बेंच पर पक्षपात के आरोप लगाने वाले वकील के विरुद्ध अवमानना संदर्भ वापस लेने से इलाहाबाद हाईकोर्ट का इंकार

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक वकील के खिलाफ शुरू की गई आपराधिक अवमानना कार्यवाही के संदर्भ (reference) को वापस लेने की अर्जी खारिज कर दी है। वकील पर आरोप था कि उन्होंने एक जमानत मामले में सुनवाई टलवाने में विफल रहने के बाद, बेंच पर “गंभीर और कलुषित आरोप” (scandalous and scurrilous attacks) लगाए थे।

न्यायमूर्ति सिद्धार्थ की एकल पीठ ने वकील द्वारा मांगी गई “बिना शर्त माफी” (unqualified apology) को स्वीकार कर लिया, लेकिन यह स्पष्ट किया कि केवल माफी मांगने से ही अवमानना का गंभीर अपराध “स्वचालित रूप से समाप्त” (automatically purge) नहीं हो जाता। कोर्ट ने कहा कि अवमानना बेंच और बार काउंसिल को भेजा गया संदर्भ बरकरार रहेगा।

मामले की पृष्ठभूमि

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यह पूरा विवाद एक जमानत याचिका (आपराधिक विविध जमानत आवेदन संख्या 15885/2024) से शुरू हुआ। इस मामले में वकील श्री हरीश चंद्र शुक्ला सूचनाकर्ता के पक्ष से पेश हो रहे थे। 16 मई 2025 को मामले में बहस के बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था और श्री शुक्ला को अपनी लिखित दलीलें (written submission) दाखिल करने की छूट दी थी।

17 मई 2025 को दाखिल इन्हीं लिखित दलीलों में, कोर्ट ने पाया कि उनमें “अदालत के खिलाफ गंभीर आरोप” लगाए गए थे, जो “आपराधिक अवमानना के दायरे” में आते थे।

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इस पर, कोर्ट ने 28 मई 2025 को एक आदेश पारित करते हुए, उक्त वकील के खिलाफ आपराधिक अवमानना कार्यवाही के लिए मामले को संबंधित डिविजन बेंच को संदर्भित (refer) कर दिया। साथ ही, वकील के आचरण की जांच के लिए मामला उत्तर प्रदेश बार काउंसिल को भी भेजा गया। बाद में, वकील श्री शुक्ला ने इसी 28 मई के आदेश को वापस लेने के लिए कोर्ट में अर्जी दाखिल की।

कोर्ट के समक्ष दलीलें

अपनी रिकॉल अर्जी में, अवमाननाकर्ता वकील (contemnor) श्री शुक्ला ने कहा कि “उन्हें कोर्ट के प्रति गहरा सम्मान है” और उन्होंने अपने लिखित कृत्य के लिए “बिना शर्त माफी” मांगी। उनकी मुख्य दलील यह थी कि माफीनामे के बाद, उन्हें “अवमानना के आरोपों से मुक्त” (stands purged) समझा जाना चाहिए।

वहीं, दूसरी ओर, जमानत आवेदक के वकील ने इस अर्जी का विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि अवमाननाकर्ता वकील “सुनवाई में देरी करने के अपने मंसूबे में सफल” हो गए हैं। यह भी आरोप लगाया गया कि जब मामला दूसरी बेंच के सामने सूचीबद्ध होता है, तो वह इस रिकॉल अर्जी के लंबित होने का हवाला देकर “हंगामा” (ruckus) करते हैं।

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कोर्ट का विश्लेषण और तर्क

न्यायमूर्ति सिद्धार्थ ने वकील की लिखित दलील वापस लेने या अवमानना संदर्भ को रद्द करने से स्पष्ट इंकार कर दिया।

कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि ऐसा करना “एक बहुत बुरी मिसाल” (very bad precedent) कायम करेगा। कोर्ट ने कहा कि इस तरह तो, “श्री हरीश चंद्र शुक्ला जैसे वकील, यदि बेंच उनके अनुकूल नहीं है, तो उससे मामले को रिलीज कराने के लिए इस रणनीति का इस्तेमाल करेंगे और बाद में अवमानना कार्यवाही शुरू होने पर माफी मांग लेंगे।”

कोर्ट ने वकील की “बिना शर्त माफी” को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन इस दलील को खारिज कर दिया कि माफी से मामला स्वत: समाप्त हो जाता है। कोर्ट ने कहा कि अवमाननाकर्ता का यह दावा कि उसे बरी किया जाना चाहिए, “कानूनी रूप से सही नहीं” (not well-founded) है।

कोर्ट ने अवमानना अधिनियम की धारा 12 (proviso to Section 12) का विश्लेषण करते हुए कहा कि कानून, कोर्ट को माफी स्वीकार करने के बाद भी “सजा देने या उसे कम करने का विवेक” (discretion) प्रदान करता है।

कोर्ट ने कहा, “यह कोर्ट की सुविचारित राय है कि मौजूदा मामले में अवमाननाकर्ता ने गंभीर अवमानना की है।” कोर्ट ने टिप्पणी की, “जमानत अर्जी की सुनवाई टालने में विफल रहने के बाद उन्होंने कोर्ट को बदनाम किया और उस पर कलुषित हमले (scurrilous attacks) किए।” कोर्ट के अनुसार, यह “कोर्ट की अखंडता पर स्पष्ट आक्षेप” (clear imputation against the integrity) था।

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अंतिम निर्णय

हाईकोर्ट ने वकील की रिकॉल अर्जी को “आंशिक रूप से स्वीकार” (partly allowed) किया। यह स्वीकृति “केवल माफी प्रस्तुत करने की सीमा तक” (to the extent it submits apology) ही थी।

कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि 28 मई 2025 के आदेश का वह हिस्सा, जो मामले को “आपराधिक अवमानना बेंच और बार काउंसिल को संदर्भित करता है, वह माफी की स्वीकृति से अप्रभावित रहेगा।” कोर्ट ने कहा कि अवमाननाकर्ता आरोपों से मुक्त हुआ है या नहीं, “इसका निर्णय अब अवमानना कोर्ट (contempt court) को ही करना है।”

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