छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने प्रयोगशाला तकनीशियनों (Laboratory Technicians) द्वारा दायर एक याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्होंने राज्य सरकार को सेवा नियमों में संशोधन करने और पदोन्नति के अवसर (Promotional Avenues) बनाने का निर्देश देने की मांग की थी। चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बिभु दत्ता गुरु की डिवीजन बेंच ने स्पष्ट किया कि पदों का सृजन, कैडर की संरचना और भर्ती नियमों में संशोधन विशेष रूप से कार्यपालिका (Executive) और विधायिका (Legislative) के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, और कोर्ट राज्य को इन शक्तियों का प्रयोग करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला डॉ. ओम प्रकाश शर्मा व अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य व अन्य (WPS No. 3214 of 2024) से संबंधित है। याचिकाकर्ता छत्तीसगढ़ के विभिन्न सरकारी कॉलेजों में कार्यरत छह प्रयोगशाला तकनीशियन हैं, जो म.प्र. तृतीय श्रेणी सेवा भर्ती और पदोन्नति (महाविद्यालय शाखा) नियम, 1974 द्वारा शासित होते हैं।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि वे पिछले लगभग 22 से 25 वर्षों से एक ही पद (Single-cadre post) पर काम कर रहे हैं और उनके लिए पदोन्नति का कोई अवसर उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के तौर पर, याचिकाकर्ता नंबर 1 ने 1985 में सेवा शुरू की थी और 1989 में नियमित हुए थे। उनके पास मास्टर्स डिग्री और पीएचडी जैसी उच्च योग्यताएं होने के बावजूद, और राज्य द्वारा प्रयोगशाला तकनीशियनों को सेवानिवृत्ति आयु और छुट्टियों के उद्देश्य से “टीचिंग स्टाफ” माने जाने के बावजूद, 1974 के नियमों में पदोन्नति का कोई प्रावधान नहीं किया गया।
याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि उच्च शिक्षा विभाग के अन्य कर्मचारियों के पास पदोन्नति के अवसर हैं, जबकि प्रयोगशाला तकनीशियनों को करियर में ठहराव (Stagnation) का सामना करना पड़ता है और वे 40 साल से अधिक की सेवा के बाद उसी पद से सेवानिवृत्त होने को मजबूर हैं। उन्होंने हाईकोर्ट से ‘परमादेश’ (Mandamus) की मांग की थी कि अधिकारियों को 1974 के नियमों में संशोधन करने और पदोन्नति के अवसर बनाने का निर्देश दिया जाए।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता श्री सोमकांत वर्मा और श्री ऋषि कांत महोबिया ने तर्क दिया कि राज्य की निष्क्रियता मनमानी है और यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि “पदोन्नति सेवा की एक सामान्य घटना और शर्त है, जो सार्वजनिक रोजगार में दक्षता बनाए रखने के लिए आवश्यक है,” और राज्य का संवैधानिक दायित्व है कि वह उचित पदोन्नति के अवसर प्रदान करे।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार जैसे राज्यों में प्रयोगशाला तकनीशियन लेक्चरर या असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर पदोन्नति के पात्र हैं।
राज्य की ओर से डिप्टी गवर्नमेंट एडवोकेट श्री एस.एस. बघेल ने याचिका का विरोध किया। उन्होंने दलील दी कि पदों का सृजन या समाप्ति, कैडर की संरचना और भर्ती के स्रोतों का निर्धारण “विशेष रूप से नियोक्ता (Employer) के अधिकार क्षेत्र” में आता है। उन्होंने कहा कि कोर्ट पदों के सृजन का निर्देश नहीं दे सकता या कार्यपालिका को सेवा नियमों में संशोधन के लिए मजबूर नहीं कर सकता।
राज्य ने यह भी बताया कि याचिकाकर्ताओं को कोई वित्तीय नुकसान नहीं हुआ है क्योंकि उन्हें समयबद्ध उच्च वेतनमान (Time-bound higher pay scales) का लाभ दिया गया है। रिकॉर्ड के अनुसार, याचिकाकर्ताओं को 2001, 2009 और 2019 में उच्च वेतनमान प्राप्त हुआ है।
कोर्ट का विश्लेषण
डिवीजन बेंच ने नीति और कैडर प्रबंधन के मामलों में अदालतों के अधिकार क्षेत्र के संबंध में स्थापित कानूनी स्थिति की जांच की। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले ऑफिशियल लिक्विडेटर बनाम दयानंद व अन्य (2008) 10 SCC 1 का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि पदों का सृजन और समाप्ति विशेष रूप से कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में है।
कोर्ट ने डिविजनल मैनेजर, अरावली गोल्फ क्लब व अन्य बनाम चंदर हास व अन्य (2008) 1 SCC 683 के फैसले पर भी भरोसा जताया, जिसमें कहा गया था:
“अदालत पदों के सृजन का निर्देश नहीं दे सकती। पदों का सृजन और मंजूरी कार्यपालिका या विधायी अधिकारियों का विशेषाधिकार है और अदालत खुद इस कार्य को अपने हाथ में नहीं ले सकती है।”
इन सिद्धांतों को लागू करते हुए, हाईकोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ताओं द्वारा मांगी गई राहत—1974 के नियमों में संशोधन का निर्देश—कानूनी रूप से मान्य नहीं है। कोर्ट ने कहा:
“यह कोर्ट राज्य को पदों के सृजन या मंजूरी के लिए बाध्य नहीं कर सकता है, और न ही यह नई पदोन्नति पदानुक्रम (Promotional Hierarchies) शुरू करने के लिए वैधानिक भर्ती नियमों में संशोधन का आदेश दे सकता है।”
करियर में ठहराव (Stagnation) के मुद्दे पर, बेंच ने नोट किया कि याचिकाकर्ताओं को समय-समय पर उच्च वेतनमान का लाभ मिला है। कोर्ट ने टिप्पणी की:
“सेवा न्यायशास्त्र (Service Jurisprudence) में, पदोन्नति के अभाव में भी उच्च वेतनमान के माध्यम से वित्तीय प्रगति को ठहराव को दूर करने के लिए नियोक्ता द्वारा अपनाया गया एक वैध तरीका माना जाता है।”
अन्य राज्यों का उदाहरण देने पर कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अंतर-राज्यीय सेवा संरचनाओं में भिन्नता कोई कानूनी अधिकार प्रदान नहीं करती है और इसका उपयोग इस राज्य को समान संरचनाएं अपनाने का निर्देश देने के लिए नहीं किया जा सकता है।
फैसला
हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि जब तक कोई नियम स्पष्ट रूप से असंवैधानिक न हो, कोर्ट नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। बेंच ने राज्य को 1974 के नियमों में संशोधन करने या याचिकाकर्ताओं के लिए पदोन्नति के अवसर बनाने का निर्देश देने का कोई कानूनी औचित्य नहीं पाया।
तदनुसार, रिट याचिका खारिज कर दी गई।




