दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि मकान मालिक और किरायेदार के बीच किया गया कोई भी ऐसा समझौता कानूनी रूप से मान्य नहीं होगा, जो मकान मालिक को उसकी वास्तविक आवश्यकता (Bona fide requirement) के आधार पर बेदखली की याचिका दायर करने से रोकता हो। कोर्ट ने कहा कि वैधानिक अधिकारों को समझौते द्वारा हमेशा के लिए खत्म नहीं किया जा सकता।
जस्टिस अनूप जयराम भंभानी की पीठ ने 1940 के दशक से एक दुकान पर काबिज किरायेदारों द्वारा दायर पुनर्विचार याचिका (Review Petition) को खारिज करते हुए उन पर 50,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया। कोर्ट ने कहा कि दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम (DRC Act) की धारा 14(1)(e) के तहत मकान मालिक के अधिकार को किसी भी समझौते (Compromise Deed) द्वारा छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा अनुबंध भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 23 और 28 के तहत शून्य (Void) है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला दिल्ली के एक थोक बाजार (Wholesale Market) में स्थित एक दुकान से जुड़ा है, जिस पर याचिकाकर्ता (किरायेदार) पिछले लगभग 85 वर्षों से काबिज थे। दुकान का अंतिम भुगतान किया गया किराया 2,178 रुपये प्रति माह था।
निचली अदालत (Rent Controller) ने 28 अगस्त 2018 को मकान मालिक की ‘बोनाफाइड जरूरत’ को सही मानते हुए दुकान खाली करने का आदेश दिया था। इस आदेश को चुनौती देने वाली पुनरीक्षण याचिका को हाईकोर्ट ने 5 अगस्त 2025 को खारिज कर दिया था। इसके बाद किरायेदारों ने उसी आदेश की समीक्षा के लिए यह पुनर्विचार याचिका दायर की थी।
पक्षकारों की दलीलें
किरायेदारों की ओर से पेश वकील श्री त्रिलोक नाथ सक्सेना ने मुख्य रूप से दो तर्क दिए:
- वैधानिक अधिकार का त्याग (Waiver of Statutory Right): याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 28 अगस्त 2008 को पूर्व में हुई एक बेदखली याचिका में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ था। उस समझौते में मकान मालिकों (प्रतिवादियों के पूर्वजों) ने स्पष्ट रूप से सहमति दी थी कि वे भविष्य में कभी भी धारा 14(1)(e) के तहत वर्तमान किरायेदारों के खिलाफ केस दायर नहीं करेंगे। यह समझौता किराया 38 रुपये से बढ़ाकर 1800 रुपये करने के बदले में किया गया था। वकील ने तर्क दिया कि यह मकान मालिक द्वारा अपने अधिकारों का ‘त्याग’ (Waiver) था, जो कानूनी रूप से बाध्यकारी होना चाहिए।
- वक्फ संपत्ति का बंटवारा: याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि विवादित संपत्ति एक ‘वक्फ संपत्ति’ है और कानूनन वक्फ संपत्ति का बंटवारा नहीं किया जा सकता। उन्होंने 14 मई 2016 के बंटवारे के विलेख (Partition Deed) को चुनौती देते हुए कहा कि इससे वक्फ की प्रकृति बदल गई है, जो कि अवैध है।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और फैसला
समझौते की वैधता पर (On Validity of Compromise)
हाईकोर्ट ने किरायेदारों की इस दलील को पूरी तरह खारिज कर दिया कि 2008 का समझौता मकान मालिकों को बेदखली याचिका दायर करने से रोकता है।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा:
“इस अदालत की राय में, ये दलीलें भ्रामक और अस्थिर हैं। ऐसा कोई भी समझौता प्रतिवादियों को DRC अधिनियम की धारा 14(1)(e) के तहत बेदखली याचिका दायर करने से नहीं रोक सकता। यह तय कानून है कि कानूनी उपाय (Legal Remedy) को रोकने वाला अनुबंध भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 28 और धारा 23 के तहत शून्य (Void) है, भले ही ऐसे अनुबंध के लिए कोई भी प्रतिफल (Consideration) क्यों न लिया गया हो।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि मकान मालिक या उनके पूर्वज यह स्वीकार नहीं कर सकते कि उन्हें या उनके परिवार को भविष्य में कभी भी संपत्ति की जरूरत नहीं होगी, क्योंकि ‘बोनाफाइड जरूरत’ भविष्य में किसी भी समय उत्पन्न हो सकती है।
वक्फ संपत्ति के बंटवारे पर
संपत्ति के मालिकाना हक के मुद्दे पर हाईकोर्ट ने रेंट कंट्रोलर के निष्कर्षों को सही ठहराया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बेदखली याचिका में मकान मालिक को पूर्ण ‘टाइटल’ (Title) साबित करने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि उसे केवल यह साबित करना होता है कि उसका अधिकार किरायेदार से बेहतर है।
कोर्ट ने कहा कि 2016 के विलेख के जरिए केवल संपत्ति की देखरेख, किराया वसूलने और किरायेदारों को हटाने का अधिकार ‘मुतवल्ली’ (प्रबंधक) के रूप में स्थानांतरित किया गया था। यह वक्फ संपत्ति का विभाजन नहीं था, इसलिए संपत्ति की प्रकृति बदलने का सवाल ही नहीं उठता।
इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि चूंकि किरायेदारों ने प्रतिवादियों के पिता को किराया दिया था और उन्हें अपना मकान मालिक स्वीकार किया था, इसलिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 116 के तहत अब वे उनके मकान मालिक होने के अधिकार को चुनौती नहीं दे सकते (Estoppel)।
निर्णय
हाईकोर्ट ने पाया कि रिकॉर्ड पर ऐसी कोई गलती नहीं है जिसके आधार पर पुराने आदेश की समीक्षा की जाए। कोर्ट ने इस बात पर कड़ी नाराजगी जताई कि सभी बिंदुओं पर पहले ही विस्तृत निर्णय दिए जाने और 85 वर्षों से संपत्ति पर काबिज होने के बावजूद किरायेदारों ने यह याचिका दायर की।
जस्टिस भंभानी ने आदेश दिया:
“याचिकाकर्ताओं के आचरण को देखते हुए… वर्तमान याचिका को 50,000 रुपये के जुर्माने के साथ खारिज किया जाता है।”
यह जुर्माना राशि ‘फ्रेंडिकोज एसईसीए’ (Friendicoes SECA) को चार सप्ताह के भीतर जमा करानी होगी।
केस विवरण:
- केस शीर्षक: मोहम्मद याह्या और अन्य बनाम फरत आरा और अन्य
- केस नंबर: RC.REV. 120/2019 (Review Pet. 466/2025)
- बेंच: जस्टिस अनूप जयराम भंभानी
- साइटेशन: 2025:DHC:10097




