को रद्द कर दिया।
केस डीटेल्स:
- केस टाइटल: आर. अशोक बनाम कर्नाटक राज्य व अन्य (सी. संदीप साहू बनाम कर्नाटक राज्य व अन्य के साथ संबद्ध)
- केस नंबर: क्रिमिनल अपील @ SLP (Crl.) No. 9070 of 2018
- साइटेशन: 2025 INSC 1441
- पीठ: न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली

