संपत्ति पर बैंक लोन की बात छिपाना ‘धोखाधड़ी’ है; सुप्रीम कोर्ट ने विक्रेता को बयाना राशि लौटाने का आदेश दिया

सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि संपत्ति बिक्री के एग्रीमेंट (Sale Agreement) के समय अगर विक्रेता संपत्ति पर चल रहे बैंक लोन (Mortgage) की जानकारी छिपाता है, तो यह ‘धोखाधड़ी’ (Deceit) की श्रेणी में आता है। ऐसी स्थिति में खरीदार अपनी दी गई अग्रिम राशि (Advance Money) वापस पाने का हकदार है।

जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने केरल हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें खरीदार को इसलिए दोषी ठहराया गया था क्योंकि उसने संपत्ति के मूल दस्तावेजों (Original Title Deeds) की जांच नहीं की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विक्रेता का यह आश्वासन देना कि दस्तावेज बैंक लॉकर में हैं, एक “तर्कसंगत और उचित” स्पष्टीकरण है जिस पर खरीदार भरोसा कर सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के उस फैसले को बहाल कर दिया, जिसमें विक्रेता (प्रतिवादी) को अपीलकर्ता (मोइदीनकुट्टी) द्वारा भुगतान की गई अग्रिम राशि वापस करने का आदेश दिया गया था। कोर्ट ने माना कि विक्रेता ने महत्वपूर्ण तथ्यों को छिपाकर अनुबंध का उल्लंघन किया है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद 10 सितंबर, 2008 को निष्पादित एक बिक्री एग्रीमेंट (Exh. A-1) से जुड़ा है। प्रतिवादी अब्राहम जॉर्ज ने 77 एकड़ और 26 सेंट भूमि अपीलकर्ता को 4,45,00,000 रुपये (चार करोड़ पैंतालीस लाख रुपये) में बेचने का समझौता किया था। एग्रीमेंट में स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि संपत्ति सभी प्रकार की देनदारियों और भार (Encumbrances) से मुक्त है।

एग्रीमेंट के तहत, अपीलकर्ता ने दो किस्तों में 50,00,000 रुपये का अग्रिम भुगतान किया। बाद में अपीलकर्ता को पता चला कि प्रतिवादी ने फेडरल बैंक से लोन लेने के लिए संपत्ति को गिरवी (Equitable Mortgage) रखा हुआ था, जिसे एग्रीमेंट के समय छिपाया गया था। जब प्रतिवादी से इस बारे में पूछताछ की गई, तो उसने देरी और असुविधा की भरपाई के लिए बिक्री मूल्य में 35,00,000 रुपये कम करने की सहमति दी। इस आश्वासन पर, अपीलकर्ता ने 5,00,000 रुपये और नकद दिए और शेष राशि के लिए पोस्ट-डेटेड चेक जारी किया।

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हालांकि, जब अपीलकर्ता ने देखा कि प्रतिवादी ने लोन चुकाने और संपत्ति को भार-मुक्त करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो उसने आगे का भुगतान रोक दिया, जिससे चेक बाउंस हो गया। इसके बाद अपीलकर्ता ने ब्याज सहित अपनी 55,00,000 रुपये की अग्रिम राशि वापस पाने के लिए मुकदमा (OS No. 34 of 2010) दायर किया।

प्रतिवादी ने तर्क दिया कि खरीदार को लोन के बारे में शुरू से जानकारी थी। उसने यह भी दावा किया कि खरीदार द्वारा शेष राशि का भुगतान न करने के कारण उसे संपत्ति किसी तीसरे पक्ष को कम कीमत पर बेचनी पड़ी, जिससे उसे 77,50,000 रुपये का नुकसान हुआ।

निचली अदालतों का फैसला

सबऑर्डिनेट जज, मंजेरी (ट्रायल कोर्ट) ने 27 नवंबर, 2013 को अपीलकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाया। कोर्ट ने माना कि प्रतिवादी ने मौजूदा मॉर्गेज को छिपाया था और अपीलकर्ता द्वारा भुगतान रोकना उचित था।

अपील पर, केरल हाईकोर्ट ने 11 मार्च, 2022 को ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया। हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता की जिरह (Cross-examination) के एक बयान पर भरोसा किया, जिसमें कथित तौर पर उसने 25 अगस्त, 2008 (एग्रीमेंट से पहले) को बैंक लोन के बारे में जानने की बात स्वीकार की थी। हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि “कोई भी सामान्य समझदार खरीदार” मूल टाइटल डीड्स की जांच किए बिना इतना बड़ा सौदा नहीं करेगा। मामले को हर्जाने का निर्धारण करने के लिए वापस ट्रायल कोर्ट भेज दिया गया था।

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सुप्रीम कोर्ट में दलीलें

अपीलकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता रघेंथ बसंत ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने 25 अगस्त, 2008 की तारीख के बारे में एक “अस्पष्ट स्वीकारोक्ति” पर गलत भरोसा किया है। उन्होंने बताया कि प्रतिवादी ने खुद स्वीकार किया है कि दोनों पक्ष पहली बार 5 सितंबर, 2008 को मिले थे, इसलिए उससे पहले जानकारी होना असंभव था। उन्होंने यह भी कहा कि प्रतिवादी द्वारा बिक्री मूल्य में 35 लाख रुपये की कमी करना ही उसकी गलती का प्रमाण है।

प्रतिवादी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता वी. चितंबरेश ने तर्क दिया कि जिरह में अपीलकर्ता की स्वीकारोक्ति को उसके खिलाफ पढ़ा जाना चाहिए। उन्होंने हाईकोर्ट के इस दृष्टिकोण का समर्थन किया कि अपीलकर्ता ने एक समझदार खरीदार की तरह व्यवहार नहीं किया।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने केरल हाईकोर्ट के तर्क को खारिज कर दिया और तारीख (25 अगस्त) के बारे में एकमात्र बयान पर निर्भरता को “पूरी तरह से गलत और अनुचित” बताया। कोर्ट ने नोट किया कि प्रतिवादी ने कभी यह दावा नहीं किया कि वह सितंबर 2008 से पहले अपीलकर्ता से मिला था।

तथ्यों को छिपाने पर: कोर्ट ने कहा कि प्रतिवादी का बिक्री मूल्य में 35,00,000 रुपये की कमी करने के लिए सहमत होना उसके “दोषपूर्ण इरादे” (Culpable intent) को दर्शाता है।

जस्टिस मेहता ने फैसले में लिखा:

“यह तर्कसंगत है कि, अपनी पोल खुलने पर, प्रतिवादी-विक्रेता सहमत बिक्री मूल्य में भारी कटौती करने के लिए मजबूर हो गया, जो कि वाद वाली संपत्ति पर भार (Encumbrance) के महत्वपूर्ण तथ्य को छिपाने में उसके दोषी इरादे को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।”

टाइटल डीड्स की जांच पर: शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष से असहमति जताई कि मूल टाइटल डीड्स की जांच न करना खरीदार की लापरवाही थी। कोर्ट ने खरीदार के इस स्पष्टीकरण को स्वीकार किया कि उसने विक्रेता के इस कथन पर भरोसा किया कि दस्तावेज बैंक लॉकर में हैं।

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“जमीन मालिकों के लिए सुरक्षा उद्देश्यों के लिए बैंक लॉकर में मूल टाइटल डीड्स रखना एक सामान्य प्रथा है। इसलिए, एग्रीमेंट करते समय मूल टाइटल डीड्स के निरीक्षण पर जोर न देने के लिए वादी-अपीलकर्ता द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण उचित और न्यायसंगत था।”

सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिवादी के इस व्यवहार पर भी गौर किया कि उसने तथ्यों को छिपाने का आरोप लगाने वाले कानूनी नोटिस का कोई जवाब नहीं दिया था। कोर्ट ने कहा कि खरीदार को पूर्व जानकारी होने का प्रतिवादी का दावा “बाद में सोचा गया एक विचार (Afterthought) मात्र है, जिसे केवल वादी के रिफंड के वैध दावे को विफल करने के लिए गढ़ा गया था।”

नतीजतन, सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार कर ली, केरल हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट के डिक्री को बहाल कर दिया।

केस डिटेल:

  • केस का नाम: मोइदीनकुट्टी बनाम अब्राहम जॉर्ज
  • केस नंबर: सिविल अपील संख्या 5405/2023
  • साइटेशन: 2025 INSC 1428
  • कोरम: जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता

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