जब वादी ने निषेधाज्ञा की राहत मांगी हो तो धारा 34 SRA की बाधा लागू नहीं होती; गैर-निष्पादक को डीड रद्द कराने की आवश्यकता नहीं: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि वादी ने घोषणात्मक डिक्री (Declaratory Decree) के साथ-साथ स्थायी और अनिवार्य निषेधाज्ञा (Injunction) की आनुषांगिक राहत भी मांगी है, तो विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (Specific Relief Act – SRA), 1963 की धारा 34 का परंतु (Proviso) वाद को बाधित नहीं करता है।

जस्टिस पुरुषेंद्र कुमार कौरव की पीठ ने यह महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए प्रतिवादी (Defendant) द्वारा सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश VII नियम 11 के तहत दायर वाद पत्र (Plaint) को खारिज करने की अर्जी को नामंजूर कर दिया। कोर्ट ने यह भी दोहराया कि यदि कोई व्यक्ति किसी दस्तावेज का निष्पादक (Executant) नहीं है, तो उसे उस दस्तावेज को रद्द (Cancellation) कराने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि केवल उसे अमान्य घोषित करवाना ही पर्याप्त है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला डॉ. सरोज बहल (वादी) द्वारा दायर एक दीवानी मुकदमे से संबंधित है, जो मॉडल टाउन, दिल्ली स्थित संपत्ति संख्या K-1/41 को लेकर है। वादी ने 23 अक्टूबर 1982 के एक रिलीज डीड (Release Deed), एक कथित जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी (GPA), और 16 अप्रैल 2014 तथा 3 फरवरी 1977 की वसीयतों को शून्य और अमान्य घोषित करने की मांग की थी।

वादी का आरोप था कि उसने कभी भी अपनी दिवंगत मां के पक्ष में कोई रिलीज डीड निष्पादित नहीं की थी और उक्त दस्तावेज जाली और मनगढ़ंत हैं। घोषणा के अलावा, वादी ने प्रतिवादियों को संपत्ति में किसी भी तीसरे पक्ष का हित सृजित करने से रोकने के लिए स्थायी और अनिवार्य निषेधाज्ञा (Injunction) की भी मांग की थी।

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प्रतिवादी संख्या 2 ने वाद पत्र को खारिज करने के लिए एक आवेदन (I.A. 38413/2024) दायर किया, जिसमें SRA की धारा 34, कोर्ट फीस और सीमा अवधि (Limitation) का हवाला दिया गया था।

पक्षों की दलीलें

प्रतिवादी संख्या 2 (आवेदक): आवेदक ने तर्क दिया कि यह मुकदमा SRA की धारा 34 के परंतु (proviso) द्वारा बाधित है क्योंकि वादी ने ‘कब्जे’ (Possession) की राहत नहीं मांगी है। इसके लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के टीवी रामकृष्ण रेड्डी बनाम एम. मल्लप्पा (2021) के फैसले का हवाला दिया। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि वादी को 1982 के रिलीज डीड को रद्द (Cancellation) करने की मांग करनी चाहिए थी और उस पर मूल्यानुसार (ad valorem) कोर्ट फीस का भुगतान करना चाहिए था। प्रतिवादी ने यह भी कहा कि वादी का मामले में कोई व्यक्तिगत हित नहीं है और मुकदमा सीमा अवधि (Limitation) से बाधित है।

वादी: वादी ने दलील दी कि वह संपत्ति की सह-मालिक (Co-owner) है और संयुक्त कब्जे में है, क्योंकि उसका सामान संपत्ति में मौजूद है। उसने जोर देकर कहा कि वह कथित रिलीज डीड की पक्षकार नहीं है और उसके हस्ताक्षर जाली हैं, इसलिए वह एक ‘गैर-निष्पादक’ (Non-executant) है।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

विशिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 34 पर: कोर्ट ने प्रतिवादी के इस तर्क को खारिज कर दिया कि वाद धारा 34 के तहत बाधित है। जस्टिस कौरव ने कहा कि धारा 34 के परंतु का उद्देश्य मुकदमों की बहुलता को रोकना है। कोर्ट ने अक्काम्मा बनाम वेमावती (2021) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यदि वादी ने वाद में कोई आनुषांगिक या आगे की राहत (Further relief) मांगी है, तो धारा 34 की बाधा लागू नहीं होती।

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चूंकि वादी ने स्पष्ट रूप से स्थायी और अनिवार्य निषेधाज्ञा की मांग की थी, कोर्ट ने कहा:

“अक्काम्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सीधे लागू करने पर, धारा 34 के परंतु के आकर्षित होने से संबंधित तर्क खारिज किए जाने योग्य है।”

कोर्ट ने वादी की इस दलील का भी संज्ञान लिया कि वह संपत्ति की सह-मालिक है और संयुक्त कब्जे में है।

रद्दीकरण बनाम घोषणा और कोर्ट फीस: कोर्ट फीस और रद्दीकरण की मांग के मुद्दे पर, हाईकोर्ट ने सुहृद सिंह बनाम रणधीर सिंह (2010) के फैसले पर भरोसा जताया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि दस्तावेज के ‘निष्पादक’ और ‘गैर-निष्पादक’ के लिए कानूनी उपचार अलग-अलग हैं।

कोर्ट ने पाया कि वादी ने साफ तौर पर कहा है कि रिलीज डीड पर उसके हस्ताक्षर जाली हैं और वह उस दस्तावेज की पक्षकार नहीं है। कोर्ट ने कहा:

“यह तय कानून है कि रद्दीकरण (Cancellation) केवल दस्तावेजों के निष्पादकों द्वारा मांगा जाना चाहिए, न कि उन पक्षों द्वारा जो ऐसे विलेखों/करारों के पक्षकार नहीं हैं… इस स्थिति में, वादी द्वारा मांगी गई घोषणात्मक राहत ही उचित कानूनी उपाय है।”

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नतीजतन, कोर्ट ने माना कि वादी द्वारा भुगतान की गई निश्चित कोर्ट फीस सही है।

अन्य मुद्दे: SRA की धारा 41J (निजी हित न होने पर निषेधाज्ञा नहीं) और सीमा अवधि (Limitation) के तर्कों पर कोर्ट ने कहा कि ये मामले साक्ष्य (Evidence) का विषय हैं। वादी का सह-मालिक होने का दावा और धोखाधड़ी की जानकारी मिलने की तारीख, ये ‘विचारणीय मुद्दे’ (Triable issues) हैं जिनका फैसला मुकदमे की सुनवाई के दौरान ही हो सकता है।

निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने पाया कि आदेश VII नियम 11 CPC के तहत दायर आवेदन में कोई दम नहीं है और उसे खारिज कर दिया। मामले को 24 फरवरी, 2026 को आगे की कार्यवाही के लिए सूचीबद्ध किया गया है।

केस विवरण:

केस टाइटल: डॉ. सरोज बहल बनाम श्रीमती सुषमा बत्रा और अन्य

केस नंबर: CS(OS) 653/2023 और I.As.38414-16/2024

कोरम: जस्टिस पुरुषेंद्र कुमार कौरव

फैसले की तारीख: 12.12.2025

वादी के वकील: श्री गुरप्रीत सिंह और श्री भवनीत सिंह, एडवोकेट्स।

प्रतिवादियों के वकील: सुश्री गीता लूथरा, सीनियर एडवोकेट साथ में श्री अनित के. मौर्य और श्री अनुज सिंह (D1 और D2 के लिए); श्री शशि कुमार साथ में श्री अंशुल गुप्ता (D3 के लिए); श्री प्रीत पाल सिंह साथ में सुश्री तनुप्रीत कौर (D4 और D5 के लिए)।

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