‘सप्तपदी’ के बिना आर्य समाज का विवाह प्रमाण पत्र शादी का पर्याप्त सबूत नहीं; विवाह केवल ‘नाचना-गाना’ नहीं: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि ‘सप्तपदी’ (सात फेरे) की अनिवार्य रस्म साबित नहीं होती है, तो केवल आर्य समाज मंदिर द्वारा जारी विवाह प्रमाण पत्र को वैध हिंदू विवाह का निर्णायक सबूत नहीं माना जा सकता।

जस्टिस आनंद पाठक और जस्टिस हिरदेश की युगल पीठ (Division Bench) ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें वादी (plaintiff) की उस याचिका को खारिज कर दिया गया था, जिसमें उसने प्रतिवादी (respondent) को अपनी वैध पत्नी मानने से इनकार किया था। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत, विवाह की वैधता के लिए रीति-रिवाजों और रस्मों का पालन अनिवार्य है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील मूल वादी के कानूनी प्रतिनिधि (पुत्र) द्वारा दायर की गई थी। 75 वर्षीय मूल वादी, जो एक सेवानिवृत्त कंपनी कमांडर थे, ने ग्वालियर की फैमिली कोर्ट में एक वाद दायर कर यह घोषणा करने की मांग की थी कि प्रतिवादी उनकी कानूनी रूप से विवाहित पत्नी नहीं हैं और उन्होंने स्थायी निषेधाज्ञा (permanent injunction) की भी मांग की थी।

वादी का आरोप था कि अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद, उन्होंने अपने बेटे के लिए वधू की तलाश में एक विज्ञापन दिया था। उनका दावा था कि प्रतिवादी ने उनसे संपर्क किया और उनके अकेलेपन का फायदा उठाते हुए उन्हें ब्लैकमेल किया और एक फर्जी शादी का दावा किया। वादी ने तर्क दिया कि प्रतिवादी ने आर्य समाज मंदिर, लोहा मंडी, ग्वालियर से 26 मार्च, 2012 का एक “फर्जी और जाली” विवाह प्रमाण पत्र प्राप्त किया था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि प्रतिवादी का विवाह पहले से ही किसी अन्य व्यक्ति के साथ अस्तित्व में था।

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इसके विपरीत, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि उन्होंने 2008 में अपने पूर्व पति से तलाक के बाद वादी से आर्य समाज की रीतियों के अनुसार कानूनी रूप से विवाह किया था। उन्होंने वादी की पत्नी होने के सबूत के तौर पर विवाह प्रमाण पत्र और नगर निगम के पंजीकरण पर भरोसा जताया।

प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट, ग्वालियर ने 2 सितंबर, 2024 को वादी के मुकदमे को खारिज कर दिया था। निचली अदालत ने माना था कि आर्य समाज के प्रमाण पत्र, तस्वीरों और गवाहों के आधार पर विवाह साबित होता है। इस फैसले को वादी के कानूनी वारिस ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।

पक्षकारों की दलीलें

अपीलार्थी की ओर से उपस्थित वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश दीक्षित ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट यह निर्धारित करने में विफल रहा कि विवाह कानून के अनुसार संपन्न हुआ था या नहीं। उन्होंने कहा कि प्रतिवादी या उनके गवाहों के बयानों में हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के तहत अनिवार्य रस्म ‘सप्तपदी’ के प्रदर्शन के बारे में “एक शब्द भी नहीं” कहा गया है।

अपीलार्थी ने सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले डॉली रानी बनाम मनीष कुमार चंचल (2025) का हवाला देते हुए तर्क दिया कि केवल विवाह प्रमाण पत्र एक वैध विवाह को साबित नहीं करता है; विवाह के अनुष्ठानों के तथ्य को स्वतंत्र रूप से साबित किया जाना चाहिए।

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प्रतिवादी की ओर से उपस्थित अधिवक्ता मदन मोहन श्रीवास्तव ने तर्क दिया कि विवाह 26 मार्च, 2012 को वैदिक रीति-रिवाजों और सप्तपदी के साथ सख्ती से संपन्न हुआ था। उन्होंने कहा कि आर्य समाज संस्था विधिवत मान्यता प्राप्त है और विवाह प्रमाण पत्र व नगर निगम पंजीकरण सहित प्रस्तुत दस्तावेज स्पष्ट रूप से विवाह को स्थापित करते हैं।

हाईकोर्ट का विश्लेषण

हाईकोर्ट ने अपना ध्यान इस मुख्य मुद्दे पर केंद्रित किया कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के तहत विवाह वैध रूप से संपन्न हुआ था।

पीठ ने डॉली रानी बनाम मनीष कुमार चंचल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विस्तृत उल्लेख करते हुए दोहराया कि “संपन्न” (solemnised) का अर्थ है उचित रूप में समारोहों के साथ विवाह करना। कोर्ट ने कहा:

“जब तक विवाह उचित समारोहों और नियत रूप में नहीं किया जाता, तब तक इसे ‘संपन्न’ नहीं कहा जा सकता… जहां एक हिंदू विवाह लागू रीति-रिवाजों या समारोहों (जैसे सप्तपदी) के अनुसार नहीं किया जाता है, वहां विवाह को हिंदू विवाह के रूप में नहीं माना जाएगा।”

कोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों की जांच की और पाया कि प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत गवाहों—जिनमें पुजारी और आर्य समाज के प्रधान शामिल थे—ने अपनी गवाही में कभी यह नहीं कहा कि ‘सप्तपदी’ की रस्म की गई थी। इसके अलावा, कोर्ट ने देखा:

“ट्रायल कोर्ट के समक्ष प्रतिवादी की ओर से प्रस्तुत तस्वीरों में कोई पवित्र अग्नि, फेरे या सप्तपदी नहीं दिखाई देती है। ऐसा कोई सबूत नहीं है कि दोनों पक्ष आर्य समाज के अनुयायी थे या आर्य विवाह मान्यता अधिनियम के तहत निर्धारित अनुष्ठानों का पालन किया गया था।”

विवाह की पवित्रता पर कड़ी टिप्पणी करते हुए, पीठ ने कहा:

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“हिंदू धर्म में, विवाह एक संस्कार है और इसका एक पवित्र चरित्र है। विवाह केवल ‘नाचने-गाने’ या ‘खाने-पीने’ का कार्यक्रम नहीं है। हिंदू विवाह वैदिक प्रक्रिया के अनुसार आयोजित किया जाता है… वैदिक प्रक्रिया के अनुसार संपन्न कोई भी हिंदू विवाह एक वैध विवाह माना जाता है यदि वह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 की आवश्यकताओं को पूरा करता है।”

कोर्ट ने माना कि अनिवार्य रस्मों के प्रमाण के अभाव में केवल आर्य समाज या नगर निगम द्वारा प्रमाण पत्र जारी करना पति-पत्नी का दर्जा प्रदान नहीं कर सकता।

फैसला

हाईकोर्ट ने प्रथम अपील को स्वीकार करते हुए फैमिली कोर्ट, ग्वालियर द्वारा पारित 2 सितंबर, 2024 के निर्णय और डिक्री को रद्द कर दिया।

कोर्ट ने अपीलार्थी के पक्ष में फैसला सुनाते हुए यह घोषणा की कि प्रतिवादी मूल वादी की कानूनी रूप से विवाहित पत्नी नहीं हैं। कोर्ट ने माना कि आर्य समाज का प्रमाण पत्र और संबंधित पंजीकरण प्रविष्टि किसी वैध विवाह को स्थापित नहीं करते हैं।

इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने स्थायी निषेधाज्ञा (Permanent Injunction) की डिक्री जारी करते हुए प्रतिवादी को वादी (उनके कानूनी वारिस द्वारा प्रतिनिधित्व) के निजी जीवन में हस्तक्षेप करने या उनके खिलाफ किसी भी वैवाहिक अधिकार का दावा करने से रोक दिया।

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