निठारी केस: सुप्रीम कोर्ट ने ‘न्याय की घोर विफलता’ का हवाला देते हुए सुरेंद्र कोली को क्यूरेटिव याचिका में बरी किया

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 11 नवंबर, 2025 को दिए एक फैसले में, अपनी असाधारण क्यूरेटिव (उपचारात्मक) अधिकारिता का प्रयोग करते हुए सुरेंद्र कोली को निठारी सीरियल मर्डर मामलों में से एक (रिम्पा हलदर केस) में बरी कर दिया है। कोर्ट ने क्यूरेटिव पिटीशन (Crl.) No. @Diary No. 49297 of 2025 में अपने ही पिछले फैसलों को रद्द करते हुए यह माना कि इस मामले में “न्याय की घोर विफलता” (manifest miscarriage of justice) हुई है।

मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि इस मामले में कोली की सजा ठीक उन्हीं सबूतों—एक इकबालिया बयान और कथित बरामदगी—पर आधारित थी, जिन्हें बारह अन्य साथी मामलों में “कानूनी रूप से अविश्वसनीय” और “अस्वीकार्य” मानते हुए खारिज कर दिया गया था, और उन मामलों में कोली को बरी कर दिया गया था।

यह फैसला चीफ जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई, जस्टिस सूर्य कांत और जस्टिस विक्रम नाथ की बेंच द्वारा सुनाया गया। जस्टिस नाथ द्वारा लिखित इस फैसले में पाया गया कि “एक ही सबूतों के आधार पर दो अलग-अलग नतीजे कानूनी रूप से एक साथ मौजूद नहीं रह सकते।”

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निठारी मामले की पृष्ठभूमि

जैसा कि फैसले में दर्ज किया गया है, सुरेंद्र कोली नोएडा के सेक्टर-31 स्थित हाउस D5 में घरेलू सहायक के तौर पर काम करता था, जिसका मालिक मोनिंदर सिंह पंढेर था। 2005 में, निठारी के निवासियों ने महिलाओं और बच्चों के लापता होने की सूचना देना शुरू किया। 29 दिसंबर, 2006 को स्थानीय पुलिस ने कोली को एक पीड़िता के लापता होने के सिलसिले में हिरासत में लिया।

उसी दिन, हाउस D5 और D6 के बीच एक खुली पट्टी से कई खोपड़ियाँ और हड्डियाँ बरामद की गईं। 31 दिसंबर, 2006 को एक स्टॉर्म वाटर ड्रेन से और अधिक मानव अवशेष बरामद हुए। 9 जनवरी, 2007 को जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) को सौंप दी गई।

इसके बाद तेरह मुकदमे चले, जिनमें से प्रत्येक एक ही आम सबूतों के आधार पर आगे बढ़ा: कोली का कथित इकबालिया बयान (CrPC की धारा 164 के तहत) और उसके कहने पर की गई कथित बरामदगी।

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न्यायिक प्रक्रिया: रिम्पा हलदर केस

मौजूदा क्यूरेटिव याचिका रिम्पा हलदर की मौत से जुड़े मामले से उत्पन्न हुई थी।

  1. ट्रायल कोर्ट: 13 फरवरी, 2009 को ट्रायल कोर्ट ने कोली को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धाराओं 302, 364, 376 और 201 के तहत दोषी ठहराया और मौत की सजा सुनाई। यह सजा धारा 164 के इकबालिया बयान और उसके कहने पर हुई बरामदगी पर आधारित थी।
  2. हाईकोर्ट: 11 सितंबर, 2009 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इकबालिया बयान को “स्वैच्छिक और विश्वसनीय” मानते हुए सजा और दोषसिद्धि की पुष्टि की। हालांकि, इस मामले में सह-अभियुक्त मोनिंदर सिंह पंढेर को बरी कर दिया गया।
  3. सुप्रीम कोर्ट (पहला दौर): 15 फरवरी, 2011 को सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की बेंच ने कोली की अपील (Crl. A. No. 2227 of 2010) को खारिज कर दिया और दोषसिद्धि की पुष्टि की। कोर्ट ने इसे “दुर्लभतम” (rarest of rare) श्रेणी का मामला माना।
  4. पुनर्विचार (Review): 28 अक्टूबर, 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी।
  5. सजा में कमी: बाद में, 28 जनवरी, 2015 को हाईकोर्ट ने इस मामले में मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया, लेकिन दोषसिद्धि बरकरार रही।

बारह साथी मामले: एक विरोधाभासी परिणाम

जहां एक ओर रिम्पा हलदर मामले में कोली की सजा तय हो गई थी, वहीं दूसरी ओर कोली पर उन्हीं सबूतों के आधार पर बारह अन्य मामलों में मुकदमा चला और उसे दोषी ठहराया गया।

लेकिन, 16 अक्टूबर, 2023 को दिए गए फैसलों के एक सेट में, हाईकोर्ट ने उन सभी बारह मामलों में कोली की अपीलों को स्वीकार कर लिया और उसे बरी कर दिया। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा:

  • इकबालिया बयान अविश्वसनीय: धारा 164 के तहत दिया गया बयान स्वैच्छिक नहीं था। हाईकोर्ट ने पाया कि कोली को बयान दर्ज करने से पहले लगभग साठ दिनों तक निर्बाध पुलिस हिरासत में रखा गया था, उसे कोई सार्थक कानूनी सहायता नहीं मिली, और बयान दर्ज करने की प्रक्रिया में जांच अधिकारी की निकटता ने “स्वैच्छिकता को कमजोर” कर दिया।
  • बरामदगी अस्वीकार्य: साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत की गई कथित खोज “अस्वीकार्य और अविश्वसनीय” थी। हाईकोर्ट ने पाया कि कोई समकालीन प्रकटीकरण मेमो साबित नहीं हुआ था, और सबूतों से पता चलता है कि कोली के आने से पहले ही जनता और पुलिस “बरामदगी स्थल पर शरीर के अंगों के बारे में जानते थे”।
  • कोई फोरेंसिक पुष्टि नहीं: D-5 की विशेषज्ञ खोजों में “मानव रक्त के धब्बे या मानव अवशेष नहीं मिले।” डीएनए विश्लेषण ने केवल अवशेषों को परिवारों से जोड़ा, लेकिन “याचिकाकर्ता को D-5 के भीतर किए गए अपराध से नहीं जोड़ा।”
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इन बारह बरी किए जाने के फैसलों के खिलाफ राज्य की अपीलों को 30 जुलाई, 2025 को सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की बेंच ने खारिज कर दिया, जिससे वे फैसले अंतिम हो गए।

क्यूरेटिव याचिका में सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता ने रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा मामले में स्थापित क्यूरेटिव अधिकारिता के लिए तय उच्च सीमा को पूरा किया है। कोर्ट ने कहा कि यह याचिका एक “असाधारण मामला” प्रस्तुत करती है और “कानून के शासन को बनाए रखने के लिए” हस्तक्षेप करना एक “संवैधानिक कर्तव्य” था।

फैसले ने “निर्णायक प्रश्न” (determinative question) की पहचान की कि “क्या एक ही सबूतों के आधार पर इस कोर्ट के दो अलग-अलग परिणाम एक साथ खड़े रह सकते हैं।”

बारह बरी के मामलों से निकले कानूनी निष्कर्षों को इस मामले पर लागू करते हुए, कोर्ट ने पाया:

  1. इकबालिया बयान पर: “हमारे पास इस बात का कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है कि उसी बयान को इस मामले में स्वैच्छिक और विश्वसनीय माना जाए, जिसे अन्य सभी मामलों में न्यायिक रूप से अविश्वसनीय ठहरा दिया गया है।” कोर्ट ने माना कि यह बयान “कानूनी तौर पर अस्वीकार्य” था।
  2. बरामदगी पर: कोर्ट ने पाया कि वही कानूनी खामियां—कोई समकालीन मेमो नहीं, घटनास्थल की पूर्व जानकारी, और अंतर्विरोध—यहां भी लागू होती हैं। “ये विशेषताएं अभियुक्त द्वारा खोज के आवश्यक तत्व को नकारती हैं… जब आधार समान हो तो कानूनी निष्कर्ष मामले-दर-मामले नहीं बदल सकता।”
  3. संवैधानिक उल्लंघन पर: कोर्ट ने माना कि इस सजा को बने रहने देना “संविधान के अनुच्छेद 21” (जीवन और निष्पक्ष प्रक्रिया का अधिकार) और “अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है… क्योंकि समान मामलों में समान व्यवहार किया जाना चाहिए।”
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कोर्ट ने जांच को “खराब और ढुलमुल” (botched and shifting) बताने वाली हाईकोर्ट की आलोचना से भी सहमति व्यक्त की।

फैसले में यह टिप्पणी की गई, “आपराधिक कानून अनुमान या अटकलों के आधार पर सजा की अनुमति नहीं देता है। संदेह, चाहे कितना भी गहरा हो, उचित संदेह से परे सबूत का स्थान नहीं ले सकता।”

निर्णय और अंतिम आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने क्यूरेटिव याचिका को स्वीकार कर लिया और निम्नलिखित आदेश पारित किए:

  1. दिनांक 15.02.2011 के फैसले (Crl. A. No. 2227 of 2010) और 28.10.2014 के पुनर्विचार आदेश को “वापस लिया और रद्द” कर दिया गया।
  2. क्रिमिनल अपील संख्या 2227 of 2010 को स्वीकार कर लिया गया।
  3. इस मामले में ट्रायल कोर्ट (13.02.2009) और हाईकोर्ट (11.09.2009) के फैसलों को रद्द कर दिया गया।
  4. याचिकाकर्ता, सुरेंद्र कोली को “IPC की धाराओं 302, 364, 376 और 201 के आरोपों से बरी” किया गया।
  5. कोर्ट ने आदेश दिया कि कोली को “तत्काल रिहा किया जाए, यदि वह किसी अन्य मामले या कार्यवाही में वांछित नहीं है।”

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