बंदी प्रत्यक्षीकरण का ऐसा इस्तेमाल “अंतरात्मा को झकझोरता है”: 4 बार जमानत खारिज होने के बाद रिहाई देने पर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश रद्द किया

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें एक अभियुक्त को बंदी प्रत्यक्षीकरण (habeas corpus) याचिका के माध्यम से रिहा करने का निर्देश दिया गया था। यह आदेश इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उसी हाईकोर्ट ने पहले उस अभियुक्त की चार नियमित जमानत याचिकाएं खारिज कर दी थीं।

जस्टिस राजेश बिंदल और जस्टिस मनमोहन की पीठ ने स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश व अन्य बनाम कुसुम साहू मामले में यह माना कि हाईकोर्ट का आदेश “पूरी तरह से क्षेत्राधिकार के बाहर” था और अपनाई गई प्रक्रिया “कानून में पूरी तरह से अज्ञात” थी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी पंजीकृत आपराधिक मामले में अभियुक्त की हिरासत को केवल इसलिए अवैध नहीं माना जा सकता क्योंकि उसकी जमानत याचिकाएं खारिज हो चुकी हैं।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला जिब्राखान लाल साहू से संबंधित है, जो भोपाल के बागसेवनिया पुलिस स्टेशन में दर्ज एफआईआर/अपराध संख्या 157/2021 में अभियुक्त हैं। उन पर भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 420 और 409 के तहत आरोप हैं। श्री साहू को 12 दिसंबर, 2023 को गिरफ्तार किया गया था और 9 फरवरी, 2024 को आरोप पत्र (chargesheet) दायर किया गया था।

गिरफ्तारी के बाद, श्री साहू ने चार महीने की अवधि के भीतर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के समक्ष चार अलग-अलग जमानत याचिकाएं दायर कीं, और सभी खारिज कर दी गईं:

  1. MCRC संख्या 58100/2023 (23 जनवरी, 2024 को वापस लिए जाने के कारण खारिज)
  2. MCRC संख्या 9299/2024 (5 मार्च, 2024 को खारिज)
  3. MCRC संख्या 10613/2024 (14 मार्च, 2024 को खारिज)
  4. MCRC संख्या 19661/2024 (29 मई, 2024 को खारिज)
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इसके बाद, जैसा कि फैसले में उल्लेख किया गया है, “उनकी बेटी-कुसुम साहू द्वारा एक अनोखा तरीका अपनाया गया।” उन्होंने हाईकोर्ट के समक्ष बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Writ Petition No. 24337 of 2024) दायर की। याचिका में उनके पिता की हिरासत को “अवैध” बताते हुए उनकी रिहाई की मांग की गई।

3 अक्टूबर, 2024 को, हाईकोर्ट ने इस रिट याचिका को स्वीकार कर लिया और जिब्राखान लाल साहू को ₹5,000/- के व्यक्तिगत बॉन्ड और इतनी ही राशि की एक जमानत पर रिहा करने का निर्देश दिया।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें

मध्य प्रदेश राज्य ने हाईकोर्ट के इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। राज्य के वकील ने तर्क दिया कि यह एक “अजीब मामला” है। राज्य ने दलील दी कि एक अभियुक्त की हिरासत को “अवैध नहीं कहा जा सकता, खासकर जब उसकी चार जमानत याचिकाएं हाईकोर्ट द्वारा पहले ही खारिज कर दी गई हों।” अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट का आदेश “पूरी तरह से क्षेत्राधिकार के बाहर” था।

प्रतिवादी (कुसुम साहू) के वकील ने “निष्पक्ष रूप से स्वीकार किया कि अपनाई गई प्रक्रिया गलत थी।” हालांकि, यह प्रार्थना की गई कि चूंकि उसी प्राथमिकी में दो अन्य सह-अभियुक्तों को नियमित जमानत दे दी गई है, इसलिए श्री साहू को भी “समान स्थिति” के आधार पर जमानत का लाभ दिया जा सकता है।

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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने 3 नवंबर, 2025 के अपने आदेश में सबसे पहले यह पाया कि हाईकोर्ट इस तथ्य से अवगत था कि चार पिछली जमानत याचिकाएं खारिज हो चुकी थीं।

पीठ ने पाया कि हाईकोर्ट ने आपराधिक मामले के गुण-दोष (merits) का परीक्षण किया और प्रतिवादी के इस तर्क पर ध्यान दिया कि जमानत खारिज करने के आदेश “हिरासत जारी रखने के अवैध आदेशों से कम नहीं” थे और यह कि पक्षकारों के पास “सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए आर्थिक साधन नहीं” थे।

सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क और प्रक्रिया को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया। फैसले में कहा गया, “जिस तरह से इस मामले को निपटाया गया है, वह वास्तव में इस अदालत की अंतरात्मा को झकझोरता है।”

यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट की 18 जुलाई, 2025 की पहली प्रतिक्रिया को दर्शाती है, जब उसने मामले में नोटिस जारी करते हुए कहा था, “प्रथम दृष्टया, हाईकोर्ट द्वारा जिस तरह से क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया गया है, उसे देखकर हमारी अंतरात्मा को झकझोर दिया है।”

अपने अंतिम विश्लेषण में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट ने अभियुक्त की हिरासत को अवैध माना और उसे रिहा करने का निर्देश दिया, “मामले के गुण-दोष पर इस तरह जांच करते हुए जैसे कि वह जमानत खारिज करने के आदेश के खिलाफ अपील सुन रहा हो।”

पीठ ने घोषित किया कि यह “प्रक्रिया कानून में पूरी तरह से अज्ञात है।”

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हाईकोर्ट के आदेश को “कानून की उचित प्रक्रिया को विफल करने” के लिए एक मिसाल (precedent) के तौर पर इस्तेमाल होने से रोकने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसे “इस बुराई को शुरू में ही खत्म करना” होगा।

कोर्ट ने एक स्पष्ट कानूनी स्थिति निर्धारित की: “हम यह मानते हैं कि एक अभियुक्त के खिलाफ पंजीकृत आपराधिक मामले में उसकी हिरासत को अवैध नहीं माना जा सकता, खासकर तब जब उसकी जमानत याचिकाएं खारिज हो चुकी हों।”

इन्हीं कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की अपील को स्वीकार किया और हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि अभियुक्त जिब्राखान लाल साहू ने (सुप्रीम कोर्ट के पहले के आदेश के बाद) 25 अक्टूबर, 2025 को आत्मसमर्पण कर दिया था और वह पहले से ही हिरासत में थे।

पीठ ने स्पष्ट किया कि यह निर्णय भविष्य में राहत के रास्ते बंद नहीं करता है, और कहा, “जब भी अभियुक्त/जिब्राखान लाल साहू द्वारा जमानत याचिका दायर की जाती है, तो संबंधित अदालत द्वारा उस पर उसके अपने गुण-दोष के आधार पर विचार किया जा सकता है।”

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