कर्नाटक हाईकोर्ट ने आपराधिक याचिकाओं के एक समूह को खारिज करते हुए निचली अदालत के उस फैसले को बरकरार रखा है, जिसमें अभियोजन पक्ष को अंतिम रिपोर्ट (Final Report) दाखिल करने के लिए 45 दिनों का अतिरिक्त समय दिया गया था। कोर्ट ने व्यवस्था दी कि ‘कर्नाटक संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम’ (KCOCA) के तहत समय विस्तार मांगने वाली पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की रिपोर्ट के साथ जांच अधिकारी (Investigating Officer – IO) की रिपोर्ट को संलग्न करना कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं है, बशर्ते प्रॉसिक्यूटर की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो कि उन्होंने जांच की प्रगति और हिरासत जारी रखने के कारणों पर स्वतंत्र रूप से विचार (Independent Application of Mind) किया है।
माननीय न्यायमूर्ति एस. सुनील दत्त यादव की पीठ ने यह फैसला सुनाते हुए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 187(3) के तहत याचिकाकर्ताओं द्वारा मांगी गई ‘डिफॉल्ट जमानत’ (Statutory/Default Bail) को अस्वीकार कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला क्राइम नंबर 73/2025 से संबंधित है, जो 15 जुलाई, 2025 को श्रीमती विजयलक्ष्मी द्वारा अपने बेटे की हत्या के संबंध में दर्ज कराई गई शिकायत पर आधारित है। मामले की गंभीरता को देखते हुए राज्य सरकार ने आरोपियों के खिलाफ KCOCA के कड़े प्रावधान लागू किए और जांच सीआईडी (CID) को हस्तांतरित कर दी।
90 दिनों की निर्धारित अवधि समाप्त होने से पहले, 9 अक्टूबर, 2025 को विशेष लोक अभियोजक (Special Public Prosecutor) ने KCOCA की धारा 22(2)(b) के तहत विशेष अदालत में आवेदन देकर अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने की मांग की। इसके बाद, 15 अक्टूबर को आरोपियों ने तर्क दिया कि समय पर जांच पूरी न होने के कारण वे डिफॉल्ट जमानत के हकदार हैं। ट्रायल कोर्ट ने 17 अक्टूबर, 2025 को अभियोजन पक्ष को 45 दिन का विस्तार दे दिया और जमानत याचिका को औचित्यहीन बताते हुए खारिज कर दिया, जिसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी।
पक्षकारों की दलीलें
याचिकाकर्ताओं (आरोपियों) का तर्क: याचिकाकर्ताओं के वरिष्ठ वकील ने सुप्रीम कोर्ट के हितेंद्र विष्णु ठाकुर बनाम महाराष्ट्र राज्य (1994) फैसले पर भारी भरोसा जताते हुए तर्क दिया कि पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की रिपोर्ट के साथ जांच अधिकारी की रिपोर्ट का होना आवश्यक है। उनका कहना था कि IO की रिपोर्ट के बिना, अदालत यह सुनिश्चित नहीं कर सकती कि प्रॉसिक्यूटर ने स्वतंत्र रूप से मामले पर विचार किया है या केवल पुलिस की मांग को आगे बढ़ाया है। इसके अलावा, उन्होंने आरोप लगाया कि विस्तार आवेदन पर सुनवाई के दौरान प्रक्रियात्मक उल्लंघन हुआ और आरोपियों को ठीक से सूचित नहीं किया गया।
राज्य (प्रतिवादी) का तर्क: राज्य के अतिरिक्त एसपीपी (Addl. SPP) ने तर्क दिया कि अदालत की समय बढ़ाने की शक्ति पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की रिपोर्ट पर आधारित है, जिसमें जांच की प्रगति और आरोपी को 90 दिनों से अधिक हिरासत में रखने के विशिष्ट कारण बताए गए हों। उन्होंने कहा कि प्रस्तुत रिपोर्ट विस्तृत थी और KCOCA के प्रावधानों की शर्तों को पूरा करती थी।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
1. जांच अधिकारी की रिपोर्ट संलग्न करने की अनिवार्यता पर: न्यायमूर्ति एस. सुनील दत्त यादव ने हितेंद्र विष्णु ठाकुर मामले के सही परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट किया। कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि पब्लिक प्रॉसिक्यूटर केवल ‘डाकिया’ (post office) की तरह काम न करें, बल्कि अपने विवेक का इस्तेमाल करें। हाईकोर्ट ने कहा:
“सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि पब्लिक प्रॉसिक्यूटर जांच अधिकारी के अनुरोध को अपनी रिपोर्ट के साथ जोड़ सकते हैं… जांच अधिकारी की रिपोर्ट को संलग्न न करना पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की रिपोर्ट के कानूनी महत्व को कम नहीं करता है।”
2. जांच की प्रगति और हिरासत के कारण: कोर्ट ने पाया कि पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की रिपोर्ट व्यापक और विस्तृत थी। इसमें जांच की प्रगति के 17 बिंदुओं (जैसे फोरेंसिक सबूत, सीसीटीवी फुटेज विश्लेषण, हथियार बरामदगी) और शेष जांच के 30 बिंदुओं (जैसे वॉइस सैंपल विश्लेषण, शिनाख्त परेड, वित्तीय जांच) का विस्तार से उल्लेख था। कोर्ट ने माना कि यह KCOCA की धारा 22(2)(b) के तहत ‘विशिष्ट कारणों’ की आवश्यकता को पूरा करता है।
3. स्वतंत्र विवेक का प्रयोग (Application of Mind): हाईकोर्ट ने पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की रिपोर्ट के अंतिम पैराग्राफ की जांच की और पाया कि यह प्रॉसिक्यूटर की स्वतंत्र सोच को दर्शाता है। कोर्ट ने टिप्पणी की कि रिपोर्ट स्पष्ट रूप से दिखा रही है कि प्रॉसिक्यूटर ने जांच सामग्री का अध्ययन किया है और वे विस्तार की आवश्यकता से संतुष्ट हैं।
4. आरोपी की पेशी और नोटिस: आरोपियों को पेश न किए जाने की दलील पर कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के संजय दत्त बनाम राज्य (II) फैसले का हवाला दिया। कोर्ट ने कहा कि जांच का समय बढ़ाने पर विचार करते समय आरोपी को कोर्ट में पेश करना और उसे यह सूचित करना कि विस्तार पर विचार किया जा रहा है, अपने आप में पर्याप्त नोटिस है। रिकॉर्ड के अनुसार, 10 अक्टूबर, 2025 को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए आरोपियों को पेश किया गया था और उनके वकीलों ने आपत्तियां भी दर्ज कराई थीं, जो कानूनन पर्याप्त अनुपालन है।
फैसला
कर्नाटक हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि विशेष न्यायाधीश ने समय विस्तार देते समय अपने न्यायिक विवेक का सही प्रयोग किया है और इसमें हस्तक्षेप का कोई कारण नहीं है। नतीजतन, कोर्ट ने आपराधिक याचिकाओं को खारिज कर दिया और जांच की अवधि बढ़ाने के आदेश को बरकरार रखा।
परिणाम: याचिकाएं खारिज (Petitions Dismissed)।
केस विवरण
- केस टाइटल: श्री के. किरण और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य (तथा अन्य संबद्ध याचिकाएं)
- केस नंबर: क्रिमिनल पिटीशन नंबर 15186/2025
- पीठ: न्यायमूर्ति एस. सुनील दत्त यादव

