सुप्रीम कोर्ट ने 1990 के एक हत्या मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए दो दोषियों की सजा को रद्द कर दिया है। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने सुरेश साहू और आदित्य प्रसाद साहू को बरी करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष (Prosecution) आरोपियों का दोष साबित करने में “बुरी तरह विफल” रहा है।
कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि निचली अदालत और झारखंड हाईकोर्ट द्वारा सुनाई गई सजा सबूतों को गलत तरीके से पढ़ने और समझने का परिणाम थी। सुप्रीम कोर्ट ने जांच अधिकारी (Investigating Officer) की गवाही न कराने और मूल पुलिस रिपोर्ट (फर्द बयान) को छिपाने को अभियोजन पक्ष की गंभीर खामी माना।
मामले की पृष्ठभूमि (Background)
यह मामला 11 मई, 1990 का है। अभियोजन पक्ष का आरोप था कि मृतक गजेंद्र प्रसाद गुप्ता के साथ उस वक्त मारपीट की गई जब वह झिंझरी गांव के मेले से मिठाई बेचकर लौट रहे थे।
12 मई, 1990 को रांची के आर.एम.सी.एच. (R.M.C.H.) अस्पताल में मृतक के पिता और शिकायतकर्ता रामेश्वर साहू (PW-3) ने अपना पहला बयान (फर्द बयान – Exh. 1) दर्ज कराया। इस शुरुआती बयान में उन्होंने कहा कि तीन लोगों ने उनके बेटे के साथ मारपीट की, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने किसी भी हमलावर का नाम नहीं लिया था।
हालांकि, अगले दिन 13 मई, 1990 को शिकायतकर्ता ने मांडर पुलिस स्टेशन में एक लिखित रिपोर्ट (Exh. 5) दी। इस बाद वाली रिपोर्ट में उन्होंने कहानी बदल दी और आरोप लगाया कि मारपीट के दौरान उनका बेटा चिल्ला रहा था, “मुझे मत मारो, मुझे छोड़ दो आदित्य, मुझे छोड़ दो सुरेश।” इसी दूसरी रिपोर्ट के आधार पर FIR नंबर 43/1990 दर्ज की गई।
निचली अदालत ने 30 अगस्त, 1994 को आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 और 120B के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। झारखंड हाईकोर्ट ने 10 फरवरी, 2023 को उनकी अपील खारिज कर दी थी, जिसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
पक्षों की दलीलें (Submissions)
अपीलकर्ताओं (आरोपियों) का पक्ष: बचाव पक्ष के वकील ने तर्क दिया कि 12 मई का ‘फर्द बयान’ ही असली FIR थी, जिसमें आरोपियों का नाम नहीं था। बाद में दी गई लिखित रिपोर्ट को CrPC की धारा 161 का बयान माना जाना चाहिए था, न कि FIR। उन्होंने कहा कि शिकायतकर्ता एक अविश्वसनीय गवाह है जिसने शुरू में आरोपियों की पहचान नहीं की थी।
बचाव पक्ष ने यह भी कहा कि मृतक द्वारा आरोपियों का नाम चिल्लाने की कहानी पूरी तरह से मनगढ़ंत (Embellishment) है। इसके अलावा, जांच अधिकारी (ASI आर. पासवान) को गवाही के लिए नहीं बुलाया गया, जबकि उन्होंने ही दोनों conflicting रिपोर्ट्स (फर्द बयान और बाद की लिखित रिपोर्ट) लिखी थीं। इससे बचाव पक्ष को अपना पक्ष रखने में गंभीर नुकसान हुआ है।
राज्य सरकार का पक्ष: राज्य के वकील ने निचली अदालत और हाईकोर्ट के फैसलों का बचाव करते हुए कहा कि दोनों अदालतों ने सबूतों का सही मूल्यांकन किया है और तथ्यात्मक निष्कर्ष (concurrent findings) दर्ज किए हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों की दोबारा विस्तृत जांच की और अभियोजन के मामले में कई जानलेवा खामियां पाईं:
