डिक्री के निष्पादन में सबूत का भार डिक्री-धारक पर: सदी पुराने धार्मिक विवाद में सुप्रीम कोर्ट का फैसला

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश के दो सामुदायिक गुटों के बीच लगभग एक सदी पुराने विवाद से संबंधित अपीलों को खारिज कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि एक निष्पादन अदालत (Executing Court) “केवल अनुमान के आधार पर और बिना किसी सबूत के” एक डिक्री (Decree) के निष्पादन का आदेश नहीं दे सकती।

न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की पीठ ने 11 नवंबर, 2025 को दिए अपने फैसले में, आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के 2012 के एक निर्णय को बरकरार रखा। शीर्ष अदालत ने पुष्टि की कि अपीलकर्ता (डिक्री-धारक) यह साबित करने के अपने “प्राथमिक दायित्व” (primary onus) में विफल रहे कि प्रतिवादियों (निर्णय-देनदार) ने 1933 के एक समझौता डिक्री की शर्तों का उल्लंघन किया था।

यह कानूनी मुद्दा 1933 की इस समझौता डिक्री की निष्पादन क्षमता (executability) पर केंद्रित था, जो दोनों समूहों द्वारा पूजे जाने वाले देवता भगवान संगलप्पा स्वामी की मूर्तियों और धार्मिक अनुष्ठानों से संबंधित व्यवस्था को नियंत्रित करता था। सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ता उल्लंघन का कोई “ठोस सबूत” (convincing evidence) प्रदान करने में विफल रहे, जिससे उनकी निष्पादन याचिका तथ्यों के आधार पर अस्थिर हो गई।

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विवाद की पृष्ठभूमि

कपादम संगलप्पा एवं अन्य बनाम कामतम संगलप्पा एवं अन्य (सिविल अपील संख्या 281-282, 2015) का यह निर्णय अनंतपुर जिले के कुरुबा समुदाय के दो वर्गों – गुंगुलकुंटा गांव के कपादम परिवारों (अपीलकर्ता) और येर्रायापल्ली गांव के कामतम परिवारों (प्रतिवादी) – के बीच एक “लंबे समय से चले आ रहे और गहरी जड़ें जमा चुके विवाद” को संबोधित करता है।

यह मुकदमा लगभग एक सदी पहले 1927 में (O.S. No. 486 of 1927) शुरू हुआ था। बाद में, एक प्रतिनिधि मुकदमे (O.S. No. 15 of 1933) के परिणामस्वरूप 1 नवंबर, 1933 को एक समझौता डिक्री पारित हुई।

1933 की डिक्री में यह निर्धारित किया गया था:

  1. अपीलकर्ता, जो उस समय पूजा कर रहे थे, वे ऐसा करना जारी रखेंगे। प्रतिवादियों को पूजा करने का अधिकार तभी मिलेगा जब वे खर्च के अपने आधे हिस्से के लिए 2,000/- रुपये का भुगतान करेंगे, ऐसा न करने पर वे “अपना अधिकार खो देंगे।”
  2. दोनों पक्ष अनुष्ठानों की निगरानी और खातों के रखरखाव के लिए दो-दो ट्रस्टी नियुक्त करेंगे। मूर्तियों को छह-छह महीने के लिए वैकल्पिक रूप से दोनों गांवों में स्थापित किया जाना था।
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यह विवाद 1999 में फिर से सामने आया जब अपीलकर्ताओं ने आरोप लगाया कि प्रतिवादियों ने मूर्तियों को घुमाने (rotate) से इनकार कर दिया। नतीजतन, अपीलकर्ताओं ने 1933 की डिक्री को लागू कराने के लिए 2000 में निष्पादन याचिका (Execution Petition No. 59 of 2000) दायर की।

निष्पादन अदालत (प्रधान वरिष्ठ सिविल जज, अनंतपुर) ने 13 सितंबर, 2005 को याचिका को अनुमति दे दी और मूर्तियों को वापस करने का आदेश दिया। हालांकि, आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने 6 जनवरी, 2012 को इस आदेश को रद्द कर दिया। हाईकोर्ट ने माना कि यद्यपि निष्पादन याचिका सुनवाई योग्य थी और समय-सीमा से बाधित नहीं थी, लेकिन “अपीलकर्ताओं द्वारा ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किया गया था कि प्रतिवादियों ने समझौता डिक्री की शर्तों का उल्लंघन किया था।” एक समीक्षा याचिका भी खारिज कर दी गई, जिसके बाद अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री गौरव अग्रवाल ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने निष्पादन अदालत के तथ्यात्मक निष्कर्षों में हस्तक्षेप करके त्रुटि की है। उन्होंने “जोरदार तर्क दिया कि देवता की वस्तुएं पवित्र थीं और यह विश्वास करना असंभव है कि प्रतिवादियों ने उन मूर्तियों की प्रतिकृति (replica) बनाई और उनकी पूजा कर रहे थे।”

