सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि लंबित (सब-ज्यूडिस) मामलों पर “आधी-अधूरी सच्चाई और तथ्यहीन टिप्पणियाँ” सार्वजनिक धारणा को प्रभावित करती हैं। अदालत ने स्पष्ट किया कि वह प्रचार या किसी तरह का नैरेटिव गढ़ने के उद्देश्य से की गई रिपोर्टिंग से “पूरी तरह अप्रभावित” है।
ये टिप्पणियाँ उन व्यक्तियों के प्रत्यावर्तन से जुड़े मामले की सुनवाई के दौरान की गईं, जिन्हें कथित रूप से बिना उचित प्रक्रिया का पालन किए बांग्लादेश भेज दिया गया था। इस मामले में केंद्र सरकार ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के उस आदेश के खिलाफ अपील दायर की है, जिसमें ऐसे व्यक्तियों को वापस लाने का निर्देश दिया गया था।
मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत तथा न्यायमूर्ति जॉयमल्य बागची और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की पीठ ने केंद्र की अपील पर सुनवाई के लिए 6 जनवरी की तारीख तय की।
सुनवाई के दौरान अदालत को बताया गया कि सुनाली खातून, जो गर्भवती हैं, अपने आठ वर्षीय बेटे के साथ भारत लौट आई हैं और इस समय पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में अपने पिता के घर पर चिकित्सकीय देखभाल प्राप्त कर रही हैं।
केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस मुद्दे पर एक अंग्रेज़ी अख़बार में प्रकाशित रिपोर्ट पर कड़ी आपत्ति जताई। उन्होंने रिपोर्टिंग को “टैब्लॉइड जैसी” बताते हुए कहा कि मामले के परिणाम को प्रभावित करने के लिए एक खास तरह का नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने कहा कि उन्हें पूरा विश्वास है कि पीठ ऐसी रिपोर्टों से प्रभावित नहीं होगी, लेकिन इससे किसी खास एजेंडे के तहत कहानी गढ़ने के इरादे पर संदेह पैदा होता है।
“मेरा भरोसा डगमगा गया,” मेहता ने कहा।
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए न्यायमूर्ति जॉयमल्य बागची ने कहा, “हम प्रचार और छद्म-प्रचार के हथकंडों से पूरी तरह अप्रभावित हैं। नैरेटिव किसी व्यक्ति के जीवन को प्रभावित नहीं करने चाहिए।”
मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने सॉलिसिटर जनरल को ऐसी रिपोर्टिंग को “नज़रअंदाज़ करने” की सलाह दी, लेकिन साथ ही कहा, “आदर्श रूप से लंबित मामलों पर तथ्यहीन और अधूरी टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए।”
मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “समस्या यह है कि आधी-अधूरी और तोड़ी-मरोड़ी गई जानकारी के साथ तथ्यहीन राय पेश की जा रही है।” उन्होंने स्पष्ट किया कि किसी मामले के सूचीबद्ध होने की खबर देना स्वीकार्य है, लेकिन कहा, “अगर आप अपनी राय थोपते हैं, तो वही समस्या है। आधी-अधूरी सच्चाई और गलत जानकारी वाली राय सार्वजनिक धारणा को प्रभावित करती है।”
पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में मीडिया की भूमिका का हवाला देते हुए कहा कि आव्रजन (इमिग्रेशन) एक “वैश्विक विमर्श” का विषय है।
उन्होंने कहा, “अमेरिका और इंग्लैंड में लोग इमिग्रेशन पर राय लिखते हैं। जब तक आप किसी पर मंशा नहीं थोपते, तब तक यह कोई अपराध नहीं है।”
सुनवाई की शुरुआत में वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने एक अन्य निर्वासित महिला स्वीटी बीबी की दुर्दशा अदालत के सामने रखी, जो अपने पति और दो बच्चों के साथ अब भी बांग्लादेश में फंसी हुई हैं। हेगड़े ने उनके भारतीय नागरिक होने के दस्तावेज़ पेश करने की पेशकश की और मानवीय आधार पर मामले पर विचार करने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा, “सीमा के उस पार भारतीयों के लिए हालात बहुत कठिन हैं।”
सॉलिसिटर जनरल ने अदालत को आश्वस्त किया कि इस मामले पर विचार किया जाएगा, हालांकि सत्यापन में कुछ समय लग सकता है। पीठ ने कहा कि दस्तावेज़ों के सत्यापन के बाद, समयबद्ध तरीके से उनकी वापसी की प्रक्रिया पर विचार किया जा सकता है।
यह मामला उन परिवारों से जुड़ा है, जो पिछले करीब दो दशकों से दिल्ली के रोहिणी इलाके में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम कर रहे थे। उन्हें 18 जून को अवैध बांग्लादेशी प्रवासी होने के संदेह में हिरासत में लिया गया और 27 जून को बांग्लादेश भेज दिया गया था।
अपने विवादित आदेश में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा था कि यह निर्वासन केंद्रीय गृह मंत्रालय के अपने ही प्रोटोकॉल का उल्लंघन है, जिसमें निर्वासन से पहले राज्य सरकार द्वारा जांच अनिवार्य है। उच्च न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की थी कि बंदियों को निर्वासित करने में दिखाई गई “अतिउत्सुकता” ने “न्यायिक माहौल” को प्रभावित किया है। सुनवाई के दौरान कपिल सिब्बल ने इस बिंदु को दोहराते हुए कहा, “केंद्र सरकार ने उन्हें निर्वासित करने से पहले 30 दिनों तक कोई जांच नहीं की।”