1. धारा 313 CrPC के तहत दोषपूर्ण पूछताछ कोर्ट ने पाया कि आरोपियों का बयान दर्ज करते समय CrPC की धारा 313 का पालन केवल खानापूर्ति के लिए किया गया। उनसे केवल तीन सामान्य सवाल पूछे गए थे। जस्टिस मेहता ने फैसले में लिखा:
“ये सवाल बेहद सामान्य और यांत्रिक तरीके से पूछे गए थे, जिनमें अभियोजन पक्ष के सबूतों में दिखने वाली किसी भी विशिष्ट आपत्तिजनक परिस्थिति का जिक्र नहीं था।”
हालांकि, घटना को 35 साल बीत जाने के कारण कोर्ट ने मामले को दोबारा बयान दर्ज करने के लिए वापस (Remand) नहीं भेजा।
2. असली FIR को छिपाना और जांच अधिकारी (IO) को पेश न करना सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के उस तर्क को खारिज कर दिया जिसमें पहले ‘फर्द बयान’ को नकार दिया गया था। कोर्ट ने माना कि बाद वाली रिपोर्ट में आरोपियों के नाम “सोची-समझी रणनीति के तहत बाद में जोड़े गए” थे।
कोर्ट ने जांच अधिकारी (IO) को गवाही के लिए न बुलाने पर अभियोजन को कड़ी फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा:
“एक महत्वपूर्ण गवाह (IO) की गवाही न कराना अभियोजन के खिलाफ प्रतिकूल निष्कर्ष (Adverse Inference) को जन्म देता है… गवाह को जानबूझकर रोका गया ताकि अभियोजन अपने मामले की खामियों को छिपा सके।”
3. मृत्युकालीन मौखिक बयान (Oral Dying Declaration) पर संदेह अभियोजन का दावा था कि मृतक ने अपनी बहनों के सामने मौखिक रूप से आरोपियों का नाम लिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया क्योंकि बहनों के बयान घटना के डेढ़ महीने बाद दर्ज किए गए थे। मेडिकल साक्ष्यों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा:
“सिर पर इतनी गंभीर चोटें और फ्रैक्चर होने के बाद, यह विश्वास करना असंभव है कि मृतक बोलने की स्थिति में रहा होगा, मृत्युकालीन बयान देना तो दूर की बात है।”
4. गवाहों को ‘प्लांट’ किया जाना कोर्ट ने माना कि शिकायतकर्ता (पिता) ने अपनी गवाही में बार-बार सुधार किया और विरोधाभासी बयान दिए। कोर्ट ने नोट किया कि दोनों पक्षों के बीच जमीन और नौकरी को लेकर पुराना मुकदमा चल रहा था, जो झूठा फंसाने का एक मजबूत मकसद (Motive) हो सकता है।
5. बचाव पक्ष के गवाहों का महत्व दिलचस्प बात यह रही कि FIR में जिन दो चश्मदीद गवाहों (जतन साहू और खखंडु साहू) का नाम था, उन्हें पुलिस ने पेश ही नहीं किया। वे बचाव पक्ष की तरफ से पेश हुए और साफ कहा कि हमलावर अज्ञात थे। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया:
“बचाव पक्ष के गवाहों की गवाही का महत्व अभियोजन पक्ष के गवाहों के बराबर ही होता है।”
निर्णय (Decision)
सुप्रीम कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन पक्ष ने असली FIR को दबाकर और उसमें मनगढ़ंत कहानियां जोड़कर (Embellished version) पूरे ट्रायल को दूषित कर दिया।
कोर्ट ने आदेश दिया:
“आरोपियों की दोषसिद्धि सबूतों को गलत तरीके से पढ़ने पर आधारित है और कानूनन टिकने योग्य नहीं है।”
नतीजतन, अपील स्वीकार कर ली गई। सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाईकोर्ट के 10 फरवरी, 2023 के फैसले और निचली अदालत की सजा को रद्द कर दिया। चूंकि अपीलकर्ता हिरासत में थे, कोर्ट ने उन्हें तुरंत रिहा करने का आदेश दिया।

