पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) बी.आर. गवई ने शुक्रवार को कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले 75 वर्षों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Speech) के दायरे को लगातार गढ़ा और संवारा है। उन्होंने जोर देकर कहा कि न्यायपालिका ने यह सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयास किया है कि प्रतिबंध लगाने की राज्य की शक्ति नागरिकों के सोचने और बोलने के मौलिक अधिकार पर हावी न हो जाए।
जस्टिस के.टी. देसाई मेमोरियल लेक्चर 2025 में ‘संविधान के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: इसका दायरा और सीमाएं’ विषय पर बोलते हुए, पूर्व CJI ने कहा कि आज के डिजिटल युग में निगरानी (Surveillance) और गलत सूचना (Misinformation) जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए पारंपरिक नियमों पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।
आजादी के बाद से कानून के विकास को रेखांकित करते हुए जस्टिस गवई ने कहा कि न्यायपालिका ने अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत मिले अधिकारों और अनुच्छेद 19(2) के तहत उन पर लगने वाले प्रतिबंधों के बीच संतुलन बनाए रखने का काम किया है।
जस्टिस गवई ने कहा, “भारत में फ्री स्पीच जूरिस्प्रूडेंस (न्यायशास्त्र) का विकास एक बड़ी संवैधानिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है। यह सुनिश्चित करता है कि अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करने की राज्य की शक्ति, लोकतांत्रिक ढांचे में नागरिकों के स्वतंत्र रूप से सोचने, बोलने और भाग लेने के अधिकार को धूमिल न करे।”
उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का यह 75 साल का सफर इस बात का गवाह है कि कोर्ट ने हमेशा अभिव्यक्ति की आजादी के व्यापक अर्थ को बचाने की कोशिश की है। साथ ही, यह भी सुनिश्चित किया गया है कि अतिरेक, अस्पष्टता या अत्यधिक सरकारी नियंत्रण के कारण यह अधिकार कमजोर न हो।
पूर्व CJI ने बताया कि कैसे सुप्रीम कोर्ट ने ‘अभिव्यक्ति’ की परिभाषा को केवल बोलने तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसमें गरिमा, स्वायत्तता और पहचान को भी शामिल किया है। उन्होंने ऐतिहासिक फैसलों का हवाला देते हुए बताया कि शीर्ष अदालत ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अपनी लैंगिक पहचान व्यक्त करने का संवैधानिक अधिकार दिया है।
इसके अलावा, उन्होंने 21वीं सदी की शुरुआत में आए बदलावों का जिक्र करते हुए कहा कि कोर्ट ने माना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की सेहत के लिए अनिवार्य है। विशेष रूप से पारदर्शिता सुनिश्चित करने में, जिससे नागरिक चुनावों में सही और सूचित विकल्प चुन सकें।
आधुनिक दौर की जटिलताओं पर बात करते हुए, जस्टिस गवई ने डिजिटल संचार की अभूतपूर्व पहुंच और सार्वजनिक विमर्श को आकार देने में इसकी भूमिका पर प्रकाश डाला। उन्होंने स्वीकार किया कि सुप्रीम कोर्ट के सामने अब डिजिटल क्षेत्र में अधिकारों के दुरुपयोग से जुड़े मामले भी लगातार आ रहे हैं।
अपने संबोधन के अंत में उन्होंने तकनीकी प्रगति के साथ कानूनी सोच में बदलाव का आह्वान किया।
जस्टिस गवई ने कहा, “ऑनलाइन दुनिया द्वारा पेश की गई अनूठी चुनौतियों, जिनमें गलत सूचना, सर्विलांस और डिजिटल बिचौलियों (Intermediaries) की एकाधिकारवादी ताकतें शामिल हैं, का जवाब देने के लिए फ्री स्पीच के पारंपरिक सिद्धांतों को फिर से कैलिब्रेट (Recalibrate) करने की आवश्यकता है।”

