दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए सीमा सुरक्षा बल (BSF) के एक कांस्टेबल की बर्खास्तगी के आदेश को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जनरल सिक्योरिटी फोर्स कोर्ट (GSFC) की कार्यवाही के दौरान, उपलब्ध होने के बावजूद सीसीटीवी फुटेज को पेश न करना और उसकी जांच न करना, आरोपी के निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) के अधिकार का उल्लंघन है।
04 दिसंबर, 2025 को सुनाए गए इस फैसले में जस्टिस सी. हरि शंकर और जस्टिस ओम प्रकाश शुक्ला की खंडपीठ ने याचिकाकर्ता शांतनु साहा की याचिका को स्वीकार कर लिया। कोर्ट ने GSFC और अपीलीय अधिकारियों के आदेशों को खारिज करते हुए याचिकाकर्ता को सेवा में बहाल करने का निर्देश दिया है, हालांकि intervening period (बर्खास्तगी से बहाली तक की अवधि) के लिए उन्हें पिछला वेतन (back wages) नहीं मिलेगा।
कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या सीसीटीवी फुटेज जैसा महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध होने और याचिकाकर्ता द्वारा बार-बार अनुरोध किए जाने के बावजूद, उसे जांच में शामिल न करना निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांत के खिलाफ है? पीठ ने माना कि “सर्वोत्तम और प्राथमिक साक्ष्य (best and primary evidence)” यानी सीसीटीवी फुटेज को पेश न करने से याचिकाकर्ता को अपना बचाव करने के प्रभावी अवसर से वंचित किया गया, जो संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत न्यायिक हस्तक्षेप का आधार बनता है।
मामले की पृष्ठभूमि (Background)
याचिकाकर्ता शांतनु साहा 03 अप्रैल, 1990 को बीएसएफ में भर्ती हुए थे और 27वीं बटालियन, कोलकाता में तैनात थे। अभियोजन पक्ष का आरोप था कि 21 जनवरी, 2021 और 14 फरवरी, 2021 को याचिकाकर्ता ने एक महिला कांस्टेबल (Ms. X) के साथ दुर्व्यवहार किया, जिसमें अनुचित तरीके से छूना और अवांछित उपहार देना शामिल था। इसके अलावा, उन पर अप्रैल 2021 में महिला के बारे में अभद्र टिप्पणी करने का भी आरोप लगाया गया था।
शिकायतकर्ता ने 18 जून, 2021 को लिखित शिकायत दर्ज कराई। आंतरिक शिकायत समिति (ICC) ने मामले की जांच की और अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की। इसके बाद ‘रिकॉर्ड ऑफ एविडेंस’ (ROE) तैयार किया गया और बीएसएफ अधिनियम, 1968 की धारा 46 के तहत आरोप पत्र दायर किया गया।
नवंबर 2022 में हुई शुरुआती GSFC कार्यवाही में याचिकाकर्ता को “दोषी नहीं” पाया गया था। उस समय कोर्ट ने पाया था कि शिकायतकर्ता के बयानों में विरोधाभास था और घटना के स्थान व समय को लेकर कोई पुख्ता सबूत नहीं थे। हालांकि, बाद में पुष्टि करने वाले प्राधिकारी (Confirming Authority) ने बीएसएफ अधिनियम की धारा 113 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए GSFC को अतिरिक्त साक्ष्य रिकॉर्ड करने के लिए कार्यवाही दोबारा शुरू करने का निर्देश दिया।
मार्च 2023 में दोबारा हुई कार्यवाही में GSFC ने अपना फैसला पलट दिया और अतिरिक्त गवाहों व दस्तावेजों के आधार पर याचिकाकर्ता को दोषी ठहराया। उन्हें एक साल के साधारण कारावास की सजा सुनाई गई और सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। उनकी बाद की अपीलों को भी सक्षम अधिकारियों ने खारिज कर दिया था।
पक्षों की दलीलें (Arguments)
याचिकाकर्ता का पक्ष: याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए अधिवक्ता अर्जुन पंवार ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता का 33 वर्षों का सेवा रिकॉर्ड बेदाग रहा है। उन्होंने कहा कि आरोप केवल शिकायतकर्ता के “देरी से दिए गए और अपुष्ट बयान” पर आधारित हैं, क्योंकि लिखित शिकायत लगभग पांच महीने की देरी से दी गई थी।
वकील ने जोर देकर कहा कि जिस गेट पर घटना होने का दावा किया गया, वहां सीसीटीवी कैमरे लगे होने के बावजूद कोई फुटेज रिकॉर्ड या पेश नहीं किया गया। उन्होंने बताया कि याचिकाकर्ता ने ट्रायल के दौरान स्पष्ट रूप से सीसीटीवी फुटेज की मांग की थी, लेकिन वह उपलब्ध नहीं कराया गया। यह भी तर्क दिया गया कि शुरुआती GSFC ने विरोधाभासों के कारण उन्हें बरी कर दिया था, और बाद में केवल एक ‘आर्म्स इन-आउट रजिस्टर’ के आधार पर फैसला पलट दिया गया, जबकि ड्यूटी तैनाती के कोई सहायक दस्तावेज नहीं थे।
