सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उस जनहित याचिका पर सुनवाई के लिए सहमति जताई जिसमें रिलायंस कम्युनिकेशंस (RCOM), इसकी समूह कंपनियों और प्रमोटर अनिल अंबानी से जुड़े कथित बड़े बैंक और कॉरपोरेट घोटाले की स्वतंत्र, कोर्ट-मॉनिटर जांच की मांग की गई है।
यह मामला वकील प्रशांत भूषण द्वारा मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजनिया की पीठ के समक्ष तत्काल सूचीबद्ध करने के लिए उल्लेख किया गया।
भूषण ने कहा, “यह ₹20,000 करोड़ का बैंक फ्रॉड है। हम स्वतंत्र और कोर्ट-निगरानी वाली जांच की मांग कर रहे हैं। यह एक बड़े कॉरपोरेट समूह का मामला है।”
मुख्य न्यायाधीश ने जवाब दिया, “हम इसे सूचीबद्ध करेंगे।”
पूर्व केंद्रीय सचिव ई.ए.एस. शर्मा द्वारा दायर इस याचिका में आरोप लगाया गया है कि अनिल अंबानी–नीत रिलायंस एडीए समूह की कई कंपनियों में बैंक ऋणों की हेराफेरी, वित्तीय विवरणों की जालसाजी और कई स्तरों पर संस्थागत लापरवाही का व्यापक पैटर्न सामने आया है।
याचिका में कहा गया है कि 21 अगस्त को दर्ज CBI की FIR और प्रवर्तन निदेशालय की संबंधित कार्यवाहियां इस कथित घोटाले के केवल एक छोटे हिस्से को कवर करती हैं।
शर्मा का कहना है कि विस्तृत फॉरेंसिक ऑडिट्स में गंभीर अनियमितताएं बताई गई हैं, लेकिन न तो CBI और न ही ED ने बैंक अधिकारियों, ऑडिटरों या नियामकों की भूमिका की जांच की—जिसे याचिका “गंभीर विफलता” बताती है।
याचिका में यह भी कहा गया है कि “व्यवस्थित धोखाधड़ी और धन के मोड़” के निष्कर्षों को बॉम्बे हाई कोर्ट के एक निर्णय में न्यायिक रूप से “मान्यता” मिली है।
याचिका के अनुसार:
- 2013 से 2017 के बीच RCOM, रिलायंस इंफ्राटेल और रिलायंस टेलीकॉम ने SBI की अगुवाई वाले बैंकों के समूह से कुल ₹31,580 करोड़ के ऋण लिए।
- SBI द्वारा कराए गए फॉरेंसिक ऑडिट की अक्टूबर 2020 में मिली रिपोर्ट में “फंड के बड़े पैमाने पर डायवर्जन” का खुलासा हुआ, जिसमें हजारों करोड़ रुपये असंबंधित ऋणों को चुकाने में लगाए गए।
- ऑडिट में वित्तीय रिपोर्टिंग में हेराफेरी और खातों की जालसाजी के संकेत बताये गए।
- कई संस्थाओं—जिनमें Netizen Engineering और Kunj Bihari Developers शामिल हैं—को कथित शेल कंपनियों के रूप में पहचाना गया जिनके माध्यम से बैंक फंड की siphoning और मनी-लॉन्ड्रिंग हुई।
याचिका में यह भी उल्लेख है कि कुछ सहायक कंपनियों ने कथित तौर पर फर्जी प्रेफरेंस-शेयर व्यवस्था के जरिए बड़ी देनदारियों को राइट-ऑफ कर दिया, जिससे ₹1,800 करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ। शर्मा का कहना है कि ये पैटर्न “जानबूझकर, संगठित और प्रणालीगत प्रयास” को दिखाते हैं ताकि नुकसान छुपाया जा सके और सार्वजनिक धन का दुरुपयोग हो सके।
PIL में SBI द्वारा ऑडिट रिपोर्ट मिलने और शिकायत दर्ज करने के बीच लगभग पांच वर्ष की देरी पर भी सवाल उठाया गया है।
शर्मा का तर्क है कि यह देरी “प्रथम दृष्टया संस्थागत मिलीभगत” दर्शाती है, खासकर जब राष्ट्रीयकृत बैंकों के अधिकारी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत लोकसेवक माने जाते हैं।
याचिका का कहना है कि विस्तृत फॉरेंसिक ऑडिट रिपोर्टों और स्वतंत्र जांचों के बावजूद बैंक अधिकारियों और नियामकों की संभावित भूमिकाओं की जांच अभी तक शुरू नहीं हुई है, जबकि आरोप गंभीर और व्यापक हैं।
सुप्रीम कोर्ट इस मामले को जल्द ही विस्तृत सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करेगा।




