दिल्ली हाईकोर्ट का अहम फैसला: ट्रेनिंग के दौरान ‘आदतन अनुपस्थिति’ पर प्रोबेशनरी कॉन्स्टेबल की बर्खास्तगी सही; ट्रिब्यूनल का आदेश रद्द

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) के आदेश को पलटते हुए दिल्ली पुलिस के एक प्रोबेशनरी कॉन्स्टेबल की बर्खास्तगी को सही ठहराया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ट्रेनिंग के दौरान “समग्र अनुपयुक्तता” (overall unsuitability) के आधार पर सेवा समाप्ति कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं है, जिसके लिए संविधान के अनुच्छेद 311(2) के तहत विभागीय जांच की आवश्यकता हो।

जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस मधु जैन की खंडपीठ ने कहा कि प्रतिवादी की बार-बार अनधिकृत अनुपस्थिति केवल उसकी उपयुक्तता का आकलन करने का “उद्देश्य” (motive) थी, न कि सजा देने का “आधार” (foundation)।

मामले का संक्षिप्त विवरण

यह मामला एनसीटी दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम देवेंद्र सिंह से संबंधित है। सरकार ने न्यायाधिकरण (CAT) के 23 मई, 2023 के उस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें देवेंद्र सिंह को सेवा में बहाल करने और उन्हें सभी काल्पनिक लाभ (notional benefits) देने का निर्देश दिया गया था।

देवेंद्र सिंह का चयन 2011-2012 की भर्ती प्रक्रिया में दिल्ली पुलिस में कॉन्स्टेबल (एग्जीक्यूटिव) के पद पर अनंतिम रूप से हुआ था। उन्होंने 4 अक्टूबर, 2012 को पुलिस ट्रेनिंग स्कूल, वजीराबाद में ट्रेनिंग शुरू की। ट्रेनिंग के दौरान, वह बिना अनुमति के पांच अलग-अलग मौकों पर अनुपस्थित पाए गए। इसके परिणामस्वरूप, 11 जनवरी, 2013 को पुलिस उपायुक्त/वाइस प्रिंसिपल, पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज ने केंद्रीय सिविल सेवा (अस्थायी सेवा) नियम, 1965 के नियम 5(1) के तहत उनकी सेवाएं समाप्त कर दीं।

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इसके बाद, पुलिस आयुक्त ने 22 मई, 2013 को उनकी वैधानिक अपील भी खारिज कर दी। इसके खिलाफ सिंह ने ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाया, जिसने उनकी बर्खास्तगी को रद्द कर दिया था। इसी फैसले के खिलाफ सरकार ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी।

पक्षकारों की दलीलें

याचिकाकर्ता (दिल्ली सरकार) की ओर से पेश वकील श्री विनय यादव ने तर्क दिया कि यह एक “साधारण बर्खास्तगी” (termination simpliciter) थी। उन्होंने कहा कि प्रोबेशन के दौरान अनुशासन बनाए रखने में विफल रहने के कारण प्रतिवादी को “आदतन अनुपस्थित” और पुलिस बल के लिए “अयोग्य” पाया गया। उन्होंने जोर देकर कहा कि 11 जनवरी, 2013 का बर्खास्तगी आदेश किसी भी तरह का कलंक (stigma) नहीं लगाता है और अपीलीय प्राधिकारी द्वारा बाद में दिए गए कारणों से प्रशासनिक कार्रवाई दंडात्मक नहीं बन जाती।

प्रतिवादी (देवेंद्र सिंह) की ओर से वकील श्री सचिन चौहान ने तर्क दिया कि बर्खास्तगी वास्तव में दंडात्मक थी। उन्होंने अपीलीय प्राधिकारी के आदेश का हवाला दिया, जिसमें अनुपस्थिति को “गंभीर कदाचार” (serious misconduct) कहा गया था। उनका कहना था कि जब बर्खास्तगी “कदाचार” के आरोपों पर आधारित हो, तो संविधान के अनुच्छेद 311(2) के तहत नियमित विभागीय जांच अनिवार्य है। उन्होंने यह भी दलील दी कि उनकी अनुपस्थिति बीमारी के कारण थी और इसे बाद में नियमित कर दिया गया था, इसलिए सेवा समाप्ति का आदेश बहुत कठोर था।

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कोर्ट का विश्लेषण

हाईकोर्ट ने मुख्य रूप से इस बात पर विचार किया कि क्या नियम 5(1) के तहत की गई बर्खास्तगी वास्तव में “साधारण” थी या यह “दंडात्मक” थी।

पीठ ने बर्खास्तगी के मामलों में “उद्देश्य” (motive) और “आधार” (foundation) के बीच के अंतर को स्पष्ट किया। गवर्नमेंट ऑफ एनसीटी ऑफ दिल्ली बनाम दलबीर सिंह (2023) और सुप्रीम कोर्ट के स्टेट ऑफ पंजाब बनाम सुखविंदर सिंह (2005) के फैसलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा:

“यदि किसी प्रोबेशनरी कर्मचारी की उपयुक्तता निर्धारित करने के लिए जांच की जाती है और उसके आधार पर सेवा समाप्त की जाती है, तो आदेश दंडात्मक नहीं होगा। लेकिन, यदि कदाचार के आरोप हैं और उस कदाचार की सच्चाई जानने के लिए जांच की जाती है… तो आदेश दंडात्मक माना जाएगा।”

कोर्ट ने 11 जनवरी, 2013 के मूल बर्खास्तगी आदेश की जांच की और पाया कि यह पूरी तरह से “निर्दोष और साधारण प्रकृति” का था। इसमें केवल यह कहा गया था कि सेवाएं तत्काल प्रभाव से समाप्त की जाती हैं और इसके बदले में एक महीने का वेतन दिया जाएगा।

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प्रतिवादी के इस दावे पर कि अपीलीय आदेश में “कदाचार” शब्द का उपयोग इसे कलंकपूर्ण बनाता है, कोर्ट ने स्पष्ट किया:

“अपीलीय प्राधिकारी द्वारा अपने आदेश में दर्ज कारण केवल व्याख्यात्मक प्रकृति के थे और वे मूल बर्खास्तगी आदेश के चरित्र को बदल नहीं सकते।”

हाईकोर्ट ने ट्रिब्यूनल के इस सिद्धांत को खारिज कर दिया कि अपीलीय आदेश मूल आदेश के साथ विलीन (merge) हो गया था। कोर्ट ने कहा कि अनुपस्थिति की घटनाएं केवल उनकी “समग्र अनुपयुक्तता” (overall unsuitability) के बारे में राय बनाने का कारण थीं, न कि सजा देने का आधार।

फैसला

दिल्ली हाईकोर्ट ने माना कि बर्खास्तगी आदेश न तो कलंकपूर्ण था और न ही किसी कदाचार के आरोप पर आधारित था, इसलिए अनुच्छेद 311(2) का संरक्षण यहां लागू नहीं होता।

पीठ ने निष्कर्ष निकाला:

“परिणामस्वरूप, विद्वान न्यायाधिकरण द्वारा ओ.ए. संख्या 660/2017 में पारित 23.05.2023 का आक्षेपित आदेश बरकरार नहीं रखा जा सकता और इसे एतद्द्वारा रद्द किया जाता है। अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा पारित 11.01.2013 का बर्खास्तगी आदेश बहाल रहेगा।”

याचिका का निपटारा करते हुए कोर्ट ने कोई भी लागत (cost) लगाने का आदेश नहीं दिया।

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