दिल्ली हाईकोर्ट ने नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 (एनआई एक्ट) की धारा 138 के तहत एक प्रॉपर्टी डीलर की सजा को बरकरार रखा है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई व्यक्ति किसी समझौता समझौते (Settlement Agreement) के तहत अपनी व्यक्तिगत क्षमता में अपने निजी खाते से चेक जारी करता है, तो वह यह कहकर आपराधिक दायित्व से नहीं बच सकता कि उक्त देनदारी किसी ‘सोसायटी’ या संस्था की थी।
जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा की पीठ ने ट्रायल कोर्ट और सेशंस कोर्ट के फैसलों को सही ठहराते हुए याचिकाकर्ता की पुनरीक्षण याचिका (Revision Petition) खारिज कर दी। कोर्ट ने याचिकाकर्ता को एक साल की साधारण कैद की सजा काटने और 9,72,000 रुपये का जुर्माना भरने के लिए तीन सप्ताह के भीतर सरेंडर करने का निर्देश दिया है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 6 नवंबर, 1987 के एक संपत्ति विवाद से जुड़ा है। याचिकाकर्ता राजेंद्र सिंह, जो पेशे से एक प्रॉपर्टी डीलर हैं, ने आगरा की राधा कुंज कॉलोनी में 167.40 वर्ग गज का एक प्लॉट प्रतिवादी सरोज सिंह को बेचा था। हालांकि, संपत्ति का कब्जा कभी भी प्रतिवादी को नहीं सौंपा गया।
कई वर्षों बाद, 27 सितंबर, 2015 को दोनों पक्षों के बीच एक समझौता हुआ। इसके तहत यह तय हुआ कि याचिकाकर्ता प्रतिवादी को 6,48,000 रुपये का भुगतान करेगा और इसके बदले प्रतिवादी उक्त संपत्ति पर अपना दावा छोड़ देगी। इस समझौते के पालन में याचिकाकर्ता ने चेक जारी किया, लेकिन 11 जनवरी, 2016 को बैंक में प्रस्तुत करने पर चेक बाउंस (Dishonour) हो गया। इसके बाद प्रतिवादी ने एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज कराई।
31 अगस्त, 2020 को साकेत कोर्ट्स के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ता को दोषी ठहराते हुए एक साल की कैद और जुर्माने की सजा सुनाई। 7 जुलाई, 2023 को एडिशनल सेशंस जज ने भी इस फैसले को बरकरार रखा, जिसके बाद याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि विवादित चेक 2015 के समझौते के तहत केवल “अग्रिम प्रतिफल” (Advance Consideration) के रूप में दिया गया था। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रतिवादी ने 1987 की सेल डीड को रद्द न करके समझौते का उल्लंघन किया है, इसलिए चेक प्रस्तुत करने के समय कोई “कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण” (Legally Enforceable Debt) मौजूद नहीं था।
याचिकाकर्ता का मुख्य बचाव यह था कि यदि कोई देनदारी बनती भी है, तो वह “शिव शक्ति एजुकेशनल सोसायटी” की है, न कि उनकी व्यक्तिगत। उन्होंने दावा किया कि वे सोसायटी के केवल एक सदस्य/सचिव के रूप में कार्य कर रहे थे।
दूसरी ओर, प्रतिवादी के वकील ने तर्क दिया कि 2015 का समझौता याचिकाकर्ता ने अपनी व्यक्तिगत क्षमता में स्वेच्छा से किया था। यह भी बताया गया कि चेक सोसायटी के खाते से नहीं, बल्कि याचिकाकर्ता के निजी खाते से जारी किया गया था। वकील ने कहा, “यदि वह सोसायटी की ओर से कार्य कर रहे होते, तो समझौते में इसका स्पष्ट उल्लेख होता।”
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
जस्टिस शर्मा ने सीआरपीसी की धारा 397 के तहत पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार की सीमाओं पर विचार करते हुए कहा कि हाईकोर्ट तथ्यों में गहराई से तभी जा सकता है जब निचले कोर्ट के निष्कर्षों में कोई स्पष्ट अवैधता हो।
दायित्व के मुख्य कानूनी प्रश्न पर, हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले (बीर सिंह बनाम मुकेश कुमार, 2019) का हवाला देते हुए कहा कि एक बार चेक पर हस्ताक्षर स्वीकार कर लिए जाने के बाद, एनआई एक्ट की धारा 118 और 139 के तहत यह कानूनी उपधारणा (Presumption) बन जाती है कि चेक किसी ऋण या दायित्व के निर्वहन के लिए जारी किया गया था। यह साबित करने का भार आरोपी पर है कि ऐसा कोई ऋण नहीं था।
‘सोसायटी की देनदारी’ वाले बचाव को खारिज करते हुए कोर्ट ने पाया कि समझौता ज्ञापन (Ex. CW1/D) पर याचिकाकर्ता ने अपने व्यक्तिगत नाम से हस्ताक्षर किए थे, न कि किसी प्रतिनिधि के रूप में।
कोर्ट ने टिप्पणी की:
“समझौते में केवल आरोपी का नाम और हस्ताक्षर हैं, जिसमें ऐसा कोई संकेत नहीं है कि उसने सोसायटी की ओर से कार्य किया है… दस्तावेज़ की भाषा स्पष्ट है और कहीं भी यह नहीं दर्शाती कि समझौता किसी प्रतिनिधि या प्रत्ययी (Fiduciary) क्षमता में किया गया था।”
फंड के स्रोत के संबंध में कोर्ट ने कहा:
“यह निर्विवाद है कि प्रश्नगत चेक आरोपी के व्यक्तिगत बैंक खाते से जारी किया गया था और उस पर उसी ने हस्ताक्षर किए थे… भले ही यह मान लिया जाए कि मूल देनदारी सोसायटी की थी, लेकिन चूंकि आरोपी ने इस दायित्व को पूरा करने के लिए अपने निजी खाते से चेक जारी किया, इसलिए वह एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत उत्तरदायी होगा।”
कोर्ट ने इस तर्क को भी अस्वीकार कर दिया कि शिकायत में सोसायटी को आरोपी नहीं बनाया गया था, क्योंकि चेक व्यक्तिगत खाते से था, इसलिए सोसायटी को पक्षकार बनाना आवश्यक नहीं था।
निर्णय
दिल्ली हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्ता न तो वैधानिक उपधारणाओं का खंडन कर पाया और न ही यह साबित करने के लिए कोई ठोस सबूत पेश कर सका कि चेक जबरदस्ती लिया गया था या केवल सुरक्षा (Security) के लिए था।
जस्टिस शर्मा ने फैसला सुनाते हुए कहा:
“तदनुसार, यह कोर्ट ट्रायल कोर्ट और सेशंस कोर्ट के समवर्ती निष्कर्षों से सहमत है कि प्रश्नगत चेक कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण के निर्वहन में जारी किया गया था और आरोपी इसके भुगतान के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी है।”
परिणामस्वरूप, याचिका खारिज कर दी गई और याचिकाकर्ता को सजा भुगतने के लिए तीन सप्ताह के भीतर सरेंडर करने का आदेश दिया गया।
केस विवरण:
- केस शीर्षक: राजेंद्र सिंह बनाम सरोज सिंह
- केस नंबर: CRL.REV.P. 19/2024
- पीठ: जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा




