केरल हाईकोर्ट ने बलात्कार और वैवाहिक अपराधों के आरोपी एक व्यक्ति के खिलाफ चल रही आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया है। अदालत ने व्यवस्था दी है कि आठ साल से अधिक समय तक चला यौन संबंध, जो पीड़िता के पति के जीवित रहने के दौरान शुरू हुआ था, उसे बाद में शादी के झूठे वादे के आधार पर बलात्कार (Rape) के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है।
जस्टिस जी. गिरीश की पीठ ने दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 482 के तहत दायर याचिका को स्वीकार करते हुए कहा कि दोनों पक्षों के बीच लंबे समय तक साथ रहना (cohabitation) यह दर्शाता है कि संबंध सहमति पर आधारित था, न कि किसी ‘तथ्य की गलतफहमी’ (misconception of fact) पर।
मामले का संक्षिप्त सार
हाईकोर्ट, तिरुवनंतपुरम की अतिरिक्त सत्र अदालत-IX के समक्ष लंबित कार्यवाही को रद्द करने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई कर रहा था। अदालत ने स्पष्ट किया कि जब संबंध उस समय शुरू हुआ हो जब पीड़िता पहले से ही विवाहित थी, तो यह नहीं कहा जा सकता कि यह संबंध शादी के वादे पर आधारित था। इसके अलावा, पति की मृत्यु के बाद भी लंबे समय तक साथ रहना संबंध की सहमतिपूर्ण प्रकृति को पुख्ता करता है। इसी आधार पर, अदालत ने आईपीसी की धारा 493, 496 और 376 के तहत कार्यवाही को रद्द कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता के खिलाफ फोर्ट पुलिस स्टेशन, तिरुवनंतपुरम के क्राइम नंबर 3053/2017 से उत्पन्न एस.सी. नंबर 802/2019 में मुकदमा चल रहा था। उन पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 493 (विधिक विवाह का विश्वास दिलाकर सहवास करना), धारा 496 (विधिपूर्वक विवाह के बिना कपटपूर्वक विवाह समारोह करना) और धारा 376 (बलात्कार) के तहत आरोप लगाए गए थे।
अभियोजन पक्ष का मामला यह था कि याचिकाकर्ता ने 2009 में शिकायतकर्ता (दो बच्चों की मां और विधवा) से दोस्ती की थी। आरोप था कि याचिकाकर्ता ने शादी का झांसा देकर उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए। महत्वपूर्ण बात यह है कि जब 2009 में यह संबंध शुरू हुआ, तब शिकायतकर्ता का पति जीवित था; उनकी मृत्यु बाद में 22 अक्टूबर 2013 को हुई।
आरोप था कि पति की मृत्यु के बाद भी याचिकाकर्ता शिकायतकर्ता और उसके बच्चों के साथ रहता रहा। जब शिकायतकर्ता ने शादी के लिए जोर दिया, तो याचिकाकर्ता ने कथित तौर पर मोमबत्ती और दीये के सामने उसकी सोने की चेन में गाँठ बांध दी और उसे विश्वास दिलाया कि उनका विवाह हो गया है। यह संबंध 2017 तक चला। बाद में शिकायतकर्ता को पता चला कि याचिकाकर्ता ने आर्यनद में रहने वाली किसी अन्य महिला से शादी कर ली है। जब उससे पूछताछ की गई, तो उसने कथित तौर पर कहा कि वह शिकायतकर्ता को ही अपनी पत्नी मानता है, लेकिन बाद में उसने संबंध तोड़ लिया।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता का पक्ष: याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि लगाए गए आरोपों में से कोई भी कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं है। यह दलील दी गई कि याचिकाकर्ता और शिकायतकर्ता के बीच संबंध पूरी तरह से सहमति से थे और यह बलात्कार का अपराध नहीं बनता है। याचिकाकर्ता ने शादी का प्रस्ताव देने के आरोप से भी इनकार किया।
प्रतिवादी का पक्ष: स्टेशन हाउस ऑफिसर और शिकायतकर्ता (वकील के माध्यम से) ने याचिका का विरोध किया। अभियोजन पक्ष ने शादी के वादे और कथित कपटपूर्ण विवाह समारोह के संबंध में पीड़िता के बयान पर भरोसा जताया।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
1. धारा 493 और 496 आईपीसी के तहत अपराधों पर: अदालत ने सबसे पहले फाइनल रिपोर्ट में शामिल धारा 493 और 496 आईपीसी के तहत अभियोजन की स्वीकार्यता पर विचार किया। जस्टिस जी. गिरीश ने कहा कि Cr.P.C. की धारा 198 के तहत, अदालत इन अपराधों का संज्ञान तब तक नहीं ले सकती जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत (Complaint) न की गई हो।
अदालत ने कहा:
“इसलिए, पुलिस द्वारा धारा 173(2) Cr.P.C. के तहत दायर फाइनल रिपोर्ट में याचिकाकर्ता को धारा 493 और 496 आईपीसी के तहत मुकदमे का सामना करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।”
2. धारा 376 आईपीसी (बलात्कार) के तहत अपराध पर: अदालत ने बारीकी से जांच की कि क्या यौन संबंधों को वैध सहमति की कमी या ‘तथ्य की गलतफहमी’ के तहत प्राप्त सहमति के कारण ‘बलात्कार’ कहा जा सकता है।
अदालत ने मामले की समयसीमा (Timeline) पर गौर किया: संबंध 2009 में शुरू हुए थे, जो शिकायतकर्ता के पति की मृत्यु से लगभग चार साल पहले का समय था। अदालत ने टिप्पणी की:
“शिकायतकर्ता की इस दलील को स्वीकार करना संभव नहीं है कि उसने अपने पति के जीवित रहते हुए, याचिकाकर्ता द्वारा शादी के प्रस्ताव पर विश्वास करते हुए यौन संबंधों के लिए सहमति दी थी।”
अदालत ने आगे कहा कि पति की मृत्यु के बाद भी लगभग चार साल तक संबंध बनाए रखना यह दर्शाता है कि यह संबंध सहमतिपूर्ण था। याचिकाकर्ता द्वारा दूसरी महिला से शादी करने के आरोप पर, अदालत ने कहा कि इस शादी की जानकारी होने के बाद भी शिकायतकर्ता ने संबंध जारी रखा, जिससे बलात्कार का आरोप निराधार हो जाता है।
3. सहमति और झूठे वादे पर कानूनी नजीरें: हाईकोर्ट ने अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के कई महत्वपूर्ण फैसलों का हवाला दिया:
- उदय बनाम कर्नाटक राज्य [(2003) 4 SCC 46]: अदालत ने इस सिद्धांत का हवाला दिया कि यदि कोई पीड़िता गहरे प्रेम के कारण शादी के वादे पर सहमति देती है, तो इसे ‘तथ्य की गलतफहमी’ नहीं कहा जा सकता। झूठा वादा संहिता के अर्थ में कोई ‘तथ्य’ नहीं है।
- दीपक गुलाटी बनाम हरियाणा राज्य [(2013) 7 SCC 675]: अदालत ने ‘वादे को तोड़ने’ और ‘झूठे वादे को पूरा न करने’ के बीच के अंतर पर जोर दिया। किसी आरोपी को तभी दोषी ठहराया जा सकता है जब उसका इरादा शुरू से ही गलत (mala fide) हो।
- नईम अहमद बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) [(2023) 15 SCC 385]: अदालत ने इस हालिया फैसले पर भरोसा किया, जिसमें एक विवाहित महिला और बच्चों का मामला था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐसी पीड़िता सहमति के परिणामों को समझने के लिए पर्याप्त परिपक्व होती है, और लंबे समय तक चलने वाले संबंध को झूठे वादे के आधार पर बलात्कार नहीं कहा जा सकता।
इन सिद्धांतों को वर्तमान मामले पर लागू करते हुए, जस्टिस जी. गिरीश ने कहा:
“आरोपी और पीड़िता का आठ साल से अधिक समय तक साथ रहना (cohabitation) अपने आप में यह दर्शाता है कि उनका संबंध सहमतिपूर्ण यौन संबंध (consensual sex) की प्रकृति का था, और आरोपी व पीड़िता एक-दूसरे के साथ पति-पत्नी की तरह व्यवहार कर रहे थे।”
अदालत ने आगे कहा:
“यह तथ्य कि आरोपी अपनी कामुक इच्छाओं की पूर्ति के लिए किसी अन्य विकल्प की तलाश में गया और किसी अन्य महिला के साथ विवाह जैसा नया संबंध शुरू किया, अपने आप में पीड़िता के साथ उसके पिछले संबंधों को बलात्कार की श्रेणी में नहीं लाएगा।”
निर्णय
हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि फाइनल रिपोर्ट और साथ संलग्न रिकॉर्ड अभियोजन के लिए आवश्यक तत्वों को पूरा करने में विफल रहे।
आदेश:
“परिणामस्वरूप, याचिका स्वीकार की जाती है। अतिरिक्त सत्र न्यायालय-IX, तिरुवनंतपुरम की फाइलों पर एस.सी. नंबर 802/2019 में याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्यवाही, जो फोर्ट पुलिस स्टेशन, तिरुवनंतपुरम के अपराध संख्या 3053/2017 से उत्पन्न हुई थी, को एतद्द्वारा रद्द (quashed) किया जाता है।”
केस विवरण
- केस शीर्षक: प्रदीप बनाम स्टेशन हाउस ऑफिसर एवं अन्य
- केस नंबर: Crl.M.C. No. 5348 of 2019
- कोरम: जस्टिस जी. गिरीश




