इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि असंज्ञेय अपराध (Non-cognizable offence) के संबंध में दाखिल की गई पुलिस रिपोर्ट (चार्जशीट) को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के तहत “परिवाद” (Complaint) माना जाना चाहिए। कोर्ट ने व्यवस्था दी कि ऐसे मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा इसे “राज्य वाद” (State case) के रूप में मानते हुए धारा 210(1)(b) के तहत संज्ञान लेना त्रुटिपूर्ण है, जबकि इसे “परिवाद वाद” (Complaint case) के रूप में धारा 210(1)(a) के तहत देखा जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार गिरि ने प्रेमपाल और 3 अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (आवेदन धारा 528 BNSS संख्या 1624/2025) के मामले में फैसला सुनाते हुए न्यायिक मजिस्ट्रेट, तिलहर, जिला शाहजहांपुर द्वारा पारित संज्ञान-सह-समन आदेश को रद्द कर दिया और मामले को कानून के अनुसार नए सिरे से आदेश पारित करने के लिए वापस भेज दिया (remand)।
मामले का संक्षिप्त सारांश
कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट पर किसी असंज्ञेय अपराध का संज्ञान “राज्य वाद” के रूप में ले सकते हैं, या इसे “परिवाद” माना जाना चाहिए। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि BNSS की धारा 2(1)(h) के स्पष्टीकरण (Explanation) के तहत, ऐसी रिपोर्ट को परिवाद माना जाता है। नतीजतन, कोर्ट ने 11 अक्टूबर, 2024 के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसके तहत मजिस्ट्रेट ने परिवाद मामलों की प्रक्रिया का पालन किए बिना भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 115(2) और 352 के तहत याचियों को समन किया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद पड़ोसियों के बीच शौचालय के गंदे पानी की निकासी को लेकर शुरू हुआ था। शिकायतकर्ता रामनाथ (विपक्षी संख्या 2) का आरोप था कि याची प्रेमपाल और उनके परिवार के सदस्यों ने शौचालय की नाली का निर्माण गलत तरीके से किया, जिससे गंदा पानी उनके घर के सामने बहने लगा।
आरोप है कि 10 अगस्त, 2024 को जब रामनाथ ने शिकायत की, तो उनके साथ गाली-गलौज और मारपीट की गई। इस घटना के संबंध में BNS की धारा 115(2) (स्वेच्छा से चोट पहुंचाना) और धारा 352 (शांति भंग करने के इरादे से अपमान करना) के तहत एक असंज्ञेय रिपोर्ट (NCR) संख्या 178/2024 दर्ज की गई थी।
मजिस्ट्रेट द्वारा BNSS की धारा 174(2) के तहत जांच का आदेश दिए जाने के बाद, पुलिस ने 5 अक्टूबर, 2024 को चार्जशीट दाखिल की। न्यायिक मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट पर अपराधों का संज्ञान लिया और आरोपी याचियों को तलब कर लिया।
पक्षों की दलीलें
याचियों के अधिवक्ता, शाहीन बानो और शाहनवाज खान ने तर्क दिया कि आरोप झूठे हैं और उन्हें परेशान करने के लिए लगाए गए हैं। मुख्य कानूनी तर्क यह था कि BNS की धारा 115(2) और 352 के तहत अपराध असंज्ञेय हैं और इसमें दो साल (या उससे कम) की सजा का प्रावधान है।
अधिवक्ता ने दलील दी कि मजिस्ट्रेट ने प्रक्रियात्मक गलती की है। उन्होंने BNSS की धारा 2(1)(h) के स्पष्टीकरण की अनदेखी करते हुए धारा 210(1)(b) (पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान) के तहत संज्ञान लिया, जबकि इसे परिवाद माना जाना चाहिए था। यह तर्क दिया गया कि मजिस्ट्रेट को परिवाद मामले की प्रक्रिया का पालन करना चाहिए था, जिसमें शिकायतकर्ता का बयान दर्ज करना शामिल है।
राज्य की ओर से विद्वान ए.जी.ए. प्रतीक त्यागी ने तर्क दिया कि इस स्तर पर तथ्यात्मक पहलुओं की जांच नहीं की जा सकती और उन्होंने आदेश का बचाव किया।
