सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि यदि भूमि अधिग्रहण के मुआवजे को लेकर सरकार और भूस्वामियों के बीच स्वेच्छा से कोई वैधानिक समझौता हो चुका है, तो उसके बाद भूस्वामी अतिरिक्त लाभ या ब्याज के लिए वैधानिक प्रावधानों का सहारा नहीं ले सकते।
जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस नोंगमईकपम कोटेश्वर सिंह की पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें भूस्वामियों द्वारा मुआवजे की राशि तय करने वाले समझौते पर हस्ताक्षर करने के बावजूद उन्हें ब्याज देने का निर्देश दिया गया था। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि तमिलनाडु इंडस्ट्रियल पर्पस लैंड एक्विजिशन एक्ट, 1997 (1997 अधिनियम) की धारा 7(2) के तहत किया गया समझौता अपने आप में एक “पूर्ण पैकेज” है और इसके बाद धारा 12 के तहत ब्याज की मांग नहीं की जा सकती।
कानूनी मुद्दा और परिणाम
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था: “क्या एक पक्षकार, जिसने स्वेच्छा से और वैधानिक रूप से एक संपन्न अनुबंध (concluded contract) किया है, वह बाद में वैधानिक प्रावधानों की आड़ लेकर और राहत की मांग कर सकता है?”
अदालत ने इसका नकारात्मक उत्तर देते हुए तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर अपीलों को स्वीकार कर लिया। पीठ ने माना कि हाईकोर्ट ने धारा 7(2) के तहत हुए स्वैच्छिक समझौते के मामले में धारा 12 (जो ब्याज के भुगतान से संबंधित है) को लागू करके त्रुटि की है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद कोयंबटूर जिले के सिंगनल्लूर और कालापट्टी गांवों की जमीनों से जुड़ा है। ये जमीनें मूल रूप से 1942 में रक्षा विभाग को पट्टे पर दी गई थीं और बाद में भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण (AAI) को हस्तांतरित कर दी गईं।
वर्ष 2011 में, कोयंबटूर हवाई अड्डे के रनवे के विस्तार के लिए 1997 अधिनियम के तहत इन जमीनों के अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की गई। मुआवजे और पट्टे के बकाया को लेकर लंबी मुकदमेबाजी के बाद, पक्षकारों ने मामले को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने के लिए 1997 अधिनियम की धारा 7(2) का सहारा लिया। 6 मार्च 2018 को हुई एक बैठक में सहमति बनी, जिसमें आवासीय भूमि के लिए 1,500 रुपये प्रति वर्ग फुट और कृषि भूमि के लिए 900 रुपये प्रति वर्ग फुट की दर से मुआवजा तय किया गया।
तमिलनाडु सरकार ने 20 नवंबर 2019 के एक शासनादेश के माध्यम से इन दरों को मंजूरी दी और मुआवजे के लिए 189.29 करोड़ रुपये स्वीकृत किए।
हालांकि, मद्रास हाईकोर्ट ने अपने 18 अगस्त 2020 के फैसले में, यह स्वीकार करते हुए भी कि समझौता एक “पूर्ण पैकेज” था और सोलेशियम (solatium) के दावों को खारिज करते हुए, 1997 अधिनियम की धारा 12 के तहत ब्याज के भुगतान का निर्देश दे दिया। हाईकोर्ट ने धारा 3(2) की अधिसूचना की तारीख से फैसले की तारीख तक ब्याज देने का आदेश दिया था।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता (तमिलनाडु सरकार): वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए तर्क दिया कि बातचीत से तय किया गया मुआवजा 2011 के प्रचलित गाइडलाइन मूल्य से 250% अधिक था। राज्य ने दलील दी कि चूंकि भूस्वामियों ने स्वेच्छा से इस मुआवजे पर सहमति जताई थी, इसलिए अब वे इसके विपरीत दावा नहीं कर सकते (Estoppel)। उनका कहना था कि धारा 7(2) के तहत समझौता होने के बाद किराया और ब्याज सहित सभी विवाद समाप्त हो जाते हैं, और हाईकोर्ट ने धारा 12 को लागू करके गलती की है।
