ऑर्डर 18 रूल 17 CPC का उपयोग पक्षकार अपनी कमी पूरी करने के लिए नहीं कर सकते; गवाह को बुलाने की शक्ति केवल अदालत के पास: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश XVIII नियम 17 का उद्देश्य पार्टियों को अपने केस की कमियों को सुधारने का अवसर देना नहीं है, बल्कि यह प्रावधान कोर्ट को साक्ष्य में अस्पष्टता दूर करने का अधिकार देता है।

जस्टिस गिरीश कठपालिया की पीठ ने निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें याचिकाकर्ताओं द्वारा साक्ष्य प्रक्रिया पूरी होने के बाद एक अतिरिक्त गवाह को बुलाने की मांग को खारिज कर दिया गया था। हाईकोर्ट ने कहा कि इस नियम का इस्तेमाल “विरोधी उपकरण” (adversarial tool) के रूप में नहीं किया जा सकता।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ताओं (वादियों) ने एक दीवानी मुकदमा (Civil Suit) दायर कर यह घोषणा करने की मांग की थी कि प्रतिवादी संख्या 1 द्वारा प्रतिवादी संख्या 2 के पक्ष में निष्पादित पंजीकृत बिक्री विलेख (Sale Deed) शून्य और अमान्य है। इसके साथ ही उन्होंने हर्जाना और निषेधाज्ञा (Injunction) की भी मांग की थी।

सुनवाई के दौरान, कोर्ट ने मुद्दे तय किए, जिसमें मुद्दा संख्या 4 यह था कि “क्या याचिकाकर्ताओं/वादियों के स्वामित्व दस्तावेज जाली और मनगढ़ंत थे।” इस मुद्दे को साबित करने का भार प्रतिवादी संख्या 2 पर था।

दोनों पक्षों ने अपनी गवाही पूरी की। याचिकाकर्ताओं ने 11 गवाहों का परीक्षण कराया, जबकि प्रतिवादी संख्या 2 ने 4 गवाह पेश किए। प्रतिवादी संख्या 1 एकतरफा (ex-parte) कार्यवाही का सामना कर रहे थे।

विवाद तब उत्पन्न हुआ जब गवाही समाप्त होने और अंतिम बहस (Final Arguments) का कुछ हिस्सा पूरा होने के बाद, याचिकाकर्ताओं ने आदेश XVIII नियम 17 सीपीसी के तहत एक आवेदन दायर किया। उन्होंने एक वसीयत (Will) को साबित करने के लिए उमेश शर्मा नामक व्यक्ति को गवाह के रूप में बुलाने की अनुमति मांगी, जो संपत्ति पर उनके दावे का आधार थी। निचली अदालत ने 15 अक्टूबर 2025 को इस आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वादी यह बताने में विफल रहे कि बचाव पक्ष की दलीलों की जानकारी होने के बावजूद इस गवाह को पहले क्यों नहीं बुलाया गया।

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पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि उमेश शर्मा का परीक्षण “मुकदमे के प्रभावी निर्णय के लिए महत्वपूर्ण” था। यह कहा गया कि अटेस्टिंग विटनेस (सत्यापन गवाह) होने के नाते, शर्मा उस वसीयत को साबित कर सकते थे जिस पर याचिकाकर्ताओं का मालिकाना हक आधारित था।

याचिकाकर्ताओं ने गवाह को वापस बुलाने के अपने अनुरोध के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट के के. के. वेलुसामी बनाम एन. पलानीसामी (2011) 11 SCC 275 के फैसले का हवाला दिया।

कोर्ट का विश्लेषण

जस्टिस गिरीश कठपालिया ने आदेश XVIII नियम 17 सीपीसी के दायरे का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट किया कि 2002 के संशोधन के बाद इस प्रावधान को क़ानून की किताब में केवल इसलिए रखा गया था ताकि ट्रायल कोर्ट किसी संदेह को स्पष्ट कर सके, न कि पार्टियों को दोबारा सबूत पेश करने की शक्ति देने के लिए।

कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा:

“आदेश XVIII नियम 17 सीपीसी के प्रावधान का आह्वान किसी भी पक्ष को पहले से परीक्षण किए गए गवाह की आगे परीक्षा या जिरह करने के लिए सशक्त बनाने के लिए नहीं किया जा सकता है। यह प्रावधान निर्धारित करता है कि यह केवल कोर्ट है जो गवाह से प्रश्न पूछेगा।”

कोर्ट ने जोर देकर कहा कि मुख्य मुद्दा ट्रायल कोर्ट की संतुष्टि है कि किसी गवाह को वापस बुलाने की आवश्यकता है या नहीं। जस्टिस ने नोट किया कि “इस प्रावधान का उपयोग किसी भी पक्ष द्वारा अपनी कमियों को छिपाने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जा सकता है।”

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नजीरों (Precedents) पर निर्भरता

हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के शुभकरण सिंह बनाम अभयराज सिंह और अन्य (2025 INSC 628) के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था:

“इस शक्ति का उपयोग अस्पष्टता को दूर करने और बयानों को स्पष्ट करने के लिए किया जाना चाहिए, न कि किसी पार्टी के केस की खामियों (lacuna) को भरने के लिए… गवाह को वापस बुलाने और दोबारा जांचने की शक्ति विशेष रूप से मुकदमा चलाने वाले कोर्ट की है।”

याचिकाकर्ता द्वारा के. के. वेलुसामी मामले पर दिए गए तर्क के संबंध में, हाईकोर्ट ने तथ्यों में अंतर स्पष्ट किया। कोर्ट ने कहा कि वेलुसामी मामले में गवाहों को उनकी गवाही के बाद सामने आए ऑडियो रिकॉर्डिंग का सामना कराने के लिए बुलाया गया था। यहां तक ​​कि उस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि यह शक्ति केवल “स्पष्टीकरण के लिए है ताकि ट्रायल कोर्ट किसी भी मुद्दे या संदेह को दूर कर सके।”

तथ्यात्मक निष्कर्ष

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हाईकोर्ट ने निचली अदालत के निर्णय में कोई त्रुटि नहीं पाई और निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं को नोट किया:

  1. कोई अस्पष्टता नहीं: निचली अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा था कि रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य में कोई ऐसी अस्पष्टता नहीं है जिसके लिए उमेश शर्मा से स्पष्टीकरण की आवश्यकता हो।
  2. सबूत का भार: कोर्ट ने नोट किया कि वसीयत को जाली साबित करने का भार प्रतिवादी संख्या 2 पर था, न कि याचिकाकर्ताओं पर।
  3. समय: आवेदन तब दायर किया गया जब प्रतिवादी की अंतिम बहस समाप्त हो चुकी थी और वादी की बहस निष्कर्ष के करीब थी।
  4. गवाह की स्थिति: उमेश शर्मा का नाम किसी भी पक्ष की गवाहों की सूची में शामिल नहीं था।

जस्टिस कठपालिया ने कहा कि यह कदम “कमियों को भरने” (plug the loopholes) का एक प्रयास था, जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।

फैसला

हाईकोर्ट ने माना कि चूंकि निचली अदालत को अतिरिक्त गवाह की जांच की आवश्यकता वाली कोई अस्पष्टता नहीं मिली, इसलिए आवेदन को खारिज करना सही था।

जस्टिस कठपालिया ने फैसला सुनाते हुए कहा, “मुझे विवादित आदेश में कोई कमी नजर नहीं आती, इसलिए इसे बरकरार रखा जाता है।” इसी के साथ याचिका और संबंधित आवेदनों को खारिज कर दिया गया।

केस की जानकारी

  • केस शीर्षक: निकिता जैन उर्फ ​​निक्की जैन और अन्य बनाम राम फल उर्फ ​​राम पाल और अन्य
  • केस नंबर: CM(M) 2292/2025
  • कोरम: जस्टिस गिरीश कठपालिया
  • उद्धरण (Citation): 2025:DHC:10527

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