प्रतिवादी (केंद्र सरकार) का पक्ष: केंद्र सरकार की ओर से पेश वकील शुभा पाराशर ने दलील दी कि याचिकाकर्ता के पास अपने बचाव में सीसीटीवी फुटेज मंगवाने का अवसर था, लेकिन वह ऐसा करने में विफल रहे। उन्होंने तर्क दिया कि पुष्टि करने वाले प्राधिकारी ने सही तरीके से मामले को पुनर्विचार के लिए भेजा था। प्रतिवादी का कहना था कि अतिरिक्त साक्ष्यों, जिसमें रजिस्टर और गवाहों (PW2 और PW5) के बयान शामिल थे, ने घटना स्थल पर शिकायतकर्ता की उपस्थिति और आरोपों की पुष्टि की।
कोर्ट का विश्लेषण (Court’s Analysis)
दिल्ली हाईकोर्ट ने सबसे पहले GSFC ट्रायल पर न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के दायरे को रेखांकित किया। कोर्ट ने कहा कि वह साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए अपीलीय अदालत के रूप में नहीं बैठ सकता, लेकिन “प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन या निष्पक्ष सुनवाई से इनकार” के मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है।
सीसीटीवी फुटेज पेश न करने पर: कोर्ट ने पाया कि कथित घटना गेट नंबर 2 के अंदर हुई बताई गई थी, जो सीसीटीवी निगरानी में था। चूंकि कोई प्रत्यक्षदर्शी (eyewitness) नहीं था, कोर्ट ने कहा, “सीसीटीवी फुटेज का महत्व बढ़ जाता है क्योंकि यह संबंधित इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड होने के नाते घटना का सबसे अच्छा और प्राथमिक साक्ष्य बन जाता है।”
न्यायाधीशों ने प्रतिवादियों की इस दलील को खारिज कर दिया कि फुटेज पेश करने की जिम्मेदारी याचिकाकर्ता पर थी। फैसले में बीएसएफ अधिनियम की धारा 89(1) और बीएसएफ नियम 108 का हवाला दिया गया, जो कोर्ट को दस्तावेज तलब करने का अधिकार देते हैं और पीठासीन अधिकारी को निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने का आदेश देते हैं। कोर्ट ने कहा:
“चूंकि संबंधित प्राधिकारी कानून द्वारा सशक्त थे और उनसे यह अपेक्षा थी, इसलिए सीसीटीवी फुटेज तलब करने की जिम्मेदारी याचिकाकर्ता पर नहीं डाली जा सकती, जिसने अपनी तत्परता दिखाते हुए दो बार इसके लिए अनुरोध किया था। किसी भी स्थिति में, प्रतिवादी ही उक्त सीसीटीवी फुटेज के संरक्षक (custodian) हैं।”
कोर्ट ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114, दृष्टांत (g) का भी उल्लेख किया, जिसके तहत साक्ष्य को छिपाने पर प्रतिकूल निष्कर्ष (adverse inference) निकाला जा सकता है।
प्रक्रियात्मक अनियमितता (Procedural Irregularity) पर: कोर्ट ने पाया कि GSFC ने प्राथमिक साक्ष्य (सीसीटीवी) के अभाव और उसके महत्व पर विचार किए बिना केवल गवाहों के बयानों और रजिस्टर के आधार पर याचिकाकर्ता को दोषी ठहरा दिया। कोर्ट ने सबूत पेश करने का बोझ याचिकाकर्ता पर डालने को “बेतुका और वैधानिक प्रावधानों के असंगत” करार दिया।
फैसला (Decision)
दिल्ली हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि कार्यवाही ने याचिकाकर्ता को अपना बचाव करने का उचित अवसर प्रदान नहीं किया। कोर्ट ने कहा:
“उपलब्धता, प्रासंगिकता और याचिकाकर्ता के बार-बार अनुरोध के बावजूद सर्वोत्तम और प्राथमिक साक्ष्य यानी सीसीटीवी फुटेज को पेश करने और जांचने में विफलता के कारण सुनवाई निष्पक्ष नहीं रही, क्योंकि याचिकाकर्ता को अपना बचाव करने का प्रभावी और वास्तविक अवसर नहीं दिया गया।”
पीठ ने सीसीटीवी फुटेज से वंचित करने को एक “प्रक्रियात्मक अनियमितता” माना जो “फेयर प्ले के सिद्धांतों” के खिलाफ थी।
नतीजतन, कोर्ट ने रिट याचिका स्वीकार कर ली और निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता को उस पद पर बहाल किया जाए जिससे उसे बर्खास्त किया गया था, साथ ही सभी परिणामी लाभ दिए जाएं। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बहाली “बिना किसी पिछले वेतन (back wages) या intervening period के दौरान अर्जित लाभों के” होगी।