प्रतिवादी (भूस्वामी): वरिष्ठ अधिवक्ता श्री एस. नागामुथु ने भूस्वामियों की ओर से तर्क दिया कि समझौते में धारा 12 को स्पष्ट रूप से बाहर नहीं रखा गया था। उन्होंने कहा कि वे “उचित और निष्पक्ष मुआवजे” के हकदार हैं और हाईकोर्ट ने इस तथ्य पर सही विचार किया है कि उन्होंने अपनी जमीन का कब्जा बहुत पहले खो दिया था।
न्यायालय का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने 1997 अधिनियम की योजना, विशेष रूप से धारा 7 और 12 का विस्तार से विश्लेषण किया।
धारा 7(2) के तहत समझौतों की प्रकृति: कोर्ट ने कहा कि धारा 7(2) आपसी समझौते के माध्यम से मुआवजे के निर्धारण की सुविधा देती है। पीठ ने टिप्पणी की:
“इसलिए, एक बार समझौता हो जाने के बाद, उसमें उल्लिखित नियम और शर्तें, तय की गई राशि के साथ, ही पक्षकारों पर लागू होंगी। दूसरे शब्दों में, समझौता सर्वोच्च (sacrosanct) हो जाता है, जिससे 1997 अधिनियम के तहत अवार्ड पारित करने से संबंधित अन्य प्रावधानों से इसका संबंध टूट जाता है।”
धारा 12 (ब्याज) की प्रयोज्यता: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 12, जो कब्जा लेने के समय से भुगतान तक 9% ब्याज का प्रावधान करती है, उन मामलों पर लागू नहीं होती जो आपसी समझौते से निपटाए गए हैं।
“1997 अधिनियम की धारा 12 का उस मामले में कोई आवेदन नहीं है जहां पक्षकारों के बीच कोई समझौता किया गया है। इसका कारण यह है कि धारा 7 के तहत स्वेच्छा से किया गया संपन्न अनुबंध खुद को अधिनियम के दायरे से बाहर कर देता है।”
एप्रोबेट और रिप्रोबेट (Approbate and Reprobate) का सिद्धांत: अदालत ने कहा कि प्रतिवादी समझौते के तहत बढ़े हुए मुआवजे को स्वीकार करते हुए साथ ही वैधानिक ब्याज की मांग करके “एप्रोबेट और रिप्रोबेट” (एक ही समय में स्वीकार और अस्वीकार) का प्रयास कर रहे हैं। कोर्ट ने कहा कि ऐसा नहीं है कि समझौता किसी दबाव या धोखे से किया गया था।
पूर्व निर्णयों का हवाला: फैसले में सहमति अवार्ड और समझौतों की अंतिमत्ता का समर्थन करने के लिए रणवीर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और नोएडा बनाम रविंद्र कुमार जैसे कई प्रमुख निर्णयों का उल्लेख किया गया, जिनमें यह स्थापित किया गया है कि एक बार विवाद सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझ जाने के बाद, उसे एकतरफा नहीं खोला जा सकता।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि हाईकोर्ट ने ब्याज का आदेश देकर प्रभावी रूप से “पक्षकारों के बीच हुए समझौते को फिर से लिख दिया” था। पीठ ने अनुच्छेद 226 के तहत संपन्न अनुबंध में हाईकोर्ट के हस्तक्षेप को अनुचित माना।
अंततः, कोर्ट ने कहा कि विवादित फैसले को कानून की नजर में ब्याज के भुगतान की हद तक बरकरार नहीं रखा जा सकता। परिणामस्वरूप, अपीलें स्वीकार कर ली गईं और हाईकोर्ट द्वारा दिए गए ब्याज के निर्देश को रद्द कर दिया गया।
केस विवरण:
- केस शीर्षक: द गवर्नमेंट ऑफ तमिलनाडु व अन्य बनाम पी.आर. जगन्नाथन व अन्य
- केस संख्या: सिविल अपील (SLP (C) Nos. 12770-83 of 2020 से उद्भुत)
- कोरम: जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस नोंगमईकपम कोटेश्वर सिंह




