नौकरी के लिए दी गई रिश्वत को चुकाने हेतु जारी चेक पर एनआई एक्ट की धारा 138 लागू नहीं: मद्रास हाईकोर्ट

मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै बेंच ने यह स्पष्ट किया है कि किसी सार्वजनिक सेवा में अवैध रूप से नौकरी पाने के लिए दी गई राशि की अदायगी हेतु जारी किया गया चेक “कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण या दायित्व” (legally enforceable debt or liability) के दायरे में नहीं आता है। नतीजतन, ऐसे चेक के अनादरण (dishonour) पर परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 138 के तहत अपराध नहीं बनता है।

न्यायमूर्ति के. मुरली शंकर ने शिकायतकर्ता पी. कुलंदैसामी द्वारा दायर एक आपराधिक अपील (Crl.A.(MD)No.758 of 2022) को खारिज कर दिया और अभियुक्त के. मुरुगन को बरी करने के निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा।

हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या अभियुक्त द्वारा शिकायतकर्ता को तमिलनाडु राज्य परिवहन निगम (TNSTC) में कंडक्टर की नौकरी दिलाने के एवज में लिए गए 3 लाख रुपये लौटाने के लिए जारी किया गया चेक, कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण के निर्वहन के लिए था।

मामले की पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता, पी. कुलंदैसामी ने एक निजी शिकायत दर्ज कराई थी जिसमें आरोप लगाया गया था कि अभियुक्त के. मुरुगन, जो TNSTC में कार्यरत था और लेबर यूनियन के माध्यम से अपने प्रभाव का दावा करता था, ने शिकायतकर्ता को कंडक्टर की नौकरी दिलाने के लिए 3 लाख रुपये की मांग की। शिकायतकर्ता के अनुसार, उसने यह राशि 10 फरवरी, 2016 को भुगतान कर दी।

जब अभियुक्त नौकरी दिलाने में विफल रहा, तो शिकायतकर्ता ने अपने पैसे वापस मांगे। अभियुक्त ने कथित तौर पर पहले 31 दिसंबर 2016 का एक चेक जारी किया, जो बैंक द्वारा “पुराना और अमान्य” (old and invalid) बताकर लौटा दिया गया। इसके बाद, अभियुक्त ने 28 फरवरी, 2017 को 3 लाख रुपये का एक और चेक (Ex.P.1) जारी किया।

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यह दूसरा चेक संग्रह के लिए प्रस्तुत किए जाने पर, अभियुक्त के खाते में “अपर्याप्त राशि” (want of sufficient amount) के कारण अनादरित हो गया। शिकायतकर्ता ने 14 मार्च, 2017 को एक कानूनी नोटिस भेजा, जिसे अभियुक्त ने प्राप्त तो किया, लेकिन न तो उसका जवाब दिया और न ही राशि का भुगतान किया।

इसके बाद शिकायतकर्ता ने फास्ट ट्रैक न्यायिक मजिस्ट्रेट कोर्ट, श्रीविल्लिपुत्तुर के समक्ष मामला (C.C.No.32 of 2017) दायर किया। 4 जनवरी, 2018 को, विद्वान मजिस्ट्रेट ने अभियुक्त को यह मानते हुए बरी कर दिया कि चेक कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण के लिए जारी नहीं किया गया था। शिकायतकर्ता ने इसी बरी किए जाने के फैसले को हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी थी।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ता (शिकायतकर्ता) के वकील ने तर्क दिया कि शिकायत नौकरी के लिए मूल समझौते पर नहीं, बल्कि बाद में जारी किए गए चेक पर आधारित थी, जो एक “अलग वाद कारण” (different cause of action) प्रदान करता है।

प्रतिवादी (अभियुक्त) के वकील ने दलील दी कि चेक कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण के लिए जारी नहीं किया गया था। यह तर्क दिया गया कि चूंकि पैसा नौकरी पाने के लिए दिया गया था, यह लेनदेन “लोक नीति के विरुद्ध” (opposed to public policy) था, और इसलिए, धारा 138 को लागू नहीं किया जा सकता।

