त्रिपुरा हाईकोर्ट ने एक नाबालिग से रेप के मामले में 20 साल के सश्रम कारावास की सजा पाए व्यक्ति को बरी कर दिया है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष का मामला “घातक खामियों” (Fatal Infirmities) और महत्वपूर्ण विरोधाभासों से भरा हुआ है। जस्टिस टी. अमरनाथ गौड़ और जस्टिस एस. दत्त पुरकायस्थ की डिवीजन बेंच ने अपीलकर्ता को दोषमुक्त करते हुए स्पष्ट किया कि जब घटनाक्रम में अस्वाभाविकताएं हों, तो पीड़िता का अकेले और बिना किसी पुष्टि (Corroboration) वाला बयान सजा बरकरार रखने के लिए पर्याप्त नहीं है।
मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले की शुरुआत 19 सितंबर, 2020 को पीड़िता की मां (PW-1) द्वारा दर्ज कराई गई एक एफआईआर से हुई थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि 17 सितंबर, 2020 को अपीलकर्ता उनकी बेटी को जबरन अपने घर ले गया, उसे एक कमरे में ले जाकर उसके साथ दुष्कर्म किया। विशालगढ़ महिला पुलिस स्टेशन ने आईपीसी की धारा 376A/376B और पॉक्सो (POCSO) एक्ट की धारा 4 के तहत मामला दर्ज किया था।
जांच पूरी होने के बाद चार्जशीट दाखिल की गई और आईपीसी की धारा 376AB/506 और पॉक्सो एक्ट की धारा 6 के तहत आरोप तय किए गए। अपीलकर्ता ने खुद को निर्दोष बताया। निचली अदालत (Trial Court) ने 13 गवाहों का परीक्षण करने के बाद अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 376AB के तहत दोषी ठहराया और 2,00,000 रुपये के जुर्माने के साथ 20 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। इसके अलावा, उसे आईपीसी की धारा 506 के तहत भी दोषी ठहराया गया और तीन साल की सजा दी गई।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता का पक्ष अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष का पूरा मामला “महत्वपूर्ण विरोधाभासों और विसंगतियों” से भरा हुआ है। बचाव पक्ष ने घटना की तारीख और घटनाक्रम को लेकर गवाहों के बयानों में मौजूद अंतर को प्रमुखता से उठाया:
- PW-1 (मां): इनका कहना था कि घटना 17 सितंबर, 2020 को हुई और वे अगली सुबह आरोपी के घर गए थे।
- PW-2 (पीड़िता): अपनी मेडिकल जांच के दौरान पीड़िता ने बताया कि घटना 8 सितंबर, 2020 को हुई थी। वहीं, कोर्ट में उसने दावा किया कि वे घटना वाली रात ही आरोपी के घर गए थे।
- PW-3 (पिता): इनका कहना था कि वे घटना के 2-3 दिन बाद आरोपी के घर गए थे।
बचाव पक्ष ने मेडिकल सबूतों पर भी सवाल उठाए। तर्क दिया गया कि पीड़िता (137 सेमी) और आरोपी (5 फीट 7 इंच) की लंबाई में अंतर को देखते हुए खड़े होकर दुष्कर्म करने का आरोप “व्यावहारिक रूप से असंभव” (Practically Improbable) है। इसके अलावा, यह भी कहा गया कि घटना कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान की बताई गई है जब परिवार के सभी सदस्य घर के अंदर थे, फिर भी उसी घर में रहने वाले अन्य स्वाभाविक गवाहों (जैसे पीड़िता के भाई या दादी) से पूछताछ नहीं की गई। बचाव पक्ष ने दोनों परिवारों के बीच पुराने जमीनी विवाद का हवाला देते हुए झूठा फंसाने की मंशा (Motive) की ओर भी इशारा किया।
अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों जीएनसीटी ऑफ दिल्ली बनाम विपिन@लल्ला (2025) और संतोष प्रसाद @ संतोष कुमार बनाम बिहार राज्य (2020) का हवाला देते हुए तर्क दिया कि यदि अभियोजन पक्ष की गवाह का बयान विश्वास पैदा नहीं करता है, तो केवल उसके आधार पर सजा नहीं दी जा सकती।
राज्य पक्ष (Respondent) की दलीलें लोक अभियोजक (Public Prosecutor) ने तर्क दिया कि पीड़िता का बयान अडिग है और सीआरपीसी की धारा 161 और 164 के तहत दिए गए उसके बयानों में समानता है। उन्होंने कहा कि माता-पिता के बयानों में जो मामूली विरोधाभास हैं, वे उनकी निरक्षरता के कारण हैं। राज्य ने बीरबल नाथ बनाम राजस्थान राज्य (2023) और फूल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़िता के बयान पर पुष्टि की मांग करना “जले पर नमक छिड़कने” जैसा होगा।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और अवलोकन
त्रिपुरा हाईकोर्ट ने पूरे सबूतों का “सावधानीपूर्वक और व्यापक मूल्यांकन” करने के बाद पाया कि मामले में ऐसी विसंगतियां हैं जो अभियोजन पक्ष की विश्वसनीयता को कमजोर करती हैं।
- महत्वपूर्ण विरोधाभास (Material Contradictions): कोर्ट ने नोट किया कि मां (PW-1), पीड़िता (PW-2) और पिता (PW-3) द्वारा बताई गई समय-सीमा (Timeline) में भारी अंतर है। फैसले में कहा गया: “कथित घटना के बाद के घटनाक्रम में असंगति है… जो अभियोजन पक्ष के मामले की विश्वसनीयता को कमजोर करती है।”
- मेडिकल सबूत: बेंच ने पाया कि मेडिकल राय के अनुसार चोट लगभग 11 दिन पुरानी थी, जो कथित अपराध की तारीख (17 सितंबर) और मेडिकल जांच की तारीख (19 सितंबर) से मेल नहीं खाती। कोर्ट ने कहा: “मेडिकल साक्ष्य अभियोजन पक्ष की कहानी की पुष्टि करने में विफल रहे हैं… जिससे समय-सीमा को लेकर संदेह पैदा होता है।”
- गवाहों की जांच न होना और रंजिश: कोर्ट ने इस बात को गंभीरता से लिया कि अभियोजन पक्ष ने पीड़िता के भाई और दादी जैसे स्वाभाविक गवाहों का परीक्षण नहीं किया। कोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि संपत्ति विवाद को लेकर पुरानी दुश्मनी झूठा फंसाने का एक “संभावित कारण” (Plausible Motive) हो सकती है।
फैसला
डिवीजन बेंच ने यह निष्कर्ष निकाला कि बयानों में विरोधाभास, एकमात्र गवाह की विश्वसनीयता में कमी, मेडिकल सबूतों का अभाव और रंजिश की संभावना मिलकर मामले में उचित संदेह (Reasonable Doubt) पैदा करते हैं।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “समग्र साक्ष्यों के सावधानीपूर्वक और व्यापक मूल्यांकन पर, यह न्यायालय पाता है कि अभियोजन पक्ष का मामला घातक खामियों (Fatal Infirmities) से ग्रस्त है, जिससे सजा सुरक्षित नहीं है। PW-1, PW-2 और PW-3 की गवाही में विसंगतियां, और कहानी में अस्वाभाविकताएं, पीड़िता के अकेले और अपुष्ट बयान को सजा बरकरार रखने के लिए अपर्याप्त बनाती हैं।”
नतीजतन, त्रिपुरा हाईकोर्ट ने अपील स्वीकार कर ली, सजा के आदेश को रद्द कर दिया और अपीलकर्ता को सभी आरोपों से बरी करते हुए उसकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया।

