“जिरह का मतलब यह नहीं कि क्या पूछना है, बल्कि यह कि क्या नहीं पूछना है”: दिल्ली हाईकोर्ट ने बचाव पक्ष के सवाल पर दस्तावेज पेश करने की अनुमति को सही ठहराया

दिल्ली हाईकोर्ट ने निचली अदालत के उस आदेश को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें वादी (plaintiff) को सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के ऑर्डर VII रूल 14 के तहत अतिरिक्त दस्तावेज रिकॉर्ड पर रखने की अनुमति दी गई थी। जस्टिस गिरीश कठपालिया ने स्पष्ट किया कि बचाव पक्ष (defendants) ने खुद जिरह (cross-examination) के दौरान वादी के स्वामित्व को चुनौती देकर इन दस्तावेजों को पेश करने की आवश्यकता पैदा की। कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि “जिरह का मतलब यह नहीं है कि क्या पूछना है, बल्कि यह है कि क्या नहीं पूछना है।”

इस मामले में मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि क्या निचली अदालत का वादी को जिरह के चरण में दस्तावेज (कन्वेंस डीड और रसीदें) दाखिल करने की अनुमति देना सही था, जो मुकदमे के दायर होने और आरोप तय (framing of issues) होने के बाद अस्तित्व में आए थे। हाईकोर्ट ने 19 अगस्त, 2025 के निचली अदालत के फैसले में कोई त्रुटि नहीं पाई और उसे बरकरार रखा।

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मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ताओं (मूल मुकदमे में प्रतिवादी) ने हाईकोर्ट में निचली अदालत के आदेश को चुनौती दी थी। निचली अदालत ने वादी की अर्जी स्वीकार करते हुए उन्हें 27 सितंबर, 2023 की कन्वेंस डीड (जो 11 अक्टूबर, 2023 को पंजीकृत हुई), प्राधिकरण पर्ची (authorization slip), 8 अक्टूबर, 2023 की पंजीकरण शुल्क रसीद और 6 अक्टूबर, 2023 की नगर निगम कर रसीद रिकॉर्ड पर रखने की अनुमति दी थी।

मूल मुकदमा 28 सितंबर, 2021 को दायर किया गया था और 20 अक्टूबर, 2022 को इश्यूज फ्रेम किए गए थे। यह एक स्वीकार्य तथ्य था कि ये दस्तावेज मुकदमा दायर करने या इश्यूज फ्रेम करने के समय अस्तित्व में नहीं थे।

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ताओं/प्रतिवादियों के वकील ने तर्क दिया कि निचली अदालत का आदेश कानूनी रूप से अस्थिर है। उनका कहना था कि हालांकि दस्तावेज सितंबर-अक्टूबर 2023 में अस्तित्व में आए थे, लेकिन वादी ने उन्हें तुरंत दाखिल नहीं किया। इसके बजाय, वादी ने नवंबर 2024 तक का इंतजार किया और देरी का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया।

कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां

जस्टिस गिरीश कठपालिया ने नोट किया कि यह स्वीकार्य स्थिति है कि सितंबर-अक्टूबर 2023 से पहले दस्तावेज अस्तित्व में नहीं थे। कोर्ट ने वादी की जिरह के दौरान हुए एक विशिष्ट प्रश्नोत्तर पर विशेष जोर दिया।

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कोर्ट ने जिरह के उस हिस्से का उल्लेख किया:

प्रश्न: “मैं आपसे कहता हूं कि आपने अपना स्वामित्व दिखाने के लिए कोई दस्तावेज नहीं रखा है क्योंकि आप संपत्ति के मालिक नहीं हैं।”

उत्तर: “यह सही है। (स्वेच्छा से कहा) मेरे पास संपत्ति में अपना स्वामित्व साबित करने के लिए सभी दस्तावेज हैं।”

कोर्ट ने कहा कि CPC के ऑर्डर VII रूल 14 के तहत आवेदन “इस प्रश्न और उत्तर की पृष्ठभूमि में” आवश्यक हो गया था। जस्टिस कठपालिया ने जिरह की कला के संबंध में एक महत्वपूर्ण अवलोकन किया:

“जिरह (cross-examination) का मतलब यह नहीं है कि क्या पूछना है, बल्कि यह है कि क्या नहीं पूछना है। दस्तावेज रिकॉर्ड पर थे या नहीं, यह केवल रिकॉर्ड का मामला था। यह याचिकाकर्ताओं/प्रतिवादियों ने ही ऐसी स्थिति पैदा की जिससे वादी को ऑर्डर VII रूल 14 CPC के तहत आवेदन करने की आवश्यकता महसूस हुई।”

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कोर्ट ने तर्क दिया कि चूंकि वादी ने अपने जवाब में स्पष्ट रूप से कहा था कि उसके पास स्वामित्व साबित करने के लिए सभी दस्तावेज हैं, इसलिए यदि वह उन्हें रिकॉर्ड पर रखने का अवसर नहीं मांगता, तो उसके खिलाफ “प्रतिकूल निष्कर्ष” (adverse inference) निकाला जा सकता था।

निर्णय

यह पाते हुए कि प्रतिवादियों की पूछताछ की लाइन ने ही स्वामित्व के प्रमाण दाखिल करना आवश्यक बना दिया था, हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि निचली अदालत के आदेश में कोई कमी नहीं है। कोर्ट ने याचिका और साथ में दिए गए आवेदनों को खारिज कर दिया और मामले में नोटिस जारी करने से इनकार कर दिया।

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