न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने दलीलों पर विचार करने के बाद, अपना ध्यान एकमात्र इस मुद्दे पर केंद्रित किया कि क्या चेक कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण के लिए था। न्यायमूर्ति के. मुरली शंकर ने कहा कि शिकायतकर्ता (P.W.1) और उसके गवाह (P.W.2) दोनों ने अपनी गवाही में दोहराया कि 3 लाख रुपये “शिकायतकर्ता के लिए नौकरी हासिल करने के लिए” दिए गए थे।

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अदालत ने माना कि “सरकारी रोजगार हासिल करने के लिए इस तरह का भुगतान एक रिश्वत माना जाएगा और यह लोक नीति के विरुद्ध है।”

कानूनी सूत्र “इन पारी डेलिक्टो पोटियर इस्ट कॉन्डिटियो पोसिडेंटिस” (in pari delicto potior est conditio possidentis) का हवाला देते हुए, जिसका अर्थ है “जब दोनों पक्ष समान रूप से दोषी हों, तो कब्जेदार की स्थिति बेहतर होती है,” अदालत ने कहा, “इस सिद्धांत का मतलब है कि जब किसी विवाद के पक्ष समान रूप से दोषी हों या किसी अनैतिक कार्य के लिए समान रूप से पक्षकार हों, तो अदालत किसी भी पक्ष की सहायता नहीं करेगी।”

निर्णय में भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 23 पर प्रमुखता से भरोसा किया गया, जो गैर-कानूनी प्रतिफल या उद्देश्यों वाले समझौतों को शून्य (void) घोषित करता है। अदालत ने धारा 23 के दृष्टांत (f) को इस मुद्दे का “सटीक उत्तर” पाया:

“(f) क, ख को लोक सेवा में रोजगार दिलाने का वचन देता है और ख, क को 1,000 रुपये देने का वचन देता है। यह करार शून्य है, क्योंकि इसका प्रतिफल विधि विरुद्ध है।”

इसके आधार पर, अदालत ने निष्कर्ष निकाला, “हमारे मामले में भी, शिकायतकर्ता और अभियुक्त के बीच का समझौता शून्य माना जाएगा, क्योंकि 3 लाख रुपये का प्रतिफल अवैध परितोषण (illegal gratification) की प्रकृति का था और गैर-कानूनी (unlawful) था।”

अदालत ने इस मामले को भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 65 (पुनर्स्थापन का सिद्धांत) से भी अलग किया। कुजू कोलियरीज लिमिटेड बनाम झारखंड माइन्स लिमिटेड (AIR 1974 SC 1892) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए, यह माना गया कि धारा 65 तब लागू होती है जब कोई समझौता बाद में शून्य पाया जाता है, न कि तब जब पक्षकार जानबूझकर एक ऐसे समझौते में प्रवेश करते हैं जो शुरुआत से ही शून्य (void ab initio) हो, जैसा कि इस मामले में हुआ।

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हाईकोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के एक समान फैसले (वीरेंद्र सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण व अन्य, 2007 Crl. L.J. 2262) का भी उल्लेख किया, जिसमें यह माना गया था कि पक्ष “समान रूप से दोषी” (in pari delicto) थे और समान परिस्थितियों में जारी चेक के लिए कोई कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण मौजूद नहीं था।

निर्णय

अपने विश्लेषण का समापन करते हुए, हाईकोर्ट ने माना कि शिकायतकर्ता का अपना ही मामला यह था कि पैसा नौकरी पाने के लिए दिया गया था और चेक इसी राशि को चुकाने के लिए जारी किया गया था।

न्यायमूर्ति के. मुरली शंकर ने फैसला सुनाया, “कानूनी स्थिति के आलोक में, यह न्यायालय मानता है कि कोई कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण या दायित्व नहीं है। नतीजतन, एनआई अधिनियम की धारा 138 लागू नहीं होती है। अभियुक्त को बरी करने का आक्षेपित निर्णय पूरी तरह से कानूनी है और इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।”

आपराधिक अपील खारिज कर दी गई।

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