सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि पब्लिक प्रोसीक्यूटर (सरकारी वकील) अदालत का एक अधिकारी होता है और उसका पवित्र कर्तव्य न्याय के हित में कार्य करना है, न कि केवल राज्य के वकील के रूप में कार्य करते हुए किसी भी कीमत पर आरोपी को सजा दिलाना। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) के लिए दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 313 के तहत आरोपी को अपने खिलाफ आए साक्ष्यों पर सफाई देने का पूरा अवसर मिलना अनिवार्य है।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस नोंगमीकापम कोटेश्वर सिंह की पीठ ने चंदन पासी व अन्य बनाम बिहार राज्य (Criminal Appeal No(s). 5137-5138 of 2025) के मामले में सुनवाई करते हुए धारा 313 CrPC के अनुपालन में “घोर विफलता” (abject failure) के आधार पर हत्या के मामले में तीन अपीलकर्ताओं की दोषसिद्धि को रद्द कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह अपील पटना हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी। हाईकोर्ट ने बक्सर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा सुनाए गए फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302/34 (हत्या), धारा 448 (गृह-अतिचार) और धारा 323 के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, घटना 31 मार्च 2016 की है। सूचक कचान पासी अपने पिता घुघली पासी और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ खेत से लौट रहे थे, तभी आरोपियों ने उन्हें घेर लिया और कथित तौर पर घुघली पासी पर ‘कट्टा’ (देसी पिस्तौल) से हमला किया, जिससे उनकी मौत हो गई। निचली अदालत ने इस मामले में कुल छह लोगों को दोषी ठहराया था। इनमें से तीन दोषियों- चंदन पासी, पप्पू पासी और गिडिक पासी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
कानूनी मुद्दा और दलीलें
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य मुद्दा सीआरपीसी की धारा 313 के तहत दर्ज किए गए बयानों की वैधता का था। अपीलकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अंजना प्रकाश ने तर्क दिया कि धारा 313 की अनिवार्य शर्तों का पालन नहीं किया गया है, जिससे आरोपियों के अधिकारों का हनन हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर गौर करते हुए कहा कि धारा 313 के तहत आरोपी से पूछताछ करना निष्पक्ष सुनवाई की एक “गैर-परक्राम्य आवश्यकता” (non-negotiable requirement) है, ताकि उसे अपने खिलाफ पेश किए गए सबूतों को समझाने का मौका मिल सके।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां और विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज किए गए बयानों की जांच की और पूरी प्रक्रिया को “दुखद स्थिति” (sorry state of affairs) करार दिया।
अभियोजक (Prosecutor) की भूमिका पर: पीठ ने अभियोजन पक्ष के आचरण पर कड़ी फटकार लगाई। जस्टिस करोल ने फैसले में लिखा:
“यह हमारे लिए अत्यंत परेशान करने वाला है कि आरोपियों को दोषी ठहराने की इच्छा में, अभियोजक ने धारा 313 के तहत आरोपी की परीक्षा आयोजित करने में अदालत की सहायता करने के अपने कर्तव्य को दरकिनार कर दिया। अभियोजक अदालत का एक अधिकारी है और उसका पवित्र कर्तव्य न्याय के हित में कार्य करना है। वह बचाव पक्ष के वकील की तरह कार्य नहीं कर सकता, लेकिन राज्य की ओर से पेश होते हुए उसका एकमात्र उद्देश्य आरोपी पर सजा का गाज गिराना भी नहीं होना चाहिए।”
धारा 313 CrPC के अनुपालन पर: कोर्ट ने पाया कि तीनों अपीलकर्ताओं के बयान एक-दूसरे की “कार्बन कॉपी” थे। आरोपियों से पूछे गए सवाल बेहद सामान्य और अस्पष्ट थे और उनके सामने विशिष्ट परिस्थितियां नहीं रखी गई थीं।
“विद्वान ट्रायल जज के हाथों इस तरह के बयान कैसे स्वीकार कर लिए गए, यह हमारी समझ से परे है… धारा के अनुपालन का अंतिम परीक्षण यह जांचना और सुनिश्चित करना है कि क्या आरोपी को अपनी बात रखने का अवसर मिला या नहीं।”
सनातन नस्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2010) और इंद्रकुंवर बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2023) जैसे फैसलों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि धारा 313 महज एक औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह अदालत और आरोपी के बीच सीधे संवाद स्थापित करने का एक अनिवार्य माध्यम है।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने केवल धारा 313 CrPC के अनुपालन में विफलता के आधार पर अपीलों को स्वीकार कर लिया।
- रिमांड: मामले को वापस ट्रायल कोर्ट भेज दिया गया है ताकि धारा 313 के बयानों को नए सिरे से दर्ज कर कार्यवाही शुरू की जा सके।
- स्पष्टीकरण: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह आदेश केवल तीन अपीलकर्ताओं पर लागू होगा और अन्य आरोपियों (जो कोर्ट के समक्ष नहीं थे) के निष्कर्षों को प्रभावित नहीं करेगा।
- समय सीमा: अपराध वर्ष 2016 का होने के कारण, कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया है कि वह इस फैसले की सूचना मिलने की तारीख से चार महीने के भीतर आवश्यक कार्यवाही पूरी करे।
रजिस्टार (ज्यूडिशियल) को निर्देश दिया गया है कि वे तत्काल अनुपालन के लिए पटना हाईकोर्ट को इस आदेश की सूचना दें।

