इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि किसी कर्मचारी का दोष रिकॉर्ड और दस्तावेजों से स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है, तो केवल जांच रिपोर्ट (Inquiry Report) की प्रति न दी जाना अनुशासनात्मक कार्यवाही को रद्द करने का आधार नहीं बन सकता, जब तक कि इससे कर्मचारी को कोई स्पष्ट नुकसान (Prejudice) न हुआ हो।
जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी और जस्टिस अनीश कुमार गुप्ता की खंडपीठ ने यूपी पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (UPPCL) के एक स्टोरकीपर की बर्खास्तगी को चुनौती देने वाली विशेष अपील को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि यह मामला “उच्च स्तरीय गबन” (High Level Embezzlement) का है, जहां 1.86 करोड़ रुपये से अधिक का सामान गायब पाया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता, रमेश चंद्र मालवीय, वाराणसी जिले के साहूपुरी गोदाम में स्टोरकीपर के पद पर तैनात थे। निरीक्षण के दौरान गोदाम से भारी मात्रा में टावर पार्ट्स और अन्य सामान गायब मिला।
फैसले के अनुसार, 23 जून 1997 को 19.50 लाख रुपये मूल्य के 64 एम.टी. रिवर क्रॉसिंग टावर पार्ट्स गायब होने पर एफआईआर दर्ज की गई थी। इसके बाद जुलाई से सितंबर 1997 के बीच हुए भौतिक सत्यापन में 1,49,62,868 रुपये और 7,23,799 रुपये मूल्य का अन्य सामान भी कम पाया गया।
विभागीय जांच में अपीलकर्ता को दोषी पाया गया और 23 मार्च 2000 को अधीक्षण अभियंता, विद्युत पारेषण मंडल, इलाहाबाद ने उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया। साथ ही, 186.603 लाख रुपये की वसूली का आदेश भी जारी किया गया। एकल पीठ (Single Judge) द्वारा 2012 में रिट याचिका खारिज किए जाने के बाद, अपीलकर्ता ने इस विशेष अपील के माध्यम से चुनौती दी थी।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता के अधिवक्ता सिद्धार्थ खरे ने तर्क दिया कि बर्खास्तगी आदेश पारित करने से पहले अपीलकर्ता को जांच रिपोर्ट की प्रति नहीं दी गई थी, जो कि मैनेजिंग डायरेक्टर, ईसीआईएल, हैदराबाद बनाम बी. करुणाकर (1993) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार अनिवार्य है। उन्होंने यह भी दावा किया कि तत्कालीन अधिशासी अभियंता ने उन पर दबाव डालकर सामान प्राप्ति की रसीदों पर हस्ताक्षर कराए थे, जबकि वास्तव में सामान गोदाम में आया ही नहीं था।
दूसरी ओर, प्रतिवादियों के अधिवक्ता प्रांजल मेहरोत्रा ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता का दोष रिकॉर्ड से ही सिद्ध है। उन्होंने उन चालानों पर हस्ताक्षर किए थे जो सामान की प्राप्ति की पुष्टि करते हैं। प्रतिवादियों का कहना था कि अपीलकर्ता यह साबित करने में विफल रहे हैं कि जांच रिपोर्ट न मिलने से उनके बचाव पक्ष को क्या नुकसान हुआ है। इसके अलावा, रिट याचिका के दौरान जवाबी हलफनामे के माध्यम से जांच रिपोर्ट उपलब्ध कराई गई थी, लेकिन अपीलकर्ता ने उसके निष्कर्षों को प्रभावी ढंग से चुनौती नहीं दी।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
हाईकोर्ट ने बी. करुणाकर मामले के सिद्धांतों का विश्लेषण करते हुए कहा कि जांच रिपोर्ट न दिया जाना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हो सकता है, लेकिन अदालत को यह देखना होगा कि क्या इससे कर्मचारी को वास्तव में कोई नुकसान हुआ है।
कोर्ट ने हाल ही के सुप्रीम कोर्ट के फैसले उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राम प्रकाश सिंह (2025) से इस मामले को अलग पाया, क्योंकि मौजूदा मामले में रिट कोर्ट के समक्ष जांच रिपोर्ट रिकॉर्ड पर लाई गई थी।
अपीलकर्ता के इस बचाव पर कि उनसे जबरन हस्ताक्षर कराए गए थे, कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा:
“अपीलकर्ता की यह दलील कि गोदाम में सामान की आपूर्ति के बिना ही तत्कालीन अधिशासी अभियंता के निर्देश पर उन्हें रसीद देनी पड़ी, विश्वास जगाने वाली नहीं है और यह केवल एक ‘कमजोर बहाना’ (Lame Excuse) है।”
खंडपीठ ने निष्कर्ष निकाला कि चूंकि गबन बहुत बड़े स्तर का है और रिकॉर्ड पर मौजूद दस्तावेजों से दोष स्पष्ट है, इसलिए जांच रिपोर्ट पहले न मिलने का अंतिम परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ता।
अंततः, हाईकोर्ट ने एकल पीठ के फैसले को सही ठहराते हुए अपील को खारिज कर दिया और वसूली व बर्खास्तगी के आदेश को बरकरार रखा।
केस विवरण:
- केस टाइटल: रमेश चंद्र मालवीय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य
- केस नंबर: स्पेशल अपील संख्या 1470/2012
- पीठ: जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी और जस्टिस अनीश कुमार गुप्ता