कोर्ट का विश्लेषण
कोर्ट ने BNSS के प्रावधानों, विशेष रूप से “परिवाद” और “पुलिस रिपोर्ट” की परिभाषाओं और संज्ञान लेने की प्रक्रिया का बारीकी से विश्लेषण किया।
न्यायमूर्ति गिरि ने BNSS की धारा 2(1)(h) के स्पष्टीकरण का हवाला देते हुए कहा: “पुलिस अधिकारी द्वारा किसी मामले में की गई रिपोर्ट, जो जांच के बाद असंज्ञेय अपराध का खुलासा करती है, उसे परिवाद समझा जाएगा; और जिस पुलिस अधिकारी ने ऐसी रिपोर्ट की है, उसे शिकायतकर्ता (Complainant) समझा जाएगा।”
कोर्ट ने नोट किया कि प्रश्नगत अपराध असंज्ञेय और जमानती थे। इसलिए, मजिस्ट्रेट को चार्जशीट को परिवाद मानना चाहिए था और BNSS की धारा 210(1)(a) के तहत संज्ञान लेना चाहिए था।
कोर्ट ने मजिस्ट्रेट द्वारा की गई कई प्रक्रियात्मक चूकों को रेखांकित किया:
- संज्ञान का स्रोत: मजिस्ट्रेट ने इसे धारा 210(1)(a) के तहत परिवाद मामले के बजाय धारा 210(1)(b) के तहत पुलिस केस मानते हुए संज्ञान लिया।
- सुनवाई का अवसर: कोर्ट ने बताया कि 1 जुलाई, 2024 से प्रभावी BNSS की धारा 223(1) के पहले परंतुक (Proviso) के तहत, “मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपी को सुनवाई का अवसर दिए बिना किसी अपराध का संज्ञान नहीं लिया जाएगा।”
- ट्रायल प्रक्रिया में अंतर: फैसले में परिवाद और पुलिस रिपोर्ट पर आधारित मुकदमों (Trial) के बीच महत्वपूर्ण अंतर को समझाया गया। विशेष रूप से, धारा 279 BNSS के तहत परिवाद मामले में शिकायतकर्ता की अनुपस्थिति या मृत्यु पर आरोपी को बरी (Acquittal) किया जा सकता है, जबकि पुलिस रिपोर्ट पर आधारित मामलों में यह उपचार (Remedy) धारा 281 BNSS के तहत उपलब्ध नहीं है।
कोर्ट ने केशव लाल ठाकुर बनाम बिहार राज्य (1996) और अनुराग यादव व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2020) सहित पिछले फैसलों का हवाला दिया, जिसमें यह स्थापित किया गया है कि असंज्ञेय अपराध में चार्जशीट पर राज्य केस के रूप में संज्ञान लेना अवैध है।
इसके अलावा, कोर्ट ने इस बात को गंभीरता से लिया कि मजिस्ट्रेट ने अपने आदेश पर अपना नाम, पदनाम और ज्यूडिशियल आईडी का उल्लेख नहीं किया था, जो हाईकोर्ट के परिपत्रों (दिनांक 23.08.2018 और 19.07.2023) का उल्लंघन है।
फैसला
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि आक्षेपित आदेश “भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 के प्रावधानों के उल्लंघन” में पारित किया गया था।
न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार गिरि ने निम्नलिखित निर्देश पारित किए:
- आदेश रद्द: 11.10.2024 (याचिका में 11.12.2024 के रूप में उल्लेखित) के संज्ञान-सह-समन आदेश को रद्द कर दिया गया।
- रिमांड: मामले को न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास वापस भेज दिया गया ताकि वे कानून के अनुसार नया आदेश पारित करें।
- विशिष्ट निर्देश: “मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट (चार्जशीट) को, जहां तक यह असंज्ञेय अपराध का खुलासा करती है, ‘परिवाद’ के रूप में मानेंगे और उसके बाद कानून के अनुसार सख्ती से आगे बढ़ेंगे।”
- मजिस्ट्रेट को चेतावनी: मजिस्ट्रेट को भविष्य में अधिक सावधानी बरतने और आदेशों पर अपने नाम, पदनाम और आईडी के साथ हस्ताक्षर करने के निर्देश का सख्ती से पालन करने को कहा गया।
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि किसी आरोपी को तलब करना (Summoning) केवल न्यायिक नोटिस लेना है और यह दोष या निर्दोषता का निर्धारण नहीं है। इन टिप्पणियों के साथ आवेदन का निस्तारण कर दिया गया।




