दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम व्यवस्था देते हुए कहा है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम (पीडब्ल्यूडीवी एक्ट) के तहत एक पत्नी का “साझा गृहस्थी” (Shared Household) में रहने का अधिकार विवाह-विच्छेद (तलाक) की अंतिम डिक्री के बाद समाप्त हो जाता है।
न्यायमूर्ति मिनी पुष्करना ने एक महिला द्वारा दायर अपील का आंशिक रूप से निपटारा करते हुए यह फैसला सुनाया। महिला ने निचली अदालत के उस फैसले को चुनौती दी थी जिसमें उसके पूर्व पति को उस संपत्ति का कब्जा देने का आदेश दिया गया था, जिसे पति ने स्वयं अर्जित किया था।
हाईकोर्ट ने पति के पक्ष में कब्जे की डिक्री को बरकरार रखा, लेकिन निचली अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें पत्नी को हर्जाना देने का निर्देश दिया गया था। हाईकोर्ट ने यह राहत देते हुए पत्नी द्वारा संपत्ति के लोन चुकाने में दिए गए योगदान को ध्यान में रखा।
यह निर्णय एक अपील (RFA 589/2015) में दिया गया, जिसमें 26 मई 2015 को अतिरिक्त जिला न्यायाधीश (ADJ), तीस हजारी कोर्ट, दिल्ली के फैसले को चुनौती दी गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि
मामले के तथ्यों के अनुसार, दोनों पक्षों (अपीलकर्ता/पत्नी और प्रतिवादी/पति) का विवाह 11 सितंबर 2000 को हुआ था और उनका एक बेटा है। प्रतिवादी-पति ने 9 अगस्त 2005 को उत्तम नगर, नई दिल्ली में एक संपत्ति खरीदी, जिसका पंजीकृत बिक्री विलेख (Registered Sale Deed) विशेष रूप से पति के नाम पर था।
बाद में, मतभेदों के चलते पति ने तलाक की कार्यवाही शुरू की, और 21 जुलाई 2010 को तलाक की डिक्री दे दी गई। पत्नी द्वारा इस डिक्री को हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच और बाद में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, लेकिन उसकी सभी अपीलें (एसएलपी, पुनर्विचार याचिका और क्यूरेटिव पिटीशन सहित) खारिज कर दी गईं, जिससे तलाक अंतिम हो गया।
तलाक के बाद, पति ने 17 अगस्त 2010 को पत्नी को संपत्ति खाली करने के लिए एक कानूनी नोटिस भेजा। पत्नी के इंकार करने पर, पति ने 2014 में संपत्ति का कब्जा वापस पाने और हर्जाने के लिए मुकदमा दायर किया। निचली अदालत ने पति के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कब्जे और 3,000 रुपये प्रति माह हर्जाने का आदेश दिया। इसी आदेश को पत्नी ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।
तर्क और निचली अदालत के निष्कर्ष
निचली अदालत के समक्ष, पत्नी (अपीलकर्ता) ने यह तर्क दिया कि वह संपत्ति की सह-मालिक (co-owner) है, क्योंकि इसे “संयुक्त धन” (joint funds) से खरीदा गया था, भले ही सेल डीड पति के नाम पर थी। पत्नी ने स्वीकार किया कि पति ने 80,000 रुपये की संपत्ति के लिए 1,00,000 रुपये का लोन लिया था, लेकिन तर्क दिया कि उसने कुछ किश्तों का भुगतान किया था और घर के खर्चों का प्रबंधन किया था, जिससे पति बचत कर सका।
निचली अदालत ने सबूतों के आधार पर पाया कि पति ने संपत्ति को अपने स्वयं के धन (लिए गए लोन) से खरीदा था। अदालत ने माना कि पत्नी द्वारा भुगतान की गई कोई भी किश्त “आपसी समझ” (mutual understanding) हो सकती है, लेकिन इसे संपत्ति खरीदने के लिए दिया गया प्रतिफल (consideration) नहीं माना जा सकता।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
हाईकोर्ट ने न्यायमूर्ति पुष्करना के माध्यम से दो मुख्य मुद्दों का विश्लेषण किया: सह-स्वामित्व का दावा और “साझा गृहस्थी” में रहने का अधिकार।
मालिकाना हक पर:
हाईकोर्ट ने मालिकाना हक पर निचली अदालत के निष्कर्षों की पुष्टि की। कोर्ट ने कहा कि पंजीकृत सेल डीड (Ex. PW-1/2) निर्विवाद रूप से पति के नाम पर है। सुप्रीम कोर्ट के प्रेम सिंह व अन्य बनाम बीरबल व अन्य (2006) 5 SCC 353 मामले का हवाला देते हुए, अदालत ने दोहराया कि “एक पंजीकृत दस्तावेज़ को कानूनी रूप से वैध माना जाता है।”
हाईकोर्ट ने पत्नी द्वारा जिरह (cross-examination) के दौरान दी गई उस स्वीकृति को भी रेखांकित किया, जहाँ उसने माना था कि पति ही संपत्ति का मालिक है। मानिया घई बनाम निशांत चंदर (2025 SCC OnLine Del 5928) मामले में डिवीजन बेंच के फैसले का जिक्र करते हुए, अदालत ने कहा: “पति की संपत्ति पर एक वैध और लागू करने योग्य दावे के लिए सार्थक और पर्याप्त योगदान का सबूत होना चाहिए। ऐसे सबूत के अभाव में, मालिकाना हक टाइटल होल्डर के पास ही रहता है…”
“साझा गृहस्थी” के दावे पर:
अदालत ने पीडब्ल्यूडीवी एक्ट की धारा 17 के तहत “साझा गृहस्थी” में रहने के अधिकार की पत्नी की दलील का विश्लेषण किया। प्रभा त्यागी बनाम कमलेश देवी (2022) 8 SCC 90 मामले में दी गई “साझा गृहस्थी” की विस्तृत परिभाषा को स्वीकार करते हुए भी, अदालत ने कहा कि यह अधिकार असीमित (absolute) नहीं है।
स्मिता जिना बनाम अमित कुमार जिना (2025 SCC OnLine Del 5226) मामले पर भरोसा करते हुए, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अधिनियम की धारा 17(2) “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार” बेदखली (eviction) की अनुमति देती है और यह कोई मालिकाना हक (proprietary right) नहीं बनाती है।
सबसे महत्वपूर्ण रूप से, अदालत ने कुलदीप कौर बनाम स्वर्ण कौर थ्रू एलआर (2025 SCC OnLine Del 5593) मामले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया था कि पीडब्ल्यूडीवी एक्ट के तहत संरक्षण “घरेलू संबंध” (domestic relationship) के अस्तित्व पर “मजबूती से टिका” है। फैसले में कहा गया:
“एक बार जब विवाह तलाक की वैध डिक्री द्वारा भंग हो जाता है, तो घरेलू संबंध समाप्त हो जाता है। नतीजतन, वह आधार (substratum) जिस पर निवास का अधिकार स्थापित होता है, वह अस्तित्व में नहीं रहता, जब तक कि कोई विपरीत वैधानिक अधिकार न दिखाया जाए।”
इसी मिसाल को लागू करते हुए, न्यायमूर्ति पुष्करना ने निष्कर्ष निकाला: “मौजूदा मामले में, तलाक की डिक्री 21 जुलाई 2010 को पारित की गई थी, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा। इस प्रकार, पक्ष 2010 से तलाकशुदा हैं और उनके बीच घरेलू संबंध अब अस्तित्व में नहीं है। तदनुसार, प्रतिवादी-पति कानून के अनुसार वैध रूप से मुकदमा दायर करके, वाद संपत्ति का कब्जा वापस पाने का अपने अधिकार के भीतर था।”
हर्जाने और मध्यवर्ती मुनाफे पर:
हालांकि, हाईकोर्ट ने पति को हर्जाना (damages) देने के निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया। अदालत ने पति द्वारा जिरह के दौरान दी गई उस स्वीकृति पर ध्यान दिया, जहाँ उसने माना था कि “लोन की राशि मेरे खाते के साथ-साथ प्रतिवादी (पत्नी) के खाते से भी चुकाई जाती थी… उसने लोन चुकाने के लिए थोड़ी राशि खर्च की थी।”
अपीलकर्ता (पत्नी) ने 2006 में तीन किश्तें चुकाने का विशेष दावा किया था। अदालत ने पाया कि यह “स्पष्ट स्वीकृति” है कि पत्नी ने लोन राशि के कुछ हिस्से का भुगतान किया था।
इस स्वीकृति, “पक्षों के बीच संबंधों की प्रकृति,” और इस तथ्य पर विचार करते हुए कि पत्नी का शुरुआती निवास “अनुमतिपूर्ण प्रकृति” (permissive nature) का था, अदालत ने माना: “हर्जाने/मध्यवर्ती मुनाफे (mesne profits) के संबंध में निचली अदालत का निष्कर्ष टिकाऊ नहीं है।”
निष्कर्ष:
हाईकोर्ट ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया। अदालत ने पति के पक्ष में संपत्ति के कब्जे की डिक्री (मुद्दे 1 और 4) को बरकरार रखा, लेकिन पत्नी द्वारा हर्जाना देने के आदेश (मुद्दे 2 और 3) को रद्द कर दिया।