इसके विपरीत, प्रतिवादियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री गगन गुप्ता ने तर्क दिया कि निष्पादन याचिका में “तथ्यात्मक आधार की कमी थी।” उन्होंने दलील दी कि ऐसा कोई सबूत नहीं था कि प्रतिवादी मूर्तियों पर काबिज थे या उन्होंने डिक्री का उल्लंघन किया था। उन्होंने कहा कि प्रतिवादियों ने कभी भी 2,000/- रुपये के भुगतान की शर्त को पूरा नहीं किया, और इस प्रकार, “प्रतिवादियों पर कभी कोई प्रवर्तनीय दायित्व (enforceable obligation) नहीं आया।” उन्होंने तर्क दिया कि डिक्री को “कभी लागू नहीं किया गया” (never acted upon) और दोनों पक्षों ने तब से अपनी-अपनी मूर्तियाँ स्थापित कर ली हैं।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

न्यायमूर्ति मिश्रा द्वारा लिखे गए विश्लेषण में, पीठ ने विचार के लिए “एकमात्र संक्षिप्त प्रश्न” यह तय किया कि “क्या 01.11.1933 की समझौता डिक्री तथ्यों के आधार पर निष्पादन योग्य थी और क्या प्रतिवादियों ने वास्तव में इसकी शर्तों का उल्लंघन किया था।”

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सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि निष्पादन अदालत का आदेश “त्रुटिपूर्ण तर्क” (flawed reasoning) पर आधारित था। फैसले में कहा गया, “निष्पादन अदालत द्वारा पारित फैसले की जांच करने पर, हम पाते हैं कि निष्पादन अदालत के समक्ष यह स्थापित करने के लिए कोई ठोस सबूत नहीं था कि प्रतिवादी मूर्तियों पर काबिज थे या उन्होंने 01.11.1933 की समझौता डिक्री का उल्लंघन किया था।”

सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि निष्पादन अदालत ने “यह मान लिया” कि चूंकि दशकों तक कोई झगड़ा नहीं हुआ, इसलिए व्यवस्था चल रही होगी। कोर्ट ने ऐसे अनुमान को “अस्वीकार्य” (impermissible) करार दिया और कहा, “अनुमान पर आधारित निष्कर्ष सबूत का स्थान नहीं ले सकते।” गवाहों (जो 1933 के मूल मुकदमे के पक्षकार नहीं थे) की गवाही को “केवल कोरे दावे” (bare assertions) करार दिया गया।

कोर्ट ने 1933 की डिक्री की शर्तों का विश्लेषण किया:

  1. कब्जे पर: 1933 की डिक्री से यह “अनुमान” (presumption) लगता है कि मूर्तियों पर कब्जा उस समय अपीलकर्ताओं के पास था।
  2. सबूत का भार: कोर्ट ने इस “सुस्थापित कानून” (trite law) को दोहराया कि “निष्पादन याचिका में, यह दिखाने का प्राथमिक दायित्व डिक्री-धारक पर होता है कि निर्णय-देनदार ने जानबूझकर डिक्री की शर्तों की अवज्ञा की है।” कोर्ट ने पाया कि “अपीलकर्ताओं द्वारा ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किया गया है जिससे यह पता चले कि मूर्तियों का कब्जा कभी प्रतिवादियों को दिया गया था।”
  3. अनुपालन न होना: कोर्ट ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अपीलकर्ता यह साबित करने में विफल रहे कि डिक्री को कभी लागू किया गया था। अपीलकर्ताओं के गवाह (PW-1) ने स्वीकार किया कि वह “अपने पूर्वजों को 2,000/- रुपये के किसी भी भुगतान के बारे में नहीं जानते थे।” इस स्वीकारोक्ति ने प्रतिवादियों के इस दावे को “अत्यंत संभावित” (highly probable) बना दिया कि डिक्री पर कभी अमल नहीं हुआ।
  4. ट्रस्टियों पर: ट्रस्टियों की नियुक्ति या खातों के रखरखाव के संबंध में खंड (2) के अनुपालन का भी “कोई सबूत नहीं” था। कोर्ट ने कहा, “जब कोई तथ्य विशेष रूप से किसी व्यक्ति के ज्ञान में हो, तो उस तथ्य को साबित करने का भार उसी पर होता है…”
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अपने विश्लेषण को समाप्त करते हुए, कोर्ट ने माना: “इस संबंध में, हम मानते हैं कि अपीलकर्ता प्रतिवादियों द्वारा समझौता डिक्री का उल्लंघन स्थापित करने में विफल रहे थे। डिक्री के उल्लंघन को साबित करने का भार पूरी तरह से डिक्री-धारकों पर है। ऐसे उल्लंघन के ठोस सबूत के अभाव में, निष्पादन को कायम नहीं रखा जा सकता।”

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि निष्पादन अदालत ने “केवल अनुमान के आधार पर और बिना किसी सबूत के” डिक्री के निष्पादन की अनुमति देकर “त्रुटि की” और हाईकोर्ट ने निष्पादन अदालत के आदेश को सही रद्द किया था।

पीठ ने यह कहते हुए अपीलें खारिज कर दीं, “नतीजतन, हमें हाईकोर्ट द्वारा पारित आक्षेपित निर्णयों में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं मिलता।”

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