क्या ऑफिस के बाद बॉस का फोन उठाना जरूरी है? लोकसभा में पेश हुआ ‘राइट टू डिस्कनेक्ट’ बिल

भारत में वर्क-लाइफ बैलेंस और कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चल रही बहस के बीच, संसद में एक महत्वपूर्ण विधेयक पेश किया गया है। यह विधेयक कर्मचारियों को ऑफिस के काम के घंटों के बाद वर्क कॉल और ईमेल को नजरअंदाज करने का कानूनी अधिकार देने की वकालत करता है।

शुक्रवार को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) की सांसद सुप्रिया सुले ने लोकसभा में ‘राइट टू डिस्कनेक्ट बिल, 2025’ (Right to Disconnect Bill, 2025) पेश किया। इस निजी विधेयक में एक ‘कर्मचारी कल्याण प्राधिकरण’ (Employees’ Welfare Authority) की स्थापना का प्रस्ताव है। यदि यह कानून बन जाता है, तो कर्मचारियों को अधिकार होगा कि वे अपनी शिफ्ट खत्म होने के बाद या छुट्टियों के दौरान काम से संबंधित कॉल या मैसेज का जवाब न दें, और इसके लिए उन पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की जा सकेगी।

‘हसल कल्चर’ पर छिड़ी बहस के बीच आया बिल

इस बिल का पेश होना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हाल ही में पुणे में एक EY कर्मचारी की मौत के बाद कॉरपोरेट जगत में अत्यधिक काम के दबाव (Overwork) को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर आक्रोश देखने को मिला था।

जहां यह बिल कर्मचारियों को डिजिटल दुनिया में हमेशा ‘ऑनलाइन’ रहने के दबाव से बचाने की बात करता है, वहीं यह कुछ दिग्गज उद्योगपतियों की राय से बिल्कुल विपरीत है। इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति और एलएंडटी के सीईओ एस.एन. सुब्रमण्यन जैसे दिग्गजों ने हाल ही में देश की आर्थिक प्रगति के लिए 70 से 90 घंटे के वर्क-वीक (Work week) की वकालत की थी। नारायण मूर्ति ने तो चीन के ‘9-9-6’ मॉडल का भी उदाहरण दिया था।

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यह प्रस्तावित कानून वैश्विक रुझानों के अनुरूप है, विशेष रूप से ऑस्ट्रेलिया की तर्ज पर, जहां पिछले साल कर्मचारियों के लिए इसी तरह के ‘राइट टू डिस्कनेक्ट’ नियम लागू किए गए थे।

आंकड़ों में काम का दबाव: क्या कहते हैं सर्वे?

भारतीय कार्यबल (Workforce) में इस तरह के कानून की मांग क्यों उठ रही है, इसे आंकड़ों से समझा जा सकता है। जॉब प्लेटफॉर्म Indeed द्वारा पिछले साल किए गए एक सर्वे में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए:

  • 88% कर्मचारियों ने माना कि उनसे काम के घंटों के बाद भी नियमित रूप से संपर्क किया जाता है।
  • 85% ने कहा कि बीमारी की छुट्टी (Sick Leave) या छुट्टियों के दौरान भी उन्हें काम के मैसेज आते हैं।
  • 79% कर्मचारियों को डर है कि अगर वे ऑफ-आवर्स में जवाब नहीं देंगे, तो उनके करियर या प्रमोशन पर बुरा असर पड़ेगा।
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हालांकि, नियोक्ताओं (Employers) की सोच में भी बदलाव दिख रहा है। भले ही 66% नियोक्ताओं को लगता है कि हमेशा उपलब्ध न रहने से प्रोडक्टिविटी गिर सकती है, लेकिन 81% इस बात से चिंतित हैं कि वर्क-लाइफ बैलेंस न होने से वे अच्छे टैलेंट को खो सकते हैं।

जनरेशन गैप: बूमर्स बनाम जेन-जी

सर्वे में पीढ़ियों के बीच का अंतर भी साफ नजर आया। ‘बेबी बूमर्स’ (1946-1964 के बीच जन्मे) में से 88% को ऑफिस के बाद कॉल आने पर लगता है कि उनकी अहमियत है। वहीं, ‘जेन-जी’ (Gen Z – 1997-2012 के बीच जन्मे) के कर्मचारी अपनी निजी सीमाओं को लेकर अधिक गंभीर हैं। 63% जेन-जी कर्मचारियों ने कहा कि अगर उनके ‘ऑफलाइन’ रहने के अधिकार का सम्मान नहीं किया गया, तो वे नौकरी छोड़ने पर विचार कर सकते हैं।

संसद में पेश हुए अन्य महत्वपूर्ण निजी विधेयक

शुक्रवार को ‘राइट टू डिस्कनेक्ट’ बिल के अलावा, स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े कई अन्य महत्वपूर्ण प्राइवेट मेंबर बिल भी पेश किए गए:

  1. मेंस्ट्रुअल लीव (मासिक धर्म अवकाश): कांग्रेस सांसद कादियाम काव्या ने ‘मेंस्ट्रुअल बेनिफिट्स बिल, 2024’ पेश किया, जिसमें कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए सुविधाओं की मांग की गई है। वहीं, लोजपा (LJP) सांसद शांभवी चौधरी ने कामकाजी महिलाओं और छात्राओं के लिए ‘पेड मेंस्ट्रुअल लीव’ (सवैतनिक अवकाश) का बिल पेश किया।
  2. नीट (NEET) से छूट: कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने तमिलनाडु को मेडिकल प्रवेश परीक्षा ‘नीट’ से छूट दिलाने के लिए एक विधेयक पेश किया। यह कदम तमिलनाडु सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के बाद आया है, जब राष्ट्रपति ने राज्य के इसी तरह के एक कानून को मंजूरी देने से इनकार कर दिया था।
  3. मृत्युदंड और पत्रकारों की सुरक्षा: डीएमके सांसद कनिमोझी करुणानिधि ने मृत्युदंड को समाप्त करने के लिए बिल पेश किया। इसके अलावा, निर्दलीय सांसद विशालदादा प्रकाशबापू पाटिल ने पत्रकारों और उनकी संपत्ति की सुरक्षा के लिए ‘जर्नलिस्ट (प्रिवेंशन ऑफ वायलेंस एंड प्रोटेक्शन) बिल, 2024’ पेश किया।
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कानूनी पहलू: यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ‘प्राइवेट मेंबर बिल’ (निजी विधेयक) वे होते हैं जो मंत्रियों के अलावा अन्य सांसदों द्वारा पेश किए जाते हैं। अक्सर सरकार द्वारा आश्वासन दिए जाने के बाद इन्हें वापस ले लिया जाता है और इनका कानून बनना दुर्लभ होता है, लेकिन ये समाज के ज्वलंत मुद्दों को संसद के पटल पर रखने का एक अहम जरिया हैं।